वर्षों से
सुबह सवेरे
मुँह अँधेरे
ग्रीष्म, वर्षा, शीत
सारे मौसम धरे
साप्ताहिक दिनचर्या का
अभिर्भूत अंग
प्रेरक प्रसंग
घड़ी बजाती गज़र
स्वर लहरी सा फैलता
आरोह संगीत
अलसाए गुस्से से
कुढ़ता बदमिजाज़
गला घोट टीपता
बंद हो जाता साज़
अकाल-मृत्यु प्राप्त
बीच में दम तोड़ देता
अवरोह गीत
रात्रि का चौथा प्रहर
नींद से उठा
बिस्तर से लगभग पटक
हाथ पैर झटक
कपड़े ताबडतोड़ पहन
अपने ही घर से निकलता
मानों एक शातिर चोर
सोयी हुई बच्चियों की नींद से
बचता बचाता
लुका छिप
चुपचाप दबे पाँव
खोलता
दरवाज़ा
कूदता फाँदता
दौड़ता कुलांचता
सोये हुए कुत्तों से
पाँवों की पदचाप
बचता बचाता
रास्ते में काली माई
के सामने
सिर को नवाता
आ होता खड़ा
बस के इन्तेज़ार में
सुबह तो हो ही जाएगी
बस, बस कब आएगी?
आकाश में तारा वृन्द
और द्वितीया का चाँद
बादलों की ओट से
ताकता झाँकता
रात्रि के नीरव में
अलसियाता
खाली पड़ा है अब तक
बस-डिपो का अहाता
तभी बिना नहाई-धोई
अलसाई
लड़ियाते पैरों से
चली आई
कल की थकी हारी
बस
लाद ले चली
रात्रि की कालिमा
अधखुली भंगिमा
आधे-जागे
आधे सोये-अभागे
दिन दैन्य आदमी
लादे लादी सी
महानगर में अज़गर सी
फैली हुई सड़क पर
सरपट भागती
पर क्या वो जानती ?
कैद है उसी की
सख्त जकड़न
और साँस रौन्धती गिरफ़्त
में उसकी जिंदगी अभिशप्त
फटते धुंधलके
से इसी बीच
अंगड़ाई लेता
सूरज निकल आया
इधर उधर ताकता
पौ फटाता
बगलें झाँकता
हावड़ा-ब्रिज
लालिमा में नहाया
और सामने
हमनाम स्टेशन
रोज़ जैसा घबराया
वैसा ही अस्त-व्यस्त
चौबीसों घण्टे
लस्त-पस्त
दम मारने की फुर्सत जो मिल पाती
सुस्ता लेता
कोई हड़ताल
कोई बंध
ही पुकारता
मानों तकता बस इसी आस से
राइटर्स की तरफ़
रात-दिन
पढ़ता ख़बरों का हर्फ़-हर्फ़
कहीं तो नज़र जाए
हैं आज भी बस लाल सुर्खियाँ
ख़बरों का डाकिया
आज भी नैराश्य लाया
मौसम क्या ख़ाक बदला
जिस्म अब भी पसीना-पसीना
प्लेटफार्म की तरफ़
दौड़ते
सिपाहियों की कदम-ताल
तेज-दर-तेज
रोज़मर्रा यात्रियों की रेलम-पेल
भागम-भाग
तू भी भाग
कविता के चक्कर में
ट्रेन न छूट जाए
सुबह की सारी दौड़ अधूरी होगी
कविता तो फिर भी
कभी और पूरी होगी !
एक, आज का अखबार देना !
कुछ बाँच लिया जाए !!
