16 अगस्त 2013

हम पुरनिया !!

धवल-स्फटिक श्रृंगार केश का 
ढीला-ढाला वस्त्र देह का ;
मद्धिम होती तपिश प्रेम की 
स्वर-फुहार अतिरिक्त नेह की ;
शांत-स्निग्ध स्पर्श तुम्हारा 
सदा रहें दो-दृग जल-धारा ;
मन के वृन्दावन में महा-रास 
अब नहीं, रे धनिया ! 
हम पुरनिया !!

हम सनातन , पोंगापंथी ,
चिर रहे बंधे , कुंठा - ग्रंथि ;
हर बात पै शंका , हर पथ भ्रांति, 
विस्मृत-स्मृतियों सी विश्रांति ;
नहीं कभी की कोई धींगामुश्ती
अवध की शाम, न बनारस की मस्ती ;
उम्र अब मार रही हमको 
तू न मार कोहनिया !
हम पुरनिया !!






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