18 अक्तूबर 2012

उत्सव

लो फिर आ गया मौसम 
त्यौहारों का 
व्यवहारों का
लौटा फिर वृक्षों पर 
नये पात और नये फल लिये 
खेतों में एक नयी फसल लिये 
मौसम हल्की हल्की सर्दी 
गुनगुनी गुलाबी धूप का 
उपवन उपवन मौसम आया 
कौन चितेरा आँक रहा 
बादलों की तूलिका से 
यौवन के सपनों , मस्ती , अंगड़ाई ,
अलसाई , काम-रूप का !!
उत्सव है , तो जीवन है ,
आशा है , श्रृंगार है ,
कामना है ,
शरीर है , व्यसना है ,
उत्सव का अभिमान 
नवयौवना है .

14 सितंबर 2012

सरकारी हिन्दी की दूकान

दुकानें दो तरह की होती हैं . एक तो सरकारी राशन की दुकानों जैसी . वहाँ हर तरह का माल मिलता है जैसा वहीं मिल सकता है . राशन का चावल राशन जैसा , राशन की चीनी राशन जैसी , राशन का कपडा भी राशन जैसा . "राशन " खुद एक ब्राण्ड हो जाता है . आप वो चावल ले भी आयें , तो पका नहीं पाएंगे , पका लिया तो खा नहीं पाएंगे . आपको वो पका हुआ चावल उसी दुकान पर लौटा देना होगा . और दुकानदार से सुनना भी होगा - हम तो पहले ही कह रहे थे , आप रहने दें , आप नहीं खा पाएंगे , नहीं सुना . अब देखिए पका पकाया वापस लाना पड़ा न . अगर आप खा भी लेते तो मेरा दावा है पचा नहीं पाते . राशन का चावल है . अलग किस्म का पेट चाहिये इसके लिए .ये चावल अलग किस्म की आबो-हवा में पनपते हैं . इन्हें अलग किस्म की मिट्टी में उगाया जाता है . इसे राशन के लिए खरीदा और बेचा जाता है . इसे सिर्फ नेता , अफसर , ठेकेदार खा और पचा सकते हैं .

वैसे ही सरकारी हिन्दी की दुकान है . ये हिन्दी वहीं मिलती है . वही इसके उत्पादक हैं , विक्रेता हैं , और ग्राहक भी . आप इसे पढ़ नहीं सकते , पढ़ लें तो समझ नहीं सकते , समझ लें तो किसी और को समझा नहीं सकते . और अगर समझा लिए तो मेरा दावा है आप आदमी हो ही नहीं सकते .

आपके अंदर सरकारी बाबू , सरकारी अफसर , सरकारी खबरनवीस , सरकारी कवि, सरकारी साहित्यकार एक न एक अदद  छुपा है  .   
आप आइये आप को हम ही छाप सकते हैं , हम ही वितरित करेंगे , हम ही खरीदेंगे , हम ही पढेंगे , हम ही परिचर्चा करेंगे , समीक्षा लिखेंगे ,, और पुरस्कृत भी करेंगे . आप की महान रचना पाठ्यक्रम के योग्य समझी जायेगी . हम ही हिन्दी दिवस पर आपकी हर रचना को अलग-अलग पुरस्कारों , शाल - दुशाले , श्रीफल से नवाजेंगे . आप को अकादमी का अध्यक्ष बनायेंगे .  आपसे भाषण करवाएंगे , आपसे लिखवायेंगे , आपको सुनेंगे , आपसे ताली बजवायेंगे . 

पर हिन्दी का क्या होगा ? क्या होना है ? जो राशन का चावल नहीं पचा सकते भूखे तो नहीं मर रहे . बाजार से खरीद कर खा रहे हैं न ? अगर पैसे होंगे तो खरीदेगा , खायेगा , जिंदा रहेगा . नहीं ? नहीं तो क्या होगा मर जाएगा . आप भी कहाँ कहाँ की चिंता करते हैं . मॉल खुलने से मोहल्ले का दुकानदार मर तो नहीं गया ? बिक्री कम हुई होगी . वो फिर भी पेट भरने को कमा तो ले ही रहा है . अब देखिए जब मॉल नहीं थे तो  तो आपको डांङी मार कर माल कौन देता था ? नकली माल कौन देता था ? ज्यादा छपे भाव पर कौन देता था ? पुराना माल कौन देता था ? गन्दा , सड़ा माल कौन चिपका देता था ? तो अब आप उसकी चिंता में क्यूँ दुबरा रहे हैं ?

