30 मार्च 2010

धंधे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो

हिंदी लेखक या कवि. बचपन में पापा कहते थे - कविराज कविता के मत कान मरोड़ो , धंधे  की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो . किसी पुरानी फिल्म के गाने की कुछ पंक्तिया. कैसा हो हिंदी का कथाकार या  कवि ? क्या है उसका परिचय ? पत्रकार ? अध्यापक ? या पेशेवर लेखक ? 
क्यों नहीं कोई डाक्टर , कोई वैज्ञानिक , कोई समाज शास्त्री , कोई नेता , कोई अभिनेता , कोई ड्राईवर , कोई चार्टेड अकाउंटएड  लिखता हिंदी में . क्यों हिंदी लेखक समाज में पत्रकारिता, अध्यापन , या इन्ही तरह के पेशे से जोड़कर देखा जाता है . जो पहले  से ही हिंदी से अपना घर संसार चला रहा है , और हिंदी लेखन या हिंदी में लेखन उसकी या तो नियति मान ली गयी है , या फिर पहले से चले आ रहे  कर्म का एक और विस्तार पटल . 
मुझे लगता है हर कर्म देता है जीवन का एक अनुभव , एक दृष्टि , और लेखन उस अनुभव उस दृष्टि को बाकि सब से बांटने का माध्यम है . हिंदी लेखन को चाहिए इस विस्तार का समावेश . जो विविध जीवन जी रहे , विविध कर्म से जुड़े लोग ला सकते है . वे ही ला सकते है नयी शब्दावली , नए मुहावरे , नए अर्थ , और नयी उर्जा .
हिंदी लेखन को , हिंदी पत्रकारिता या फिर हिंदी अखबार को चाहिए बहु विविध आयाम जीवन का . आइये इसे बांटे.

29 मार्च 2010

घर जला है

लोग अब  पहरावों से पहचाने जाते हैं ,
पहरावा न तेरा भला है , न मेरा भला है .
अब तक धुआं है , धुआं है, धुआं है ,
न जाने किसका घर जला है .
तू नहीं आईना चटकने का सबब ,
मैंने देखा है एक चेहरा जला है .
मै सच जानता हूँ मै सच नहीं कहूँगा ,
तुम्हारा ही नहीं ये मेरा भी फैसला है .
वह जरुरत से ज्यादा भला है ,
सिर्फ तुमने नहीं उसे मैंने भी छला है .
उन्हें जब देखा मुस्कराते देखा ,
उनका हर चेहरा इतना भला है .

25 मार्च 2010

सरसों फिर फूटे

फट गयी खेतों की मिट्टी ,
सूरज की गरमी सह सह कर |
अमवा सी बौराई देह
पोर - पोर टूटे ,
सरसों फिर फूटे ||
लेटा है कलुआ आँगन ,
ढांप अंगोछा , बिछा चटाई ,
काली बिल्ली पुरवा से ,
चट  कर गई दूध मलाई |
जाती बछिया को तक ,
गैय्या  डोल रही खूंटे |
सरसों फिर फूटे | |
ख़त्म हुई कुंए और पनघट की बातें ,
नहीं सुहाता तनिक कमरों का बंधन ,
गौना होकर आ रही पायल की रुनझुन ,
नीक बहुत होती हैं छत पर ठंडी रातें |
अम्मा - दादी , लहंगा - चुनरी ,
टांक रही बूंटे |
सरसों फिर फूटे | |

मैं अभी तक वैसा ही हूँ

तुम बदले बदले लगते हो ,
मैं अभी तक वैसा ही हूँ |
पूजा की थाली में रखे थे ,
कुछ यादों के फूल पुराने ,
और तुम्हारे ख़त रखे हैं ,
मन की आँखों के सिरहाने |
मेरा - तेरा इतिहास नहीं है ,
मैं झूठा किस्सा ही हूँ |
आँखों पर मौन के ताले ,
आंसू की जंजीर ने बाँधा ,
वक्त को भी रोना था ,
लेकर मेरा ही कांधा |
ईश्वर का आकार नहीं है ,
एक वैसा रिश्ता ही हूँ |
ख़त - खिताबत लेना - देना ,
सब जीने का ताना - बाना,
उम्र की दहलीज पे मिलना ,
बाटूंगा सब नया पुराना |
सूखे पत्ते ज्यों गिरते हैं ,
मैं उतना कच्चा ही हूँ | |

हाथों की गिरफ्त

मान लो तुम्हारे हाथों में एक तलवार है,
जिसकी हर वार के साथ कुंद हो जाती धार है ,
जबकि गर्दने अपेक्षतया मोटी होती जा रही है ,
और अब हाथों की गिरफ्त में भी कहाँ आ रही हैं .
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