16 मई 2012

मुखौटा

आदमी के चेहरे पर 
लिखा होता है ?
कौन है ? 
क्या करता है ?
हर चेहरा मुखौटा 
लगता है 
हँसी , उदासी 
मासूमियत 
कुटिलता , लाचारी
इश्कबाज़ी 
के अनेक रंगों से सजा 
रोता-गाता 
चीखता-चिल्लाता 
डराता-धमकाता 
गरियाता-रिरियाता 
कभी 
भिखारी की दयनीय सूरत 
साधुता की पवित्र मूरत 
षड्यंत्र की कुटिल मुस्कराहट 
सुन्दरी की मंद-स्मित 
भावपूर्ण भंगिमा 
नेता की कृत्रिम गर्मजोशी 
या उत्तेजक सम्बन्धों की ठंडक लिए 
आपका अपना रिश्ता , पड़ोसी 
फिर , ऐनवक्त आपसे ज़्यादा व्यस्त 
आपका दांत-काटी रोटी वाला यार 
खाने में ज़्यादा नमक से 
और उग्र हो गया  
जन्म-जन्मांतर का प्यार 
शब्दों की चाशनी में लिपटा
झूट,
सत्य के रस से 
भी बहुत ज्यादा मीठा 
हो गया है 
मुझे तुम्हारा चेहरा 
अच्छा नहीं लगा 
मधुमेह का रोगी जो ठहरा 
क्या ?
कल मिष्ठान-भण्डार पर 
तर-माल खाते देखा था ?
आपको ज़रुर गलतफहमी हुई है 
मैं कहाँ  
मेरा मुखौटा था !
मुझसे मिलता-जुलता था !!

9 मई 2012

सोमवार सुबह सवेरे

वर्षों से 
सुबह सवेरे 
मुँह अँधेरे 
ग्रीष्म, वर्षा, शीत 
सारे मौसम धरे 
साप्ताहिक दिनचर्या का 
अभिर्भूत अंग  
प्रेरक प्रसंग  
घड़ी बजाती गज़र
स्वर लहरी सा फैलता 
आरोह संगीत 
अलसाए गुस्से से 
कुढ़ता बदमिजाज़ 
गला घोट टीपता 
बंद हो जाता साज़ 
अकाल-मृत्यु प्राप्त  
बीच में दम तोड़ देता 
अवरोह गीत 
रात्रि का चौथा प्रहर 
नींद से उठा
बिस्तर से लगभग पटक 
हाथ पैर झटक 
कपड़े ताबडतोड़ पहन 
अपने ही घर से निकलता 
मानों एक शातिर चोर 
सोयी हुई बच्चियों की नींद से 
बचता बचाता 
लुका छिप 
चुपचाप दबे पाँव 
खोलता 
दरवाज़ा 
कूदता फाँदता
दौड़ता कुलांचता
सोये हुए कुत्तों से 
पाँवों की पदचाप 
बचता बचाता 
रास्ते में काली माई 
के सामने 
सिर को नवाता 
आ होता खड़ा 
बस के इन्तेज़ार में 
सुबह तो हो ही जाएगी 
बस, बस कब आएगी?
आकाश में तारा वृन्द 
और द्वितीया का चाँद 
बादलों की ओट से 
ताकता झाँकता
रात्रि के नीरव में 
अलसियाता
खाली पड़ा है अब तक 
बस-डिपो का अहाता 
तभी बिना नहाई-धोई 
अलसाई 
लड़ियाते पैरों से 
चली आई 
कल की थकी हारी 
बस 
लाद ले चली 
रात्रि की कालिमा 
अधखुली भंगिमा 
आधे-जागे 
आधे सोये-अभागे 
दिन दैन्य आदमी 
लादे लादी सी 
महानगर में अज़गर सी 
फैली हुई सड़क पर 
सरपट भागती 
पर क्या वो जानती ?
कैद है उसी की 
सख्त जकड़न 
और साँस रौन्धती गिरफ़्त 
में उसकी जिंदगी अभिशप्त 
फटते धुंधलके 
से इसी बीच 
अंगड़ाई लेता 
सूरज निकल आया 
इधर उधर ताकता
पौ फटाता
बगलें झाँकता 
हावड़ा-ब्रिज 
लालिमा में नहाया 
और सामने 
हमनाम स्टेशन 
रोज़ जैसा घबराया 
वैसा ही अस्त-व्यस्त 
चौबीसों घण्टे 
लस्त-पस्त
दम मारने की फुर्सत जो मिल पाती 
सुस्ता लेता 
कोई हड़ताल 
कोई बंध
ही पुकारता 
मानों तकता बस इसी आस से 
राइटर्स की तरफ़
रात-दिन
पढ़ता ख़बरों का हर्फ़-हर्फ़ 
कहीं तो नज़र जाए
हैं आज भी बस लाल सुर्खियाँ
ख़बरों का डाकिया 
आज भी नैराश्य लाया 
मौसम क्या ख़ाक बदला 
जिस्म अब भी पसीना-पसीना 
प्लेटफार्म की तरफ़ 
दौड़ते 
सिपाहियों की कदम-ताल 
तेज-दर-तेज 
रोज़मर्रा यात्रियों की रेलम-पेल 
भागम-भाग 
तू भी भाग 
कविता के चक्कर में 
ट्रेन न छूट जाए 
सुबह की सारी दौड़ अधूरी होगी 
कविता तो फिर भी
कभी और पूरी होगी !
एक, आज का अखबार देना !
कुछ बाँच लिया जाए !!