कानों में

अपने शब्द अपने कानों में 
आज शरीक़ हुए बेज़बानों में .
फिर  दोस्तों की याद आयी ,
बारिशों के मौसम, रमज़ानों में .
मुल्क में आमद अच्छी नहीं ,
पैसे ज़ेब में, न माल दुकानों में .
बारिशों में रुक जाओ , लुत्फ़ नहीं  
मिलना तुमसे हो जैसे बेगानों में .
तुम्हारी ज़बान बहुत मीठी है 
मिशरी सी घोलती है कानों में .
मौसम ने बदल लिया लिबास 
बहुत चर्चा है आज दीवानों में .
वो जिनके संस्कार अच्छे हैं ,
गिनते नहीं ऊँचे खानदानों में .
कोयल कूकती है न गाती है ,
हमरी बोली, हमरी ज़बानों में .

7 जून 2012

प्रवेश परीक्षा और ब्रांड आईआईटी: गलतफहमी भरपूर


प्रेसीडेंसी कॉलेज अपने स्नातकीय और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों के लिए उच्च गुणवत्ता वाले छात्रों के चयन हेतु एक नयी और दुरूह ( कठिन) ,दो चरणों की  प्रवेश परीक्षा के लिए योजना बना रहा है . यह हास्यास्पद है, क्योंकि आईआईटी जिन्होंने - एक विशिष्ट प्रवेश परीक्षा की अवधारणा का बीजारोपण किया था -  जेईई के माध्यम से - वे स्वयं निकट भविष्य में मजबूती से इसे सरल और तरल बनाने की उम्मीद कर रहे हैं.


जेईई के उत्थान और पतन की एक त्वरित समीक्षा इस संदर्भ में बहुत समीचीन  होगी .


अपनी कई असफलताओं के बावजूद, पांच मूल आईआईटी देश के शैक्षिक परिदृश्य को पुनःपर्रिभाषित करने में एक उत्कृष्ट भूमिका निभाई है. जबकि आईआईटी इंजीनियरों ने राष्ट्र के निर्माण में कुछ सीमित भूमिका निभाई है, उनकी मुख्य भूमिका "भारतीय प्रतिभा" के चारों ओर एक रहस्य का आवरण का निर्माण करने के लिए थी , विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका में  , एक राष्ट्र जिसने उनकी लायकता  को अपने देश की बनिस्पत ज्यादा पहचाना था! वास्तव में आईटी उद्योग से पहले भारत को अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में स्थान दिलाने वाला  "ब्रांड आईआईटी"  था और एक हद तक अभी भी है. वास्तव में यह सबसे शक्तिशाली  भारत जनित अंतरराष्ट्रीय ब्रांड है .




लेकिन "ब्रांड आईआईटी" को लेकर कुछ गलतफहमियां भी हैं  एक छात्र होने के नाते मुझे मालूम है , मुझे पता है कि  विभिन्न आईआईटी संस्थानों में जो पढ़ाया जाता है वह कोई नई या अनूठी चीज़ नहीं है  और अधिकांशतः शिक्षकों में भी कोई सुरखाब  के पर नहीं लगे हैं  . यह सच है, वहाँ पैसे की कोई कमी तो कभी नहीं थी , इसलिए भौतिक सुविधाएँ काफी अच्छी थीं , हालांकि अब ऐसा नहीं है. पर बाद में, जब मैं अपने मास्टर्स और पीएचडी के लिए विदेश चला गया, मुझे एहसास हुआ कि कतिपय कारणों से , जिनकी समीक्षा अन्यत्र अलग से की जा सकती है - अग्रणी क्षेत्रों में अनुसंधान आईआईटी में लगभग गैर मौजूद या नगण्य  था.


वास्तव में "ब्रांड आईआईटी" , जो "ब्रांड जेईई " और पाँच मूल आईआईटी की प्रसिद्धि के लिए छद्मआवरण या पर्दा मात्र है - और हमें उन के बाद के आईआईटी - गुवाहाटी इतर पीढ़ी को पृथक देखने की जरूरत है -  और यह पूर्णतया उन छात्रों की गुणवत्ता पर पूरी तरह से निर्भर थी जो जांच के बाद उसमें आए थे , न कि   इस बात पर की उन्हें वहाँ क्या सिखाया गया था ! छात्र जो वैसी ही अच्छे थे, वे वैसे भी सफल होते , जहाँ भी जाते और एक उपफल - बाई-प्रोडक्ट - कम समय में अर्जित उत्कृष्टता की प्रसिद्धि थी जो आईआईटी की झोली में टपकी -  वहाँ पढ़ाने वालों  या प्रबंधन के बिना किसी प्रयास या योगदान के ही  ! एक गलत अवधारणा जन्मी जिसमें छात्रों की असली उत्कृष्टता को संस्थानों की उत्कृष्टता के साथ जोड़ कर देखा गया .


