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14 सितंबर 2012

कानों में

अपने शब्द अपने कानों में 
आज शरीक़ हुए बेज़बानों में .
फिर  दोस्तों की याद आयी ,
बारिशों के मौसम, रमज़ानों में .
मुल्क में आमद अच्छी नहीं ,
पैसे ज़ेब में, न माल दुकानों में .
बारिशों में रुक जाओ , लुत्फ़ नहीं  
मिलना तुमसे हो जैसे बेगानों में .
तुम्हारी ज़बान बहुत मीठी है 
मिशरी सी घोलती है कानों में .
मौसम ने बदल लिया लिबास 
बहुत चर्चा है आज दीवानों में .
वो जिनके संस्कार अच्छे हैं ,
गिनते नहीं ऊँचे खानदानों में .
कोयल कूकती है न गाती है ,
हमरी बोली, हमरी ज़बानों में .

16 मई 2012

मुखौटा

आदमी के चेहरे पर 
लिखा होता है ?
कौन है ? 
क्या करता है ?
हर चेहरा मुखौटा 
लगता है 
हँसी , उदासी 
मासूमियत 
कुटिलता , लाचारी
इश्कबाज़ी 
के अनेक रंगों से सजा 
रोता-गाता 
चीखता-चिल्लाता 
डराता-धमकाता 
गरियाता-रिरियाता 
कभी 
भिखारी की दयनीय सूरत 
साधुता की पवित्र मूरत 
षड्यंत्र की कुटिल मुस्कराहट 
सुन्दरी की मंद-स्मित 
भावपूर्ण भंगिमा 
नेता की कृत्रिम गर्मजोशी 
या उत्तेजक सम्बन्धों की ठंडक लिए 
आपका अपना रिश्ता , पड़ोसी 
फिर , ऐनवक्त आपसे ज़्यादा व्यस्त 
आपका दांत-काटी रोटी वाला यार 
खाने में ज़्यादा नमक से 
और उग्र हो गया  
जन्म-जन्मांतर का प्यार 
शब्दों की चाशनी में लिपटा
झूट,
सत्य के रस से 
भी बहुत ज्यादा मीठा 
हो गया है 
मुझे तुम्हारा चेहरा 
अच्छा नहीं लगा 
मधुमेह का रोगी जो ठहरा 
क्या ?
कल मिष्ठान-भण्डार पर 
तर-माल खाते देखा था ?
आपको ज़रुर गलतफहमी हुई है 
मैं कहाँ  
मेरा मुखौटा था !
मुझसे मिलता-जुलता था !!

