धवल-स्फटिक श्रृंगार केश का
ढीला-ढाला वस्त्र देह का ;
मद्धिम होती तपिश प्रेम की
स्वर-फुहार अतिरिक्त नेह की ;
शांत-स्निग्ध स्पर्श तुम्हारा
सदा रहें दो-दृग जल-धारा ;
मन के वृन्दावन में महा-रास
अब नहीं, रे धनिया !
हम पुरनिया !!
हम सनातन , पोंगापंथी ,
चिर रहे बंधे , कुंठा - ग्रंथि ;
हर बात पै शंका , हर पथ भ्रांति,
विस्मृत-स्मृतियों सी विश्रांति ;
नहीं कभी की कोई धींगामुश्ती
अवध की शाम, न बनारस की मस्ती ;
उम्र अब मार रही हमको
तू न मार कोहनिया !
हम पुरनिया !!
ढीला-ढाला वस्त्र देह का ;
मद्धिम होती तपिश प्रेम की
स्वर-फुहार अतिरिक्त नेह की ;
शांत-स्निग्ध स्पर्श तुम्हारा
सदा रहें दो-दृग जल-धारा ;
मन के वृन्दावन में महा-रास
अब नहीं, रे धनिया !
हम पुरनिया !!
हम सनातन , पोंगापंथी ,
चिर रहे बंधे , कुंठा - ग्रंथि ;
हर बात पै शंका , हर पथ भ्रांति,
विस्मृत-स्मृतियों सी विश्रांति ;
नहीं कभी की कोई धींगामुश्ती
अवध की शाम, न बनारस की मस्ती ;
उम्र अब मार रही हमको
तू न मार कोहनिया !
हम पुरनिया !!