प्रेसीडेंसी कॉलेज अब अपने अति कठिन प्रवेश परीक्षा के साथ ही वही खेल खेलने की कोशिश कर रहा है इस उम्मीद के साथ इससे उसे सबसे अच्छे  छात्र मिलेंगे जो बाद में दुनिया भर में उसकी प्रसिद्धि फैलाएँगे


लेकिन दुर्भाग्य से प्रवेश परीक्षा की पवित्रता से समझौता किया गया है. हो सकता है  जेईई अभी भी ईमानदारी से आयोजित किया जा सकता है, पर वास्तविकता के धरातल पर सबूतों से पता चलता है कि अच्छे छात्रों को पहचान पाने की उसकी   निर्णायक ख़ुफ़िया शक्ति ध्वस्त हो चुकी है क्योंकि उसकी जगह ले ली है कोचिंग कक्षाओं की वृद्धि ने जिसने मौलिक प्रतिभा को  रट्टापंती और  "परीक्षा पार करने के अन्य कौशल और उपकरणों से"  जिससे उच्च रैंक प्राप्त हो से बदल दिया .


आईआईटी के अध्यापक अभी भी इस सच्चाई  से इनकार करते हैं . उन्हें यह हजम नहीं होती . कई लोगों का दावा है कि जेईई अभी भी महत्वपूर्ण है, लेकिन सब लोग अपने अंदर गहरे जानते है किअब ऐसा नहीं है लेकिन उन्हें लगता है जेईई का परित्याग "ब्रांड आईआईटी ' के मृत्यु-नाद जैसा होगा . जेईई के बिना, आईआईटी , एनआईटी और देश में अन्य सरकार से वित्त पोषित कॉलेजों से अलग नहीं रहेंगे . यह , और कुछ व्यक्तियों द्वारा जेईई  आयोजन से अर्जित धन ही , असली कारण है कि क्यों वे अभी भी आईआईटी जेईई के मृत-बछड़े को भूसा भरकर जितने लंबे समय हो दुधारू गाय का दूध दुहने के लिए बचाए रखना चाहते हैं.


मानव संसाधन विकास मंत्रालय और आईआईटी परिषद सही ढंग से आईआईटी के लिए एकल और अनन्य जेईई की सीमाओं को समझ एक व्यापक प्रवेश परीक्षा योजना बनाई है जो प्रवेश प्रक्रिया को सरल बनाये और असहाय छात्रों को जिन्हें अनेक विशिष्ट प्रवेश परीक्षाओं का सामना करना पड़ता है से मुक्ति दिलाए.


विशिष्ट आईआईटी जेइइ समय के एक खास मोड़ पर महत्वपूर्ण और प्रासंगिक था.  अब इसकी उपयोगिता समाप्त प्राय  है और यह  विकसित होकर अन्य रूप में तब्दील होने की प्रक्रिया में है. प्रेसीडेंसी कॉलेज को एक ब्रांड के रूप में उभरने  जो  "ब्रांड आईआईटी" जैसा शानदार हो का पूरा अधिकार है लेकिन यह समझना चाहिए कि जो रास्ता आईआईटी ने  दशकों पूर्व अपनाया था अब न उपयुक्त है न उपलब्ध .


हार्वर्ड, एमआईटी, प्रिंसटन, स्टैनफोर्ड और दुनिया में अन्य सभी उच्चतम मानक संस्थान मानक सैट / जी.आर.ई . परीक्षा का स्कोर छात्रों की  जाँच और प्रवेश के लिए करते हैं . प्रेसीडेंसी या आईआईटी को ही अपनी प्रतिष्ठा का निर्माण के लिए क्यों एक विशेष प्रवेश परीक्षा की बैसाखी की जरूरत महसूस होती है ? एक विशिष्ट प्रवेश परीक्षा शिक्षा के क्षेत्र में  दुशप्राप्य उत्कृष्टता के लिए न तो जरूरी है और न ही पर्याप्त है. उन मुद्दों पर ध्यान देने की बात ज्यादा महत्वपूर्ण है जो संरचनात्मक हैं जिन्हें पूर्व पोस्ट में चिन्हित किया गया है और उन पर चर्चा किया गया है.