9 मई 2012

सोमवार सुबह सवेरे

वर्षों से 
सुबह सवेरे 
मुँह अँधेरे 
ग्रीष्म, वर्षा, शीत 
सारे मौसम धरे 
साप्ताहिक दिनचर्या का 
अभिर्भूत अंग  
प्रेरक प्रसंग  
घड़ी बजाती गज़र
स्वर लहरी सा फैलता 
आरोह संगीत 
अलसाए गुस्से से 
कुढ़ता बदमिजाज़ 
गला घोट टीपता 
बंद हो जाता साज़ 
अकाल-मृत्यु प्राप्त  
बीच में दम तोड़ देता 
अवरोह गीत 
रात्रि का चौथा प्रहर 
नींद से उठा
बिस्तर से लगभग पटक 
हाथ पैर झटक 
कपड़े ताबडतोड़ पहन 
अपने ही घर से निकलता 
मानों एक शातिर चोर 
सोयी हुई बच्चियों की नींद से 
बचता बचाता 
लुका छिप 
चुपचाप दबे पाँव 
खोलता 
दरवाज़ा 
कूदता फाँदता
दौड़ता कुलांचता
सोये हुए कुत्तों से 
पाँवों की पदचाप 
बचता बचाता 
रास्ते में काली माई 
के सामने 
सिर को नवाता 
आ होता खड़ा 
बस के इन्तेज़ार में 
सुबह तो हो ही जाएगी 
बस, बस कब आएगी?
आकाश में तारा वृन्द 
और द्वितीया का चाँद 
बादलों की ओट से 
ताकता झाँकता
रात्रि के नीरव में 
अलसियाता
खाली पड़ा है अब तक 
बस-डिपो का अहाता 
तभी बिना नहाई-धोई 
अलसाई 
लड़ियाते पैरों से 
चली आई 
कल की थकी हारी 
बस 
लाद ले चली 
रात्रि की कालिमा 
अधखुली भंगिमा 
आधे-जागे 
आधे सोये-अभागे 
दिन दैन्य आदमी 
लादे लादी सी 
महानगर में अज़गर सी 
फैली हुई सड़क पर 
सरपट भागती 
पर क्या वो जानती ?
कैद है उसी की 
सख्त जकड़न 
और साँस रौन्धती गिरफ़्त 
में उसकी जिंदगी अभिशप्त 
फटते धुंधलके 
से इसी बीच 
अंगड़ाई लेता 
सूरज निकल आया 
इधर उधर ताकता
पौ फटाता
बगलें झाँकता 
हावड़ा-ब्रिज 
लालिमा में नहाया 
और सामने 
हमनाम स्टेशन 
रोज़ जैसा घबराया 
वैसा ही अस्त-व्यस्त 
चौबीसों घण्टे 
लस्त-पस्त
दम मारने की फुर्सत जो मिल पाती 
सुस्ता लेता 
कोई हड़ताल 
कोई बंध
ही पुकारता 
मानों तकता बस इसी आस से 
राइटर्स की तरफ़
रात-दिन
पढ़ता ख़बरों का हर्फ़-हर्फ़ 
कहीं तो नज़र जाए
हैं आज भी बस लाल सुर्खियाँ
ख़बरों का डाकिया 
आज भी नैराश्य लाया 
मौसम क्या ख़ाक बदला 
जिस्म अब भी पसीना-पसीना 
प्लेटफार्म की तरफ़ 
दौड़ते 
सिपाहियों की कदम-ताल 
तेज-दर-तेज 
रोज़मर्रा यात्रियों की रेलम-पेल 
भागम-भाग 
तू भी भाग 
कविता के चक्कर में 
ट्रेन न छूट जाए 
सुबह की सारी दौड़ अधूरी होगी 
कविता तो फिर भी
कभी और पूरी होगी !
एक, आज का अखबार देना !
कुछ बाँच लिया जाए !!

2 मई 2012

तब न कविता अधूरी होगी

शब्द सिक्कों की तरह 
दिमाग में खन-खन बजें 
आप जेब में हाथ डाल कर
मन-मन गिनें 
कुल कितने है ?
कहाँ-कहाँ से बीने हैं ?
इनसे क्या आएगा ?
क्या घर चल पायेगा ?
उधेड़ बुनता हूँ 
असमंजस रहता हूँ 
जेब में मुट्ठी बाँध रक्खी है 
कोई शब्द कहीं छूटा तो नहीं ?
कोई फूटा रस्ता तो नहीं ?
हिसाब में कुछ कम होते हैं 
अर्थ उधार पर भी मिलते हैं 
बनिया अगर नहीं  माना तो ?
खाली हाथ फिर लौटा तो ?
और शब्द कमाने होंगे 
जेब काफी भरनी होगी 
शब्दों के बाज़ार में अब 
जिन्सों की कीमत बढ़ी हुई है 
आसमान को छूती हैं अब 
जीना फिर भी लाचारी है 
कम मुकम्मल तैय्यारी है 
कुछ काम नया लेना होगा 
थोड़ा और समय लगेगा 
थोड़ा शब्द कमाना होगा 
कुछ और बचाना होगा 
जब पूरी जेब भरी होगी 
तब न कविता अधूरी होगी 
बाज़ार तभी पहचानेगा 
मुखपृष्ठों पे आने देगा 

3 अप्रैल 2012

संभवामि युगे-युगे !!

संभवामि -संभवामि
संभावनाएं हैं
समय की यही विडम्बनाएं हैं
युगे-युगे
हर युग में
किसी से नहीं मिला
क्यों नहीं मिले ?
मिलना चाहिए !
शब्दों को अर्थ
देना चाहिए
देखो
अर्थ के बिना
परसाई जी नहीं रहे
शब्द व्यर्थ रहे !
पाला-पोसा
बड़ा किया
काम नहीं आए
संभावनाएं !
गर्भ का शिशु अभागा
ही डिड-नॉट न्यू !
अभिमन्यु !
किस काल में आ रहा है !
घबरा रहा है
भविष्य अर्थगर्भित है
परिपूर्ण है
"फ्यूचर इज प्रेग्नेंट विथ पोसीब्लीटीज "
वायदा
वायदा-कारोबार 

