30 जून 2010

मटमैला हो गया जीवन

बहुत  दिनों  के  बाद 
एक भूली बिसरी याद 
जीवन की सरिता को खंगाल गयी ,
मटमैला हो गया जीवन .
विस्मृत स्मृतियों की भीनी फुहार 
भिंगो गयी मन की कंदराओं के द्वार ;
दबी अनुभूतियाँ , अनकहे संवाद ,
छिन्न-भिन्न कर टूट गया बाँध ;
कट गए तटबंध  शिथिल,
विप्लव प्लावित  हुआ मन.
मटमैला हो गया जीवन  .
कर्पूर सी सहेजी स्मृतियाँ
औ ' चिरैय्या के चूजे ;
छोड़ गए तिनकों का घोसला,
चुग दाना उड़ गए गगन में ;
गोधूलि वेला में फंसा
अपने जाल निषाद यौवन .
मटमैला हो गया जीवन .
अब नहीं उगती कोंपले, बौराता वन, 
जलता पलाश से जंगल ;
पारस की तलाश में 
व्यय विनिमय सकल ;
थक गया पथिक , यात्रा अधूरी
शेष समर  विधवा क्रंदन .
मटमैला हो गया जीवन .

 

label - पैबंद का उपयोग


label Look up 
label at Dictionary.com
early 14c., "narrow band or strip of cloth," from O.Fr. label, lambel "ribbon, fringe" (Fr. lambeau "strip, rag, shred, tatter"), possibly from Frankish *labba (cf. O.H.G. lappa "flap"), from P.Gmc. *lapp- (see lap (n.)). Sense of "strip attached to a document to hold a seal" evolved in M.E. (late 14c.), and general meaning of "tag, sticker, slip of paper" is from 1670s. Meaning "circular piece of paper in the center of a gramophone record" (1907), containing information about the recorded music, led to meaning "a recording company" (1952). The verb meaning "to affix a label to" is from c.1600; figurative sense of "to categorize" is from 1853. Related: Labeled; labeling; labelled; labelling.
बहुत दिनों से सोच रहा था अपने ब्लॉग पर "Label " लगाऊं . पर  उसके लिए उपयुक्त शब्द क्या हो यह प्रश्न भी मन में उठ रहा था . फिर label की व्युत्पत्ति पर खोज की . और एक मुहावरा याद आ ही गया -" मखमल में टाट का पैबंद ". व्यव्हार की बोली में हम 'चिंदी ' का भी इस्तेमाल कर सकते हैं . पर हिन्दुस्तानी होने के नाते लगा - पैबंद ज्यादा पास होगा . और अगर सभी इसका इस्तेमाल करें तो शायद आगे जाकर जो विचार "label " संप्रेषित करता है , वैसा ही विचार यह भी कर सकेगा . पैबंदीकरण, शायद "labelling "के समक्ष खड़ा हो जाये . 

29 जून 2010

जीवन की महाभारत

हम सब शामिल हैं ,
हर क्षण 
पल , प्रतिपल 
जीवन की महाभारत में 
अपने ही रचाये
चक्रव्यूह को सजाने 
और उसमे फंसे 
अपने प्रतिबिम्ब 
अभिमन्यु को बचाने.
हमारे ही बीच है कोई 
जो धृतराष्ट्र की तरह अँधा है ,
कोई शकुनी सा धूर्त है ,
कोई कर्ण सा दानवीर है 
कोई भीम की तरह शक्तिशाली , पर अधीर है .
बाहर  नहीं 
हमारे भीतर 
एक धर्मराज बैठा है 
जो नापतौल के बोलता है 
एक भीष्म है 
जो अपने ही वचन तौलता है
एक अर्जुन है 
जिसकी अपने ही स्वार्थों की मछली पर टंगी आँख है 
एक द्रौपदी है 
जो पांच पतियों के होते हुए भी राजनीति की साख है ,
जो हमारे चरित्र से भी ज्यादा निर्वस्त्र है
एक गांधारी है जिसने बांध रक्खी  है आँखों पर पट्टी  
हम सब अभिनेता हैं 
रोज स्वांग भरतें हैं  
अभिनय करतें हैं 
पढ़तें हैं रामायण 
और पात्र में महाभारत सजतें हैं .
सोचतें हैं अपने ही बांधवों के खिलाफ 
दुर्योधन की तरह कुटिल चालें
अपने मन विष , वैमनस्य पाले 
और सोचते हैं 
हम हैं सारथी अर्जुन के 
देतें हैं औरों को गीतोपदेश 
'यदा यदा ही धर्मस्य ...
संभवामि युगे युगे '.
और हर युग में 
हम सब शामिल हैं
व्यस्त हैं 
जो देखतें हैं 
जीवन को राजनीति  के सोपान का प्रतिबिम्ब 
और स्वयं को उसके शिखर पे बैठा हुआ ईष्ट.