(अनुवाद मूल लेखक पृथ्वीस मुख़र्जी की अनुमति से : मूल अंग्रेजी लेख यहाँ है )

16 मई 2012

मुखौटा

आदमी के चेहरे पर 
लिखा होता है ?
कौन है ? 
क्या करता है ?
हर चेहरा मुखौटा 
लगता है 
हँसी , उदासी 
मासूमियत 
कुटिलता , लाचारी
इश्कबाज़ी 
के अनेक रंगों से सजा 
रोता-गाता 
चीखता-चिल्लाता 
डराता-धमकाता 
गरियाता-रिरियाता 
कभी 
भिखारी की दयनीय सूरत 
साधुता की पवित्र मूरत 
षड्यंत्र की कुटिल मुस्कराहट 
सुन्दरी की मंद-स्मित 
भावपूर्ण भंगिमा 
नेता की कृत्रिम गर्मजोशी 
या उत्तेजक सम्बन्धों की ठंडक लिए 
आपका अपना रिश्ता , पड़ोसी 
फिर , ऐनवक्त आपसे ज़्यादा व्यस्त 
आपका दांत-काटी रोटी वाला यार 
खाने में ज़्यादा नमक से 
और उग्र हो गया  
जन्म-जन्मांतर का प्यार 
शब्दों की चाशनी में लिपटा
झूट,
सत्य के रस से 
भी बहुत ज्यादा मीठा 
हो गया है 
मुझे तुम्हारा चेहरा 
अच्छा नहीं लगा 
मधुमेह का रोगी जो ठहरा 
क्या ?
कल मिष्ठान-भण्डार पर 
तर-माल खाते देखा था ?
आपको ज़रुर गलतफहमी हुई है 
मैं कहाँ  
मेरा मुखौटा था !
मुझसे मिलता-जुलता था !!

9 मई 2012

सोमवार सुबह सवेरे

वर्षों से 
सुबह सवेरे 
मुँह अँधेरे 
ग्रीष्म, वर्षा, शीत 
सारे मौसम धरे 
साप्ताहिक दिनचर्या का 
अभिर्भूत अंग  
प्रेरक प्रसंग  
घड़ी बजाती गज़र
स्वर लहरी सा फैलता 
आरोह संगीत 
अलसाए गुस्से से 
कुढ़ता बदमिजाज़ 
गला घोट टीपता 
बंद हो जाता साज़ 
अकाल-मृत्यु प्राप्त  
बीच में दम तोड़ देता 
अवरोह गीत 
रात्रि का चौथा प्रहर 
नींद से उठा
बिस्तर से लगभग पटक 
हाथ पैर झटक 
कपड़े ताबडतोड़ पहन 
अपने ही घर से निकलता 
मानों एक शातिर चोर 
सोयी हुई बच्चियों की नींद से 
बचता बचाता 
लुका छिप 
चुपचाप दबे पाँव 
खोलता 
दरवाज़ा 
कूदता फाँदता
दौड़ता कुलांचता
सोये हुए कुत्तों से 
पाँवों की पदचाप 
बचता बचाता 
रास्ते में काली माई 
के सामने 
सिर को नवाता 
आ होता खड़ा 
बस के इन्तेज़ार में 
सुबह तो हो ही जाएगी 
बस, बस कब आएगी?
आकाश में तारा वृन्द 
और द्वितीया का चाँद 
बादलों की ओट से 
ताकता झाँकता
रात्रि के नीरव में 
अलसियाता
खाली पड़ा है अब तक 
बस-डिपो का अहाता 
तभी बिना नहाई-धोई 
अलसाई 
लड़ियाते पैरों से 
चली आई 
कल की थकी हारी 
बस 
लाद ले चली 
रात्रि की कालिमा 
अधखुली भंगिमा 
आधे-जागे 
आधे सोये-अभागे 
दिन दैन्य आदमी 
लादे लादी सी 
महानगर में अज़गर सी 
फैली हुई सड़क पर 
सरपट भागती 
पर क्या वो जानती ?
कैद है उसी की 
सख्त जकड़न 
और साँस रौन्धती गिरफ़्त 
में उसकी जिंदगी अभिशप्त 
फटते धुंधलके 
से इसी बीच 
अंगड़ाई लेता 
सूरज निकल आया 
इधर उधर ताकता
पौ फटाता
बगलें झाँकता 
हावड़ा-ब्रिज 
लालिमा में नहाया 
और सामने 
हमनाम स्टेशन 
रोज़ जैसा घबराया 
वैसा ही अस्त-व्यस्त 
चौबीसों घण्टे 
लस्त-पस्त
दम मारने की फुर्सत जो मिल पाती 
सुस्ता लेता 
कोई हड़ताल 
कोई बंध
ही पुकारता 
मानों तकता बस इसी आस से 
राइटर्स की तरफ़
रात-दिन
पढ़ता ख़बरों का हर्फ़-हर्फ़ 
कहीं तो नज़र जाए
हैं आज भी बस लाल सुर्खियाँ
ख़बरों का डाकिया 
आज भी नैराश्य लाया 
मौसम क्या ख़ाक बदला 
जिस्म अब भी पसीना-पसीना 
प्लेटफार्म की तरफ़ 
दौड़ते 
सिपाहियों की कदम-ताल 
तेज-दर-तेज 
रोज़मर्रा यात्रियों की रेलम-पेल 
भागम-भाग 
तू भी भाग 
कविता के चक्कर में 
ट्रेन न छूट जाए 
सुबह की सारी दौड़ अधूरी होगी 
कविता तो फिर भी
कभी और पूरी होगी !
एक, आज का अखबार देना !
कुछ बाँच लिया जाए !!