वायदे-का-कारोबार 
"यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत 
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः "
सूचकांक 
ऊपर-नीचे 
नीचे-ऊपर 
शंकु -त्रिशंकु
सूचना का युग
सूचना-क्रांति
सूचना का विस्फोट
अर्थ नहीं चला
शब्दों में था खोट !!
बदलो -बदलो
वक्तव्य बदलो
ज़िल्द बदलो
कलेवर बदलो 

"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय 
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- 
न्यन्यानि संयाति नवानि देही"
बदलने का युग है  समय परिवर्तनशील है
सुबह का वक्तव्य शाम को वापिस लो
जैसा चाहो तोड़-मरोड़ लो
खुद को अष्टावक्र सा बना डालो
अपने आप को बदलो
आईना बदलो
युग बदलो
संभवामि युगे -युगे
हर हर गंगे !
हर हर महादेव !!
क्या क्या हरे 

गंगे-महादेव
हर्रे लगे न फिटकरी 
फिटकरी से याद आया 
कुछ गंगा में भी डाल देवें 
प्रदूषण कुछ कम हो जाए शायद !
संभावनाएं हैं
सतत-प्रयास करो
प्रयत्नशील रहो
चलते रहो
चरैवेति -चरैवेति
क्रांति-क्रांति
सतयुग आ रहा है
बस रिजर्वेशन मिल जाए !!
सम्भावना कितनी है ?
कोई चांस नहीं
कुछ ले-दे के होगा ?
देखना पड़ेगा 
आप इतना रिकुएस्ट किये है
तो कोशिश करेंगे
आखिर मानवता भी कोई चीज है
हम अपनी तरफ से कोई कसर बाकि नहीं रखेंगे
निसाखातिर रहें
आखिर अपने देस के हैं
परदेस में अपना अपने के काम नहीं आएगा
तो कौन आएगा ?
काम तो हो जाएगा न ?
भरोसा रखिए
वो "ऊपर वाला "है न
वो सबकी "खबर " रखता है
उस पर भरोसा रक्खें
(उसको अपने आप पर है न ?, बस !)
साहस नहीं छोडना चाहिए
सम्भावना पूरी है
भरोसा बनाए रखिए
वो भरोसे वाला क्या मुहावरा है -
भरोसे की भैंस पाड़ा .......??

भैंस से
याद आया 

भाई
किसने खाया
चारा ?
भाई -चारा ? , भाई चारे में सब चलता है !!
संभवामि युगे युगे
"हम सब हैं भाई-भाई
ये सरकार कहाँ से आई ?"
यह तो नारा हो गया !!
वाह !!
आप तो कविता लिखने बैठे थे ?
नहीं ?
फिकर नॉट !!
आपका भविष्य अब उज्जवल है
जल्द ही टिकट मिलने की सम्भावना है !!
संभवामि , युगे -युगे !!

इस युग में सब संभव है !!

1 अप्रैल 2012

मैं जानता हूँ

आधा-अधूरा 
थोड़ा-ज्यादा 
सब कुछ पढ़ा  
अक्षरशः
जब भी 
अंतराल आया 
स्मृति का चिन्ह रख छोड़ा 
फिर वहीं से पकड़ा जोड़ा 
मेज़ पर पड़ी हुई किताब ने 
फिर अचानक क्यों पूछा - 
"मुझे पहचानते हो ?"
यही सवाल -
"क्यों बार-बार,
अलमारी में रक्खी किताबें भी पूछने लगी हैं ?"