सुबह सवेरे
मुँह अँधेरे
ग्रीष्म, वर्षा, शीत
सारे मौसम धरे
साप्ताहिक दिनचर्या का
अभिर्भूत अंग
प्रेरक प्रसंग
घड़ी बजाती गज़र
स्वर लहरी सा फैलता
आरोह संगीत
अलसाए गुस्से से
कुढ़ता बदमिजाज़
गला घोट टीपता
बंद हो जाता साज़
अकाल-मृत्यु प्राप्त
बीच में दम तोड़ देता
अवरोह गीत
रात्रि का चौथा प्रहर
नींद से उठा
बिस्तर से लगभग पटक
हाथ पैर झटक
कपड़े ताबडतोड़ पहन
अपने ही घर से निकलता
मानों एक शातिर चोर
सोयी हुई बच्चियों की नींद से
बचता बचाता
लुका छिप
चुपचाप दबे पाँव
खोलता
दरवाज़ा
कूदता फाँदता
दौड़ता कुलांचता
सोये हुए कुत्तों से
पाँवों की पदचाप
बचता बचाता
रास्ते में काली माई
के सामने
सिर को नवाता
आ होता खड़ा
बस के इन्तेज़ार में
सुबह तो हो ही जाएगी
बस, बस कब आएगी?
आकाश में तारा वृन्द
और द्वितीया का चाँद
बादलों की ओट से
ताकता झाँकता
रात्रि के नीरव में
अलसियाता
खाली पड़ा है अब तक
बस-डिपो का अहाता
तभी बिना नहाई-धोई
अलसाई
लड़ियाते पैरों से
चली आई
कल की थकी हारी
बस
लाद ले चली
रात्रि की कालिमा
अधखुली भंगिमा
आधे-जागे
आधे सोये-अभागे
दिन दैन्य आदमी
लादे लादी सी
महानगर में अज़गर सी
फैली हुई सड़क पर
सरपट भागती
पर क्या वो जानती ?
कैद है उसी की
सख्त जकड़न
और साँस रौन्धती गिरफ़्त
में उसकी जिंदगी अभिशप्त
फटते धुंधलके
से इसी बीच
अंगड़ाई लेता
सूरज निकल आया
इधर उधर ताकता
पौ फटाता
बगलें झाँकता
हावड़ा-ब्रिज
लालिमा में नहाया
और सामने
हमनाम स्टेशन
रोज़ जैसा घबराया
वैसा ही अस्त-व्यस्त
चौबीसों घण्टे
लस्त-पस्त
दम मारने की फुर्सत जो मिल पाती
सुस्ता लेता
कोई हड़ताल
कोई बंध
ही पुकारता
मानों तकता बस इसी आस से
राइटर्स की तरफ़
रात-दिन
पढ़ता ख़बरों का हर्फ़-हर्फ़
कहीं तो नज़र जाए
हैं आज भी बस लाल सुर्खियाँ
ख़बरों का डाकिया
आज भी नैराश्य लाया
मौसम क्या ख़ाक बदला
जिस्म अब भी पसीना-पसीना
प्लेटफार्म की तरफ़
दौड़ते
सिपाहियों की कदम-ताल
तेज-दर-तेज
रोज़मर्रा यात्रियों की रेलम-पेल
भागम-भाग
तू भी भाग
कविता के चक्कर में
ट्रेन न छूट जाए
सुबह की सारी दौड़ अधूरी होगी
कविता तो फिर भी
कभी और पूरी होगी !
एक, आज का अखबार देना !
कुछ बाँच लिया जाए !!
रोचक |
जवाब देंहटाएंआभार ||
हर दिन जैसा है सजा, सजा-मजा भरपूर |
जवाब देंहटाएंप्रस्तुत चर्चा-मंच बस, एक क्लिक भर दूर ||
शुक्रवारीय चर्चा-मंच
charchamanch.blogspot.in
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति के साथ ही एक सशक्त सन्देश भी है इस रचना में।
जवाब देंहटाएंदिनचर्या का एक दिन जो और दिनों से अलग नहीं भागम भाग जिंदगी ....बहुत रोचक पढ़कर बहुत अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंTrivediji, Bahot hi badhiya likha aapne. Khoob badhaiyaan.
जवाब देंहटाएंNa sirf mere aaj ke din mein iss kavita ke kai wakiye mojood the, aaj local train mein safar karte samay main kuch iss prakar ki script likhne ki soch raha tha ek play ki. Ek "usual" din par aadharit script.
PS: Hindi se school jaisa naata tute barsoon ho gaye. Par pichale kuch dino se bade hi sundar hindi blogs mil rahe hai. Jara 'reconnect mode' mein hoon main.