3 मई 2012

महाभारत

"परिस्थितियों में 
जो उचित हो वही करो "
"यही तुम्हारा धर्म है "
पाञ्चजन्य के साथ 
क्यों किया शंखनाद 
उदघोष 
क्या थी मंशा ? 
शंका - कुशंका के 
उचित-अनुचित के 
किस तराजू पर 
लटका कर चले गये 
कांटे की तरह 
धरती और आकाश के इन पलड़ों में 
मैं कब से लटका हूँ त्रिशंकु जैसा  
अपने ही पासंग विवेक पर 
और लड़ता हूँ 
अपनी ही इच्छाओं और नैतिकताओं के बटखरे से 
डरता हूँ न जाने कब कौन 
डाँड़ी मार ले 
कौन बन मामा 
अवतरित हो 
शकुनी जैसा  
अपने ही दो नेत्रों के बीच 
कौरवों और पांडवों सा 
आ खड़ा हो 
भांजी मारने को 
अकस्मात 
किसी एक आँख की पुतली दबाकर 
चौसर की बिसात पर 
फेंके हुए पासों में 
अटका है मन , जीवन 
लालसाओं के चौंसठ खानों में 
लगा सर्वस्व दाँव पर 
घसिटता अपने को 
युधिष्ठिर के श्वान जैसा 
भूत और भविष्य 
के ध्यान जैसा 
कोई तूणीर , कोई गाण्डीव 
नहीं , जो फिसल रहा है 
फिसलन पर है जीवन
द्वापर और कलियुग के जिस संधिकाल में 
मुझे छोड़ गए हे पार्थ ! 
अपने ही अंदर छुपे  हुए 
शिखण्डी के साथ 
जो स्त्री है न पुरुष
अभिशापित है 
न कुलटा है , न सती
सर्वत्र व्यापित है
न विलक्षण रथी , न सारथी 
है आरूढ़ , किमकर्तव्यविमूढ़ , आमूढ़
फिर भी कुरुक्षेत्र में उतरा है 
न हारा है न जयी है 
मध्यमवर्गीय है !!

2 मई 2012

तब न कविता अधूरी होगी

शब्द सिक्कों की तरह 
दिमाग में खन-खन बजें 
आप जेब में हाथ डाल कर
मन-मन गिनें 
कुल कितने है ?
कहाँ-कहाँ से बीने हैं ?
इनसे क्या आएगा ?
क्या घर चल पायेगा ?
उधेड़ बुनता हूँ 
असमंजस रहता हूँ 
जेब में मुट्ठी बाँध रक्खी है 
कोई शब्द कहीं छूटा तो नहीं ?
कोई फूटा रस्ता तो नहीं ?
हिसाब में कुछ कम होते हैं 
अर्थ उधार पर भी मिलते हैं 
बनिया अगर नहीं  माना तो ?
खाली हाथ फिर लौटा तो ?
और शब्द कमाने होंगे 
जेब काफी भरनी होगी 
शब्दों के बाज़ार में अब 
जिन्सों की कीमत बढ़ी हुई है 
आसमान को छूती हैं अब 
जीना फिर भी लाचारी है 
कम मुकम्मल तैय्यारी है 
कुछ काम नया लेना होगा 
थोड़ा और समय लगेगा 
थोड़ा शब्द कमाना होगा 
कुछ और बचाना होगा 
जब पूरी जेब भरी होगी 
तब न कविता अधूरी होगी 
बाज़ार तभी पहचानेगा 
मुखपृष्ठों पे आने देगा 

3 अप्रैल 2012

संभवामि युगे-युगे !!