पंक्ति दर पंक्ति 
पृष्ठ दर पृष्ठ 
उठाया-पलटा  
खंगाला-उलीचा 
कोई नहीं मिला 
फिर कौन बोला 
किसने मौन तोड़ा 
शब्द को अर्थ किसने दिया 
क्या कोई पात्र जीवंत हो गया ?
मैं सहसा कितना डर गया !!
कुछ था जो अन्दर भर गया 
सर से पाँव तक एक सिहरन 
दौड़ गई 
आँखें दरवाज़े तक गईं 
फिर खिड़की के परदे पर जा टिकीं 
और वहाँ से छत पे घुमते पंखे पर 
अगर यह चल रहा है ?
तो मेरे माथे पे पसीना क्यों आ रहा है ?
ज्वर है ?
ये किसकी परछाईं है ?
कौन मेरे सिराहने खड़ा है ?
खुद को चिकुटी काटी
यह कोई स्वप्न नहीं है 
मैं तो जगा हूँ 
अकेला हूँ , अभागा हूँ 
तभी तो किरदारों में पड़ा हूँ 
इन्ही से बातें की हैं 
इन्ही को समझा है 
पात्र-अपात्र 
सखा, भाई , सगे सब यही हैं 
यही रिश्ते-नाते हैं 
यही सखा हैं , प्रेमी हैं 
सुख-दुःख में साथ निभाते हैं 
रोते-हंसाते हैं 
रात-बिरात जागते हैं 
मेरे साथ ही मेज़ पर बैठ 
चाय-नाश्ता होता है 
सिगरेट का छल्ला उड़ता है 
मेरे ही बिस्तर पर 
बेतरतीब पड़ना 
मेरे साथ उठते-बैठते 
मेरी किताबों के किरदार 
कब किताबों से मेरे जेहन में 
घुस गए 
अब मुझसे ही पूछते हैं -
"मुझे पहचानते हो ?"
इस प्रश्न का मैं क्या उत्तर दूँ ?
मैं जानता हूँ ?

14 मार्च 2012

जुबान

मैनें जुबान कब खोली है 
मौन ही अपनी बोली है 
निर्मिमेष नैनों की भाषा 
आँखों में कैसी जिज्ञासा 
ज़िंदगी छल-प्रपंच-धोखा 
दुनिया बच्चों सी भोली है ||


स्वप्न सारे थे अनूठे,
ह्रदय के अभिसार झूठे,
कहीं गिरे , कहीं उठे ,
इससे जुड़े , उससे रूठे, 
बुना यही ताना-बाना 
झीनी-झीनी झोली है ||


पूर्व में गोला सहसा ,
क्षितिज से झांके कैसा,
नील देह ओढ़े भगवा ,
रात्रि ले अंगडाई जैसा,
इतना न निहारो प्रिय 
तनि कसक चोली है ||

9 मार्च 2012

होली में


हाथों में है आज बरसों बाद फिर गुलाल होली में
मुझे क्यों याद आते हैं तुम्हारे गाल होली में||


बहुत दिनों से नहीं की कोई धमाल होली में
साली याद आती है चलो ससुराल होली में ||


जाने मनचला कर गया क्या मनुहार होली में
बिना रंग के ही हो गई गोरी पूरी लाल होली में ||


चढ़ाई भांग, ठंडाई, और हुआ अब ये हाल होली में
पड़ोसन के घर ना हो जाए कोई बवाल होली में ||


भीगा बदन , चोली, दुपट्टा, , सर, बाल होली में
न उसने ना-नुकुर की न ही कोई सवाल होली में ||


छोडो बाल्टी , गुब्बारे , पिचकारी , अबीर-गुलाल
चलो रंगों से घोल दें इस साल पूरा ताल होली में ||


मिलेगा  दिन में न मौका लगा नवकी दुल्हिन को
रात में ही किया देखो दूल्हे का क्या हाल होली में ||


गाली , मस्ती, चुहल , छेड़छाड़ , और थोड़ी ठिठोली
भड़ास दिल की औ' मन का मैल निकाल होली में ||


न ठुमरी, दादरा, चैती , फाग, होरी कोई मनवा में
उसके बाद नहीं जमता हमेँ कोई सुर-ताल होली में ||


न अब चाहता है कोई हम उसे रंग में अपने डूबो दें
बुढ़ापा रंग गया है सफ़ेद हमारे सब बाल होली में ||


उड़ाओ घर पे गुझिया, मालपुआ , तरमाल होली में
हमारे हिस्से वही परदेस वही रोटी दाल होली में ||

23 फ़रवरी 2012

इतिहास ( सप्तम किश्त : क्रमशः )

