13 जुलाई 2010

एक सुबह अलसाई

रात जब सोया था
बहुत रोया था
अपना बचपन , अपना सपना
कितना सुन्दर कितना सलोना
दिन भर खेलना
गली - मोहल्ले
दौड़ा - पकड़ी
लुका छिपी
आँखे मींचे
बुझ बुझव्वल
हाथा पाई
गिल्ली डंडा
तोडा घर के अहाते का बल्ब
सुनी हजारों गालियाँ तल्ख़
खेला पत्थरों और गेंद से पिठ्ठू
पढ़ाया हर पाठ मियां मिठ्ठू
भांजे मुगदर पेले डंड
सुना लड़का बहुत ढीठ - उद्दंड .
और मेरी बिटिया रानी
थकी-हारी लौटे
भागम भाग  
छुट जाये जीवन
ना छूटे बस
दौड़ते हुए जाना
चूजों का खाना
बहुत सारे पचड़े बहुत सारे पेंच
पढना पढ़ाना अब गोरखधंधा
यह कैसा फंदा ?
चूहों की दौड़
बड़ी रेलमपेल
टयूशन की धकम पेल.
और मैं सोचता था
एक अलसाई सुबह
जब छाती पै बैठी
मेरी बिटिया रानी
मुझको जगाती
"नहीं चलेगा आज कोई बहाना
चलो जल्दी उठो
पकड़नी हैं तितलियाँ हमको है जाना "
हमारे हिस्से क्यों नहीं आई ?
एक सुबह अलसाई .
रात जब सोया था
बहुत रोया था .

3 टिप्‍पणियां:

  1. behad gahari baat kah di.......aajkal ke bachchon ke naseeb me ye sab kahan raha aur na hi wo pal rahe jinhein is tarah sanjoya ja sake.

    जवाब देंहटाएं
  2. सुंदर रचना -
    आपने अपना नज़रिया बहुत अच्छे से समझाया -
    किन्तु बच्चों से पूछ के देखिये -
    उन्हें अपनी चीज़ें बहुत अच्छी लगेंगी और आपकी बहुत पुरानी .
    समय के साथ बदलना -और उस बदलाव को अपनाना ही जीवन है .
    सुंदर रचना -
    आपने अपना नज़रिया बहुत अच्छे से समझाया -
    किन्तु बच्चों से पूछ के देखिये -
    उन्हें अपनी चीज़ें बहुत अच्छी लगेंगी और आपकी बहुत पुरानी .
    समय के साथ बदलना -और उस बदलाव को अपनाना ही जीवन है .
    सुंदर रचना के लिए बधाई .

    जवाब देंहटाएं
  3. लुका छिपी
    आँखे मींचे
    बुझ बुझव्वल
    हाथा पाई
    गिल्ली डंडा
    वाह बचपन के सरे खेल याद दिला दिए आपने ......!!
    बहुत खूब......!!

    जवाब देंहटाएं

आपके समय के लिए धन्यवाद !!

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...