संभवामि -संभवामि
संभावनाएं हैं
समय की यही विडम्बनाएं हैं
युगे-युगे
हर युग में
किसी से नहीं मिला
क्यों नहीं मिले ?
मिलना चाहिए !
शब्दों को अर्थ
देना चाहिए
देखो
अर्थ के बिना
परसाई जी नहीं रहे
शब्द व्यर्थ रहे !
पाला-पोसा
बड़ा किया
काम नहीं आए
संभावनाएं !
गर्भ का शिशु अभागा
ही डिड-नॉट न्यू !
अभिमन्यु !
किस काल में आ रहा है !
घबरा रहा है
भविष्य अर्थगर्भित है
परिपूर्ण है
"फ्यूचर इज प्रेग्नेंट विथ पोसीब्लीटीज "
वायदा
वायदा-कारोबार 

वायदे-का-कारोबार 
"यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत 
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः "
सूचकांक 
ऊपर-नीचे 
नीचे-ऊपर 
शंकु -त्रिशंकु
सूचना का युग
सूचना-क्रांति
सूचना का विस्फोट
अर्थ नहीं चला
शब्दों में था खोट !!
बदलो -बदलो
वक्तव्य बदलो
ज़िल्द बदलो
कलेवर बदलो 

"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय 
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- 
न्यन्यानि संयाति नवानि देही"
बदलने का युग है  समय परिवर्तनशील है
सुबह का वक्तव्य शाम को वापिस लो
जैसा चाहो तोड़-मरोड़ लो
खुद को अष्टावक्र सा बना डालो
अपने आप को बदलो
आईना बदलो
युग बदलो
संभवामि युगे -युगे
हर हर गंगे !
हर हर महादेव !!
क्या क्या हरे 

गंगे-महादेव
हर्रे लगे न फिटकरी 
फिटकरी से याद आया 
कुछ गंगा में भी डाल देवें 
प्रदूषण कुछ कम हो जाए शायद !
संभावनाएं हैं
सतत-प्रयास करो
प्रयत्नशील रहो
चलते रहो
चरैवेति -चरैवेति
क्रांति-क्रांति
सतयुग आ रहा है
बस रिजर्वेशन मिल जाए !!
सम्भावना कितनी है ?
कोई चांस नहीं
कुछ ले-दे के होगा ?
देखना पड़ेगा 
आप इतना रिकुएस्ट किये है
तो कोशिश करेंगे
आखिर मानवता भी कोई चीज है
हम अपनी तरफ से कोई कसर बाकि नहीं रखेंगे
निसाखातिर रहें
आखिर अपने देस के हैं
परदेस में अपना अपने के काम नहीं आएगा
तो कौन आएगा ?
काम तो हो जाएगा न ?
भरोसा रखिए
वो "ऊपर वाला "है न
वो सबकी "खबर " रखता है
उस पर भरोसा रक्खें
(उसको अपने आप पर है न ?, बस !)
साहस नहीं छोडना चाहिए
सम्भावना पूरी है
भरोसा बनाए रखिए
वो भरोसे वाला क्या मुहावरा है -
भरोसे की भैंस पाड़ा .......??

भैंस से
याद आया 

भाई
किसने खाया
चारा ?
भाई -चारा ? , भाई चारे में सब चलता है !!
संभवामि युगे युगे
"हम सब हैं भाई-भाई
ये सरकार कहाँ से आई ?"
यह तो नारा हो गया !!
वाह !!
आप तो कविता लिखने बैठे थे ?
नहीं ?
फिकर नॉट !!
आपका भविष्य अब उज्जवल है
जल्द ही टिकट मिलने की सम्भावना है !!
संभवामि , युगे -युगे !!

इस युग में सब संभव है !!

1 अप्रैल 2012

मैं जानता हूँ

आधा-अधूरा 
थोड़ा-ज्यादा 
सब कुछ पढ़ा  
अक्षरशः
जब भी 
अंतराल आया 
स्मृति का चिन्ह रख छोड़ा 
फिर वहीं से पकड़ा जोड़ा 
मेज़ पर पड़ी हुई किताब ने 
फिर अचानक क्यों पूछा - 
"मुझे पहचानते हो ?"
यही सवाल -
"क्यों बार-बार,
अलमारी में रक्खी किताबें भी पूछने लगी हैं ?"

