दुकानें दो तरह की होती हैं . एक तो सरकारी राशन की दुकानों जैसी . वहाँ हर तरह का माल मिलता है जैसा वहीं मिल सकता है . राशन का चावल राशन जैसा , राशन की चीनी राशन जैसी , राशन का कपडा भी राशन जैसा . "राशन " खुद एक ब्राण्ड हो जाता है . आप वो चावल ले भी आयें , तो पका नहीं पाएंगे , पका लिया तो खा नहीं पाएंगे . आपको वो पका हुआ चावल उसी दुकान पर लौटा देना होगा . और दुकानदार से सुनना भी होगा - हम तो पहले ही कह रहे थे , आप रहने दें , आप नहीं खा पाएंगे , नहीं सुना . अब देखिए पका पकाया वापस लाना पड़ा न . अगर आप खा भी लेते तो मेरा दावा है पचा नहीं पाते . राशन का चावल है . अलग किस्म का पेट चाहिये इसके लिए .ये चावल अलग किस्म की आबो-हवा में पनपते हैं . इन्हें अलग किस्म की मिट्टी में उगाया जाता है . इसे राशन के लिए खरीदा और बेचा जाता है . इसे सिर्फ नेता , अफसर , ठेकेदार खा और पचा सकते हैं .
वैसे ही सरकारी हिन्दी की दुकान है . ये हिन्दी वहीं मिलती है . वही इसके उत्पादक हैं , विक्रेता हैं , और ग्राहक भी . आप इसे पढ़ नहीं सकते , पढ़ लें तो समझ नहीं सकते , समझ लें तो किसी और को समझा नहीं सकते . और अगर समझा लिए तो मेरा दावा है आप आदमी हो ही नहीं सकते .
आपके अंदर सरकारी बाबू , सरकारी अफसर , सरकारी खबरनवीस , सरकारी कवि, सरकारी साहित्यकार एक न एक अदद छुपा है .
आप आइये आप को हम ही छाप सकते हैं , हम ही वितरित करेंगे , हम ही खरीदेंगे , हम ही पढेंगे , हम ही परिचर्चा करेंगे , समीक्षा लिखेंगे ,, और पुरस्कृत भी करेंगे . आप की महान रचना पाठ्यक्रम के योग्य समझी जायेगी . हम ही हिन्दी दिवस पर आपकी हर रचना को अलग-अलग पुरस्कारों , शाल - दुशाले , श्रीफल से नवाजेंगे . आप को अकादमी का अध्यक्ष बनायेंगे . आपसे भाषण करवाएंगे , आपसे लिखवायेंगे , आपको सुनेंगे , आपसे ताली बजवायेंगे .
पर हिन्दी का क्या होगा ? क्या होना है ? जो राशन का चावल नहीं पचा सकते भूखे तो नहीं मर रहे . बाजार से खरीद कर खा रहे हैं न ? अगर पैसे होंगे तो खरीदेगा , खायेगा , जिंदा रहेगा . नहीं ? नहीं तो क्या होगा मर जाएगा . आप भी कहाँ कहाँ की चिंता करते हैं . मॉल खुलने से मोहल्ले का दुकानदार मर तो नहीं गया ? बिक्री कम हुई होगी . वो फिर भी पेट भरने को कमा तो ले ही रहा है . अब देखिए जब मॉल नहीं थे तो तो आपको डांङी मार कर माल कौन देता था ? नकली माल कौन देता था ? ज्यादा छपे भाव पर कौन देता था ? पुराना माल कौन देता था ? गन्दा , सड़ा माल कौन चिपका देता था ? तो अब आप उसकी चिंता में क्यूँ दुबरा रहे हैं ?
वैसे ही सरकारी हिन्दी की दुकान है . ये हिन्दी वहीं मिलती है . वही इसके उत्पादक हैं , विक्रेता हैं , और ग्राहक भी . आप इसे पढ़ नहीं सकते , पढ़ लें तो समझ नहीं सकते , समझ लें तो किसी और को समझा नहीं सकते . और अगर समझा लिए तो मेरा दावा है आप आदमी हो ही नहीं सकते .
आपके अंदर सरकारी बाबू , सरकारी अफसर , सरकारी खबरनवीस , सरकारी कवि, सरकारी साहित्यकार एक न एक अदद छुपा है .
आप आइये आप को हम ही छाप सकते हैं , हम ही वितरित करेंगे , हम ही खरीदेंगे , हम ही पढेंगे , हम ही परिचर्चा करेंगे , समीक्षा लिखेंगे ,, और पुरस्कृत भी करेंगे . आप की महान रचना पाठ्यक्रम के योग्य समझी जायेगी . हम ही हिन्दी दिवस पर आपकी हर रचना को अलग-अलग पुरस्कारों , शाल - दुशाले , श्रीफल से नवाजेंगे . आप को अकादमी का अध्यक्ष बनायेंगे . आपसे भाषण करवाएंगे , आपसे लिखवायेंगे , आपको सुनेंगे , आपसे ताली बजवायेंगे .
पर हिन्दी का क्या होगा ? क्या होना है ? जो राशन का चावल नहीं पचा सकते भूखे तो नहीं मर रहे . बाजार से खरीद कर खा रहे हैं न ? अगर पैसे होंगे तो खरीदेगा , खायेगा , जिंदा रहेगा . नहीं ? नहीं तो क्या होगा मर जाएगा . आप भी कहाँ कहाँ की चिंता करते हैं . मॉल खुलने से मोहल्ले का दुकानदार मर तो नहीं गया ? बिक्री कम हुई होगी . वो फिर भी पेट भरने को कमा तो ले ही रहा है . अब देखिए जब मॉल नहीं थे तो तो आपको डांङी मार कर माल कौन देता था ? नकली माल कौन देता था ? ज्यादा छपे भाव पर कौन देता था ? पुराना माल कौन देता था ? गन्दा , सड़ा माल कौन चिपका देता था ? तो अब आप उसकी चिंता में क्यूँ दुबरा रहे हैं ?