23 जून 2010

मेहमानों का शहर

पुराने  सपनों का शहर अपने - बेगानों का शहर 
अब के लौटा तो लगा बन के मेहमानों का शहर.
तुम खुशकिस्मत हो दोस्त परदेश में बसते हो,
बहुत कमदिल हो चुका अब कद्रदानों का शहर .
अब के बारिश में बहुत भीगा तो याद आया ,
घर छोड़ रोया था कर - करके  बहानों का शहर .
यहाँ भी जो आग लगी गुलमोहर में अबके बरस ,
मंदिरों-मस्जिदों में रोयेगा आरती-अजानों का शहर .
कोई मयखाना नहीं और कोई शिवाला भी नहीं,
यह गाँव नहीं बन सकता कभी दीवानों का शहर.
मैं किसी नाव पर नहीं था फिर पार कैसे जाता ?
कैसे बढ़ेगा बिन सिफारिशों , बंद ज़ुबानों का शहर . 

22 जून 2010

भीड़ में अकेला

एक शख्स जो भीड़ में अकेला लगा हो ,
 ग़ज़ल में वैसा  कोई मतला लगा हो .
संदूक से पुराने ख़त निकाले तो जैसे,
यादनगर में गाँव का मेला लगा हो.
शहर की बारिश  में भींगना अच्छा लगा,
बदन में तपिश कहीं, कहीं नज़ला लगा हो.
अमूमन गाँव की नदी जब शहर आती है ,
रेले टूटते  हैं , एक ज़लज़ला लगा हो .
 

जिसने सुना हो

तुम जिसके ख्वाब की कल्पना हो ,
उसे फिर स्वप्न देखना भी मना हो .
तेरी याद बदन में सिहरन भर दे ,
तेरा साथ धूप सा जो गुनगुना हो .
गुनगुनाता है , हमारे बागीचे कूकती
कोयल का  गान जिसने सुना हो .
कारागार का संतरी आठों प्रहर,
जो कैदी है , चेहरा उसका तना हो .

17 जून 2010

सीढियों से चढ़ना

आज के युग में ,
ईमानदारी के रास्ते चलना ,
वैसे ही ,
जैसे ,
किसी बहुमंजिला 
ईमारत में 
लिफ्ट के बजाये 
सीढियों से चढ़ना. 

16 जून 2010

होली बिना लाग लपेट

माप - बाट नहीं तौला,
होली बिना लाग लपेट 
रंगों से खेला .
जीवन जैसा मिला ,
वैसा जिया .
हुरियारों की टोली संग ,
गली मोहल्ले डोला ,
खाई भंग ,चढ़ी तरंग ,
नहीं उतरा अब तक ,
मन चढ़ा रंग .
अपने बच्चे 
डर डर के लगाते हैं ,
माथे पर गुलाल ,
हरा , गुलाबी , अबीर लाल .
नहीं होते रंगों से तर बर,
बालों में नहीं डाला कभी 
आँख बचा , छुप कर ,
चुटकी भर रंग ,
नहीं रंग डाला किसी को ,
अपने रंग में .
गाया नहीं होरी में गीत ,
गला फाड़ फगवा ,
फाड़ा नहीं कुरता ,
खोली नहीं धोती ,
सजाया नहीं स्वांग ,
बनाया नहीं किसी को होली का राजा .
निकाली नहीं मस्तानों की बारात,
मय गाजा बाजा .
पिचकारी लिए ,
नहीं खेली आँख मिचोली है,
नहीं बोला - बुरा ना मानो होली है.
अल्हड़ उल्लास, मदमस्त परिहास .
पूरा का पूरा शहर , पूरा मोहल्ला ,
साथ खेलता था रंग , साथ छुड़ाता था ,
बैठ कर पक्के घाट.
दाऊ के मंदिर में होती थी 
दही हांड़ी की लूट,
रास में झूम कर नाचता था भर पूर.
शाम को मिलना- मिलाना  होली  .
खाना सबके घर तरह तरह की गुझिया.
हमने ऐसे जिया .
माप - बाट नहीं तौला,
होली बिना लाग लपेट 
रंगों से खेला .