पंक्ति दर पंक्ति 
पृष्ठ दर पृष्ठ 
उठाया-पलटा  
खंगाला-उलीचा 
कोई नहीं मिला 
फिर कौन बोला 
किसने मौन तोड़ा 
शब्द को अर्थ किसने दिया 
क्या कोई पात्र जीवंत हो गया ?
मैं सहसा कितना डर गया !!
कुछ था जो अन्दर भर गया 
सर से पाँव तक एक सिहरन 
दौड़ गई 
आँखें दरवाज़े तक गईं 
फिर खिड़की के परदे पर जा टिकीं 
और वहाँ से छत पे घुमते पंखे पर 
अगर यह चल रहा है ?
तो मेरे माथे पे पसीना क्यों आ रहा है ?
ज्वर है ?
ये किसकी परछाईं है ?
कौन मेरे सिराहने खड़ा है ?
खुद को चिकुटी काटी
यह कोई स्वप्न नहीं है 
मैं तो जगा हूँ 
अकेला हूँ , अभागा हूँ 
तभी तो किरदारों में पड़ा हूँ 
इन्ही से बातें की हैं 
इन्ही को समझा है 
पात्र-अपात्र 
सखा, भाई , सगे सब यही हैं 
यही रिश्ते-नाते हैं 
यही सखा हैं , प्रेमी हैं 
सुख-दुःख में साथ निभाते हैं 
रोते-हंसाते हैं 
रात-बिरात जागते हैं 
मेरे साथ ही मेज़ पर बैठ 
चाय-नाश्ता होता है 
सिगरेट का छल्ला उड़ता है 
मेरे ही बिस्तर पर 
बेतरतीब पड़ना 
मेरे साथ उठते-बैठते 
मेरी किताबों के किरदार 
कब किताबों से मेरे जेहन में 
घुस गए 
अब मुझसे ही पूछते हैं -
"मुझे पहचानते हो ?"
इस प्रश्न का मैं क्या उत्तर दूँ ?
मैं जानता हूँ ?

22 मार्च 2012

काश

एकांत में बैठ 
मैं तुम्हारे वक्ष से गुज़रती धडकनें देखूँ 
तुम मेरी आती-जाती सांसें गिनो
सुनो और बताओ 
इस जुगलबंदी से 
कोई नया राग उपजा है क्या ?
एक पुरानी किताब में 
एक खत मिला है 
लिखा है -
"तुम मुझे प्राणों से प्रिय हो 
तुम्हारा प्रेम मेरे रोम-रोम में बसा है 
तुम्हे याद न किया हो , 
ऐसा शायद ही कोई पल गुजरा है 
क्या तुम्हे पता है ?"
किसकी कहानी है यह ?
क्या वो अब भी जिंदा है ?
क्या ये प्यार जिंदा है ?
किसको पता है ?
नदी के जिस किनारे हम बैठे हैं 
घास पे लेट के जिस आसमान को तक रहे हैं 
अपने में घुल-मिल मगन 
चौपाटी की भीड़ में आइसक्रीम की तरह 
एक-दूसरे में पिघल रहे हैं 
ऐसा पहले कभी हुआ है क्या ?
यह सब एकदम नया है क्या ?
मैंने तुम्हारे लिए एक कविता लिखी थी 
मैंने तुम्हारे ऊपर एक गाना बनाया था 
मैंने तुम्हे लेकर एक सपना देखा था 
तुम्हे साथ लेकर मैं कहाँ -कहाँ गया था 
कितने दिन आवारा किये थे , कितनी रातें जगा था
तुम मौसम में रातरानी सा खिली थी 
मैं पलाश सा जला था 
मैंने तुम्हारे बिना ,तुम्हे लेकर 
एक पूरी ज़िंदगी का सफर किया था 
चाँद का सफ़र बादलों में तन्हा था 
तुम हँसती थी , मैं हँसता था
तुम्हे मालूम था लोग कहते थे 
मैं तुम्हे लेकर पगला गया था
याद करता हूँ - 
उसका भी एक मज़ा था 
जैसे तेज बारिश में कोई भीगता है
तुमने भीगते हुए मुँह पोछा है क्या ?
ऐसे में कोई रोता है क्या ?
ऐसा सबके साथ होता है क्या ? 
ये बचपना है , ये सच है क्या ? 
ऐसा कभी हुआ तो नहीं ,
ऐसा मैंने सोचा तो नहीं ,
यह सब कल्पना ही तो है ,
ज़िंदगी सपना ही तो है ,
काश, मेरी काश वाली दुनिया सच होती *
मैं होता , तुम होती , काश !!
(यह पंक्ति मित्र गुरनाम  से साभार )

14 मार्च 2012

जुबान

मैनें जुबान कब खोली है 
मौन ही अपनी बोली है 
निर्मिमेष नैनों की भाषा 
आँखों में कैसी जिज्ञासा 
ज़िंदगी छल-प्रपंच-धोखा 
दुनिया बच्चों सी भोली है ||


स्वप्न सारे थे अनूठे,
ह्रदय के अभिसार झूठे,
कहीं गिरे , कहीं उठे ,
इससे जुड़े , उससे रूठे, 
बुना यही ताना-बाना 
झीनी-झीनी झोली है ||


