जब जगह थी ज्यादा
लोग कम थे
आपस में बतियाते
सुख दुःख साझे
घर की छत से छत लगी थी
आँगन चबूतरा रोशनदान अहाता
मिलने की हज़ार जगह बनी थी
कोई किसी भी चारपाई सो जाता
तब भी भरी पूरी नींद होती
जब आसपास कितना कुछ हो जाता
पाँव लम्बा फैलाता
पसरा सन्नाटा .
दूर बजती बांसुरी की सुन पड़ती तान
आती हवाओं पर सवार लहरियाँ
भजनों में राधा के सावरियां
कंठों में वृन्दावन गान .
अल्लसुबह उठ जाता
भिनसारे सूरज से बतियाता
कार्तिक माघ नहाता
मुंह अंधियारे जाता
सरसों में नहाया बदन
बूंदों में झिलमिलाता .
कच्चे आम की केरी
गन्ने की आँक से दातों की रणभेरी
बाल्टी भर भींगे आमों की ढेरी
चूसते चूसाते दोपहरी
कुरवा भर झागवाला मक्खन मलाई
गुलाबी रेवड़ी गरम नान -खटाई.
समय अंतराल हुआ
शहर विकराल हुआ
कबूतरबाज कबूतर खानों में रहते हैं
पड़ोसी की नामपट्टिका पढ़ते हैं
गौधूलीबेला क्रॉसिंग पै लाल बत्ती चेहरा है
भीड़ है अकेला है
गौरेया नर्सरी किताबों में फुदकती है
जिन्दगी यूँ ही रूप बदलती है .
पैकेट से निकलती है बनी बनाई रसोई
भुने हुए भुट्टों की कॉर्न सी साफगोई.
देर से उठता हूँ
कोयल की कूक नहीं
शहर अब मूक नहीं
अलार्म बजाता है
सपना डर जाता है .
सूरज की धूप नहीं
एयरकंडीशंड कमरों में
एलईडी रोशनी है
दुनिया बयालीस ईंच की एलसीडी में सिमटी है
जीवन एक चलती फिरती धारावाहिक में तब्दील
झुण्ड के झुण्ड आकाश अबाबील
संपर्कों की क्षीण डोर
सब कुछ रिमोट कंट्रोल .
कविता मे माध्यम से वक्त का फ़र्क दिखला दिया…………बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया
जवाब देंहटाएंअतुल जी आपने जिंदगी के बदलते परिवेश को सुंदर शब्दों के द्वारा प्रस्तुत किया है ....................धन्यवाद
जवाब देंहटाएंawesome bro....
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कविता -
जवाब देंहटाएंएक एक शब्द अपने अनुरूप समय की सुंदर व्याख्या करता हुआ -
पुराने समय के गाँव का और आज के शहर के जीवन का अंतर दर्शाती हुई अभिव्यक्ति |
भाई, बढ़िया रचना...
जवाब देंहटाएंकोयल की कूक नहीं
जवाब देंहटाएंशहर अब मूक नहीं
अलार्म बजाता है
सपना डर जाता है .
सूरज की धूप नहीं
एयरकंडीशंड कमरों में
एलईडी रोशनी है
...sab aadhunikta mein kho sa gaya hai..
bahut badiya rachna...