3 मई 2012

महाभारत

"परिस्थितियों में 
जो उचित हो वही करो "
"यही तुम्हारा धर्म है "
पाञ्चजन्य के साथ 
क्यों किया शंखनाद 
उदघोष 
क्या थी मंशा ? 
शंका - कुशंका के 
उचित-अनुचित के 
किस तराजू पर 
लटका कर चले गये 
कांटे की तरह 
धरती और आकाश के इन पलड़ों में 
मैं कब से लटका हूँ त्रिशंकु जैसा  
अपने ही पासंग विवेक पर 
और लड़ता हूँ 
अपनी ही इच्छाओं और नैतिकताओं के बटखरे से 
डरता हूँ न जाने कब कौन 
डाँड़ी मार ले 
कौन बन मामा 
अवतरित हो 
शकुनी जैसा  
अपने ही दो नेत्रों के बीच 
कौरवों और पांडवों सा 
आ खड़ा हो 
भांजी मारने को 
अकस्मात 
किसी एक आँख की पुतली दबाकर 
चौसर की बिसात पर 
फेंके हुए पासों में 
अटका है मन , जीवन 
लालसाओं के चौंसठ खानों में 
लगा सर्वस्व दाँव पर 
घसिटता अपने को 
युधिष्ठिर के श्वान जैसा 
भूत और भविष्य 
के ध्यान जैसा 
कोई तूणीर , कोई गाण्डीव 
नहीं , जो फिसल रहा है 
फिसलन पर है जीवन
द्वापर और कलियुग के जिस संधिकाल में 
मुझे छोड़ गए हे पार्थ ! 
अपने ही अंदर छुपे  हुए 
शिखण्डी के साथ 
जो स्त्री है न पुरुष
अभिशापित है 
न कुलटा है , न सती
सर्वत्र व्यापित है
न विलक्षण रथी , न सारथी 
है आरूढ़ , किमकर्तव्यविमूढ़ , आमूढ़
फिर भी कुरुक्षेत्र में उतरा है 
न हारा है न जयी है 
मध्यमवर्गीय है !!

2 मई 2012

तब न कविता अधूरी होगी

शब्द सिक्कों की तरह 
दिमाग में खन-खन बजें 
आप जेब में हाथ डाल कर
मन-मन गिनें 
कुल कितने है ?
कहाँ-कहाँ से बीने हैं ?
इनसे क्या आएगा ?
क्या घर चल पायेगा ?
उधेड़ बुनता हूँ 
असमंजस रहता हूँ 
जेब में मुट्ठी बाँध रक्खी है 
कोई शब्द कहीं छूटा तो नहीं ?
कोई फूटा रस्ता तो नहीं ?
हिसाब में कुछ कम होते हैं 
अर्थ उधार पर भी मिलते हैं 
बनिया अगर नहीं  माना तो ?
खाली हाथ फिर लौटा तो ?
और शब्द कमाने होंगे 
जेब काफी भरनी होगी 
शब्दों के बाज़ार में अब 
जिन्सों की कीमत बढ़ी हुई है 
आसमान को छूती हैं अब 
जीना फिर भी लाचारी है 
कम मुकम्मल तैय्यारी है 
कुछ काम नया लेना होगा 
थोड़ा और समय लगेगा 
थोड़ा शब्द कमाना होगा 
कुछ और बचाना होगा 
जब पूरी जेब भरी होगी 
तब न कविता अधूरी होगी 
बाज़ार तभी पहचानेगा 
मुखपृष्ठों पे आने देगा 
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...