व्यापार , फिर व्यापार है 
लक्ष्मी है चंचला 
कब कहाँ ठहरी है 
ये क्या ज्ञान की गठरी है 
कुबेर का खज़ाना 
कौन सदा महेंद्र है 
बदलता केन्द्र है
वक्त का पहिया दौड़ता , चलता 
बदलती है धुरी 
हारे हुए हाथी, हाथीदांत सामग्री बने 
सूत के वस्त्र , ऊनी कालीन 
इत्र , विचित्र 
काली मिर्च 
लौंग , इलायची 
मसाले , मसाले
आदि इत्यादि 
नावें बनी 
तोपची रहे तोपची 
बंदूकें बन गईं जब 
तब 
प्यादे बादशाहों पर पड़े भारी 
समुद्र के रास्ते 
बढ़ गई 
राजशाही इज़ारेदारी
झुक पहाड़ गए
अगस्त्य विन्ध्य लांघ गए
स्वतंत्र सब देश बने 
साम्राज्य उपनिवेश बने 
नवजागरण काल 
प्रतिष्ठित हुआ 
बढ़ गई पशुता 
दास व्यापार हुआ 
लज्जित मनुष्यता 
आदमी पर आदमी की प्रभुता 
उस साम्राज्य में सूर्य नहीं डूबता 
फैला इतने योजन 
चवन्नी में नहीं बिकता 
उस 
इतिहास का पर्चा
सबसे सस्ता मनोरंजन 
इतिहास चर्चा .

22 फ़रवरी 2012

इतिहास ( षष्ठ किश्त : क्रमशः )

सिर्फ नहीं बर्फीली हवाओं
और हमारे बीच मानों
हिमालय जैसे
काल के मध्य खड़ा 

वैसे ही
विन्ध्य -सतपुड़ा
दुर्गम , दुष्कर , दुरूह
प्रस्तर चोटियाँ
एक एक खण्डकाव्य
वाल्मिकी रामायण
भाषा का एक अरण्य
ऋषि अगस्त्य
वनाच्छादित
संस्कृति वांग्मय
लाँघ न पाया कोई
शत्रु, दस्यु , लुटेरा
शब्द , ध्वनि , ॐकार
वयं रक्षामः
और बच गए
सोमनाथ
जाने कितने सोमनाथ
वयं यक्षामः
एक, पद्मनाभ .

इतिहास ( पंचम किश्त : क्रमशः )

इतिहास फिर क्या है 
एक निरंतर यात्रा 
कुछ पड़ाव 
फिर आये 
बाली,जावा,सुमात्रा 
दूर-सुदूर से भरा 
स्वर्ण अर्जित कोषागार 
धन-धान्य व्यापार
तक्षशिला, नालंदा 
और करने संचय 
ज्ञान-कोष अक्षय 
ज्ञानपिपासु व्हेनसांग , फाह्यान 
मेगास्थनीज, अलबरूनी 
यूनान-मिस्त्र-रोमा  
चीनो-अरब-सारा 
इतिहास की गोचर पृष्ठभूमि 
ले फिरे किम्वदंतियां
सम्पन्नता-विवृत्तियाँ  
व्यापारी , यात्री , छात्र 
यात्रा-वृतांत 
आये , हुआ समागम
बुद्ध , गौतम , शरणागत 
धम्मं शरणं गच्छामि 
संघम शरणं गच्छामि 
बुद्धम शरणं गच्छामि 
हुआ प्रसार , प्रचार 
महावीर आगमन 
णमो अरिहंताणं
णमो सिद्धाणं 
णमो आइरियाणं 
जय जिनेन्द्र 
जय महावीर 
थी यह शून्य की आय ?
या थी यही भूमि धाय ?
सब प्रश्न पूछते हैं प्राय: !
सत्ता और शक्ति 
बदलने लगे समीकरण 
फिर छिड़ा संग्राम 
युद्ध था संहारक 
भग्नावशेष स्मारक 
लूट ली सम्पत्तियाँ
मिटा दीं सब रीतियाँ 
शोकाकुल सब समाज
कुलीन और साधारण जमात 
नैराश्य का उद्दीपन 
आस्था का उद्वेलन 
विश्वास डगमग डगमग 
इतिहास का प्रतिफलन 
कौंधा अँधेरे में चमक 
अंधकार को प्रकाश सूझा 
ज्ञान की प्रकाश्य पूजा 
मार्ग था भक्ति
भक्ति और भक्ति 
आसक्ति , विश्वास, श्रद्धा , शक्ति 
जन-संबल लौटा  
उधर बिछा 
चौसर का हाथ 
चलो चलें नए दाँव 
फिर चलो हस्तिनापुर 
रचें नई महाभारत 
इतिहास ले रहा करवट
हाथी , ऊंट , वजीर, बादशाह 
फिर बिछी बिसात 
शतरंज के प्यादे 
ढाई घर उलांघे
घोड़े आये , दौड़े आये
सरपट भागे 
पोरस के साथी 
डुबो गये हाथी 
सिकंदर को मिला आम्भी 
आया , एक अजनबी 
फारस का गज़नवी
फिर जिसके 
हाथ से 
छुटा समरकंद 
और छुटा वादी-ए-फरगना 
वहाँ से चला मंगोल 
फारस में ढला मुग़ल 
बना मुग़ल सरगना 
लाया साथ 
गोला , बारूद , आग्नेयास्त्र, तोपखाना 
पड़ गया पुराना 
धनुष की प्रत्यंचा, गदा, बर्छी, भाला, तलवार 
शक्ति का ह्रास 
बदलने लगा इतिहास 
बदला भूगोल 
हिंदुकुश निर्वासना 
दोआब में बस गया 
यहीं रच गया 
कहते रहे ज्ञानी 
बूझल बानी 
कोऊ नृप होए हमैं का हानी.

इतिहास ( चतुर्थ किश्त : क्रमशः )


संस्कृत 
वेद , ऋचा , श्लोक , उपनिषद 
दर्शन , शास्त्रार्थ 
एक प्रथा 
सिंधु सभ्यता 
की लिपी अपठित , अलभ
चित्र सन्मुख 
पशुपति – नंदी मुद्रा 
अंकित विशेष 
देवता शिव सा  
स्वरुप महेश
रूद्र महादेव 
देवाधिदेव 
तीर्थ दुर्गम  
कैलाश – मानसरोवर 
अट्ठारह ज्योतिर्लिंग 
प्राचीन अर्वाचीन देवता 
युग बाद आये  द्वापर, त्रेता  
तब छाया था 
शंकर - भाष्य 
संस्कृत भाषा 
ॐकार 
शब्द ब्रह्म 
नाद ब्रह्म
अउम ध्वनि 
व्याकरण पाणिनि 
स्मृति शाश्वत 
वैदिक विरासत 
देववाणी तुल्य 
अमृत-सम-अमूल्य 
पर इनसे इतर 
मनुष्य बहुल 
किस स्वर संकुल 
सकल-संवाद-रत 
क्या उनके प्रयत 
थे स्वर दीर्घ 
या सिर्फ 
ह्रस्व    
क्या पता 
क्या थे सब शतपत 
या एतरेय ?
तैतरीय निषाद 
एकलव्य 
संशय  की पराकाष्ठा 
है मुझे भी सालता  
क्या करें 
कैसे रहें 
सब प्रश्न स्वयं से पूछते रहे 
नचिकेत अग्नि के पूर्वाग्रह 
हों कितने भी गूढ़
हम मूढ़  
यम के द्वार डटे रहे 
आर्य –अनार्य
विभाजित के विपर्यस्त
भोगा 
राम का वनवास 
संपर्क प्रथम 
वनवासी समाज 
केवट संगम 
स्वप्न समागम 
बाँधा एक पुल,एक सेतु 
फिर भी रहा कटा 
जन-ज्वार नहीं पटा
धोबी का ताना 
बना उर-छाला
सीता - त्याग
अग्नि-परीक्षा 
आज तक खीजता 
खोजता मृगमरीचिका  
कल्पनालोक 
यूटोपिया 
किसने दिया , किसने दिया 
रामराज्य , रामराज्य   
तुलसी के सात सोपान 
भक्तिमय उपादान 
श्रवण-पान श्रवण-गान .
बदली , बदली, भाषा बदली 
चार कोस पर बोली 
ब्रज , अवधी , मीरा , रहीम , कबीर, रसखान 
विद्यापति , पद्मावत , जायसी, नानक, सूरदास 
उठे ढोल , मंजीरे 
भक्ति रस में धीरे -धीरे 
पीछे छूटा बमभोला 
हर हर महादेव 
महामृत्युन्जय
कृष्ण की रासलीला 
बाल गोपाल उनका झूला 
बही बही बयार 
उमडा उमडा जनज्वार 
कुछ-कुछ पटा
लोक-जन , जन-जन 
समरसता , समरसता 
ब्रज की बोली , अवधी की सत्ता 
भाषा का रामराज्य बसता !!

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