आधा-अधूरा
थोड़ा-ज्यादा
सब कुछ पढ़ा
अक्षरशः
जब भी
अंतराल आया
स्मृति का चिन्ह रख छोड़ा
फिर वहीं से पकड़ा जोड़ा
मेज़ पर पड़ी हुई किताब ने
फिर अचानक क्यों पूछा -
"मुझे पहचानते हो ?"
यही सवाल -
"क्यों बार-बार,
अलमारी में रक्खी किताबें भी पूछने लगी हैं ?"
पंक्ति दर पंक्ति
पृष्ठ दर पृष्ठ
उठाया-पलटा
खंगाला-उलीचा
कोई नहीं मिला
फिर कौन बोला
किसने मौन तोड़ा
शब्द को अर्थ किसने दिया
क्या कोई पात्र जीवंत हो गया ?
मैं सहसा कितना डर गया !!
कुछ था जो अन्दर भर गया
सर से पाँव तक एक सिहरन
दौड़ गई
आँखें दरवाज़े तक गईं
फिर खिड़की के परदे पर जा टिकीं
और वहाँ से छत पे घुमते पंखे पर
अगर यह चल रहा है ?
तो मेरे माथे पे पसीना क्यों आ रहा है ?
ज्वर है ?
ये किसकी परछाईं है ?
कौन मेरे सिराहने खड़ा है ?
खुद को चिकुटी काटी
यह कोई स्वप्न नहीं है
मैं तो जगा हूँ
अकेला हूँ , अभागा हूँ
तभी तो किरदारों में पड़ा हूँ
इन्ही से बातें की हैं
इन्ही को समझा है
पात्र-अपात्र
सखा, भाई , सगे सब यही हैं
यही रिश्ते-नाते हैं
यही सखा हैं , प्रेमी हैं
सुख-दुःख में साथ निभाते हैं
रोते-हंसाते हैं
रात-बिरात जागते हैं
मेरे साथ ही मेज़ पर बैठ
चाय-नाश्ता होता है
सिगरेट का छल्ला उड़ता है
मेरे ही बिस्तर पर
बेतरतीब पड़ना
मेरे साथ उठते-बैठते
मेरी किताबों के किरदार
कब किताबों से मेरे जेहन में
घुस गए
अब मुझसे ही पूछते हैं -
"मुझे पहचानते हो ?"
इस प्रश्न का मैं क्या उत्तर दूँ ?
मैं जानता हूँ ?
थोड़ा-ज्यादा
सब कुछ पढ़ा
अक्षरशः
जब भी
अंतराल आया
स्मृति का चिन्ह रख छोड़ा
फिर वहीं से पकड़ा जोड़ा
मेज़ पर पड़ी हुई किताब ने
फिर अचानक क्यों पूछा -
"मुझे पहचानते हो ?"
यही सवाल -
"क्यों बार-बार,
अलमारी में रक्खी किताबें भी पूछने लगी हैं ?"
पंक्ति दर पंक्ति
पृष्ठ दर पृष्ठ
उठाया-पलटा
खंगाला-उलीचा
कोई नहीं मिला
फिर कौन बोला
किसने मौन तोड़ा
शब्द को अर्थ किसने दिया
क्या कोई पात्र जीवंत हो गया ?
मैं सहसा कितना डर गया !!
कुछ था जो अन्दर भर गया
सर से पाँव तक एक सिहरन
दौड़ गई
आँखें दरवाज़े तक गईं
फिर खिड़की के परदे पर जा टिकीं
और वहाँ से छत पे घुमते पंखे पर
अगर यह चल रहा है ?
तो मेरे माथे पे पसीना क्यों आ रहा है ?
ज्वर है ?
ये किसकी परछाईं है ?
कौन मेरे सिराहने खड़ा है ?
खुद को चिकुटी काटी
यह कोई स्वप्न नहीं है
मैं तो जगा हूँ
अकेला हूँ , अभागा हूँ
तभी तो किरदारों में पड़ा हूँ
इन्ही से बातें की हैं
इन्ही को समझा है
पात्र-अपात्र
सखा, भाई , सगे सब यही हैं
यही रिश्ते-नाते हैं
यही सखा हैं , प्रेमी हैं
सुख-दुःख में साथ निभाते हैं
रोते-हंसाते हैं
रात-बिरात जागते हैं
मेरे साथ ही मेज़ पर बैठ
चाय-नाश्ता होता है
सिगरेट का छल्ला उड़ता है
मेरे ही बिस्तर पर
बेतरतीब पड़ना
मेरे साथ उठते-बैठते
मेरी किताबों के किरदार
कब किताबों से मेरे जेहन में
घुस गए
अब मुझसे ही पूछते हैं -
"मुझे पहचानते हो ?"
इस प्रश्न का मैं क्या उत्तर दूँ ?
मैं जानता हूँ ?
किताबें हमसे बात करती हैं
जवाब देंहटाएंहम ही उन्हें अनसुना किये हैं,
जिस दिन अपने को पढ़ लेंगे
कागज के अक्षर चलने लगेंगे !!
kitab padhate samay ham bhi kuch us tarah se apne apko dhalate hai..
जवाब देंहटाएंaur ir sochate hai ki ye kya hai...bahut hi utkrusht rachana...
bahut badhiya....shabdo ko sundarta se sajaya hai apne...badhai
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंक्या कहने
बहुत बढ़िया एवं सार्थक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंपुनः ,नवीन बिम्ब ,माध्यम -पुस्तकें ,प्रश्न -स्वयं का स्वयं से ,आकुल प्रश्न ,निर्बोध प्रश्न , यक्ष प्रश्न ?प्रगाढ़ शैली ,विस्तृत वेवेचन ,हम सब के लिए !
जवाब देंहटाएंबढ़िया बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया.............................
सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंकई बार ऐसा होता है कि शब्दों के साथ तस्वीरें उभरने लगती हैं....!
जवाब देंहटाएंआज भी वैसा ही कुछ महसूस हो रहा है यहाँ...!!
अक्सर किरदार जीवन में उथल पुथल मचाते हैं..सुंदर रचना :)
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंमेरी किताबों के किरदार मुझसे पूछते हैं-
मुझे पहचानते हो ।
मैं तो पहचानता हूं पर वो ही नहीं पहचानते कि किताब पढ़ कर
मेरा कितना बुरा हाल हुआ है, काश मैं किताबें न पढ़ा होता ।
बहुत सुंदर
सादर