रचना के बीच अंतराल

अन्यमनस्क मन ,
कई-कई दिन ,
खोजता है एक रचना ,
जीवन में .
बहुत दिनों तक सुनता है कोयल का गान ,
ढूंढता  है अतीत का एक प्रणय - प्राण ,
बुजूर्गों के सुनाये किस्से ,
पाठ के रटे - रटाये हिस्से ,
किसी से किया हुआ  अनुबंध ,
एक भूला हुआ सम्बन्ध .
नदी के किनारे घंटों बिताये क्षण  ,
बाजार  में बिना उद्देश्य प्रहरों घूमते कदम ,
आँखों के आगे चलचित्र की तरह गुजरते जीवन के दृश्य ,
बहुत से खाके , बहुत से शब्द , और बहुत कम ,
- ऐसा सबके साथ हो , यह जरूरी नहीं -
एकांत के क्षण .
बजते हैं कानो में घंटों निनाद ,
मन में उमड़ते घुमते है आशा - विषाद,
बिम्ब - प्रतिबिम्ब शब्दों के , अर्थों के ,
खोजते  हैं जीवन का सच झूठ.
एक अनसुलझा प्रश्न , एक त्रिशंकु उत्तर .
परिहास , आंसू , उल्लास , क्रंदन .
आँखों में आशा , चेहरे पे मुस्कान ,
एक बसा हुआ शहर , एक मातमी वीरान .
दो रचनाओं के बीच 
अंतराल ,
कभी पल का ,
कभी सदी की तरह लम्बा .
कभी सुखी हुई नदी  की पतली धार,
कभी समुद्र अथाह .
बहुत विचलित कर जाता है ,
जीना दो रचनाओं के बीच .
गर्भ को ढोना,
सहना अपने अन्दर पलते 
अविकसित शिशु को
सींचना अपने रक्त से .
कभी कभी होता है अजूबा प्रकृति में .
एक साथ जन्म लेते है ,
जुड़वां .
हो जाती है दूगनी.
अभिलाषा .

15 जून 2010

एक पूरा शहर

हवा में रिसी गैस 
रातों रात एक शहर को 
शमशान कर गई .
अफवाहों , टेलीफोन ,
अधकचरी खबरों के सहारे कटी रात .
आधी रात .
बंद कर गई दरवाज़े , खिड़कियाँ , और दिमाग .
चंद लोग  
जूझते रहे ,
करते रहे ,
मौत से ,
दो दो हाथ .
पूरा शहर ,
एक पूरा शहर ,
नींद में ,
एक जुलूस की तरह ,
भागता रहा इधर उधर .
अगली सुबह 
गुजरी 
गिनती लाशों ,
बुझती आँखों ,
और पसरे सन्नाटे को तोड़ती खांसी में .
एक अफवाह ने 
पेट्रोल पम्प पर लगी 
पूरी लाइन को
बेतरतीब भगा दिया .
अगली सुबह 
एक पूरा शहर तड़ीपार हो गया ज्यों .
जहाँ लोग अपनी ही परछाई से डरते हों ,
जहाँ लोग रिस रिस के मरते  हों ,
एक अस्पताल से दूसरे ,
एड़ियाँ घिसते हों ,
जहाँ गिद्ध भी उतरने से ,
ठिहरते हों ,
ऐसे शहर में कानून और व्यवस्था का डर ?
एक मुहावरा या एक घिनौना मजाक .
फिर मुनादी हुई ,
टैंक खाली होगा .
लोग शहर छोड़ दें ,
और जो नहीं जा सकते स्टेडियम में ठहरें ,
भोजन बनेगा , तम्बू लगेगा ,
हेलीकाप्टर से जल का छिडकाव होगा .
छलावा, नाटक , प्रहसन ,
भौंडापन .
कोई नहीं जुटा.
खाली था पूरा शहर .
गिनती के लिए भी नहीं थी जिंदगी .
उंगलियाँ मौत गिन कर थक चुकीं थीं .
फिर कई दिनों बाद ,
हुआ संस्कृति का पाखंड ,
विश्व कवि सम्मेलन.
कहा गया - मरे हुए लोगों के साथ 
मरा नहीं जा सकता .
एक पूरा शहर चुप था .
एक पूरा देश चुप है .
कविता जिन्दा है ,
आदमी मर गया .
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