पूर्व में गोला सहसा ,
क्षितिज से झांके कैसा,
नील देह ओढ़े भगवा ,
रात्रि ले अंगडाई जैसा,
इतना न निहारो प्रिय 
तनि कसक चोली है ||

9 मार्च 2012

होली में


हाथों में है आज बरसों बाद फिर गुलाल होली में
मुझे क्यों याद आते हैं तुम्हारे गाल होली में||


बहुत दिनों से नहीं की कोई धमाल होली में
साली याद आती है चलो ससुराल होली में ||


जाने मनचला कर गया क्या मनुहार होली में
बिना रंग के ही हो गई गोरी पूरी लाल होली में ||


चढ़ाई भांग, ठंडाई, और हुआ अब ये हाल होली में
पड़ोसन के घर ना हो जाए कोई बवाल होली में ||


भीगा बदन , चोली, दुपट्टा, , सर, बाल होली में
न उसने ना-नुकुर की न ही कोई सवाल होली में ||


छोडो बाल्टी , गुब्बारे , पिचकारी , अबीर-गुलाल
चलो रंगों से घोल दें इस साल पूरा ताल होली में ||


मिलेगा  दिन में न मौका लगा नवकी दुल्हिन को
रात में ही किया देखो दूल्हे का क्या हाल होली में ||


गाली , मस्ती, चुहल , छेड़छाड़ , और थोड़ी ठिठोली
भड़ास दिल की औ' मन का मैल निकाल होली में ||


न ठुमरी, दादरा, चैती , फाग, होरी कोई मनवा में
उसके बाद नहीं जमता हमेँ कोई सुर-ताल होली में ||


न अब चाहता है कोई हम उसे रंग में अपने डूबो दें
बुढ़ापा रंग गया है सफ़ेद हमारे सब बाल होली में ||


उड़ाओ घर पे गुझिया, मालपुआ , तरमाल होली में
हमारे हिस्से वही परदेस वही रोटी दाल होली में ||

23 फ़रवरी 2012

इतिहास ( सप्तम किश्त : क्रमशः )

व्यापार , फिर व्यापार है 
लक्ष्मी है चंचला 
कब कहाँ ठहरी है 
ये क्या ज्ञान की गठरी है 
कुबेर का खज़ाना 
कौन सदा महेंद्र है 
बदलता केन्द्र है
वक्त का पहिया दौड़ता , चलता 
बदलती है धुरी 
हारे हुए हाथी, हाथीदांत सामग्री बने 
सूत के वस्त्र , ऊनी कालीन 
इत्र , विचित्र 
काली मिर्च 
लौंग , इलायची 
मसाले , मसाले
आदि इत्यादि 
नावें बनी 
तोपची रहे तोपची 
बंदूकें बन गईं जब 
तब 
प्यादे बादशाहों पर पड़े भारी 
समुद्र के रास्ते 
बढ़ गई 
राजशाही इज़ारेदारी
झुक पहाड़ गए
अगस्त्य विन्ध्य लांघ गए
स्वतंत्र सब देश बने 
साम्राज्य उपनिवेश बने 
नवजागरण काल 
प्रतिष्ठित हुआ 
बढ़ गई पशुता 
दास व्यापार हुआ 
लज्जित मनुष्यता 
आदमी पर आदमी की प्रभुता 
उस साम्राज्य में सूर्य नहीं डूबता 
फैला इतने योजन 
चवन्नी में नहीं बिकता 
उस 
इतिहास का पर्चा
सबसे सस्ता मनोरंजन 
इतिहास चर्चा .

22 फ़रवरी 2012

इतिहास ( षष्ठ किश्त : क्रमशः )

सिर्फ नहीं बर्फीली हवाओं
और हमारे बीच मानों
हिमालय जैसे
काल के मध्य खड़ा 

वैसे ही
विन्ध्य -सतपुड़ा
दुर्गम , दुष्कर , दुरूह
प्रस्तर चोटियाँ
एक एक खण्डकाव्य
वाल्मिकी रामायण
भाषा का एक अरण्य
ऋषि अगस्त्य
वनाच्छादित
संस्कृति वांग्मय
लाँघ न पाया कोई
शत्रु, दस्यु , लुटेरा
शब्द , ध्वनि , ॐकार
वयं रक्षामः
और बच गए
सोमनाथ
जाने कितने सोमनाथ
वयं यक्षामः
एक, पद्मनाभ .

इतिहास ( पंचम किश्त : क्रमशः )

इतिहास फिर क्या है 
एक निरंतर यात्रा 
कुछ पड़ाव 
फिर आये 
बाली,जावा,सुमात्रा 
दूर-सुदूर से भरा 
स्वर्ण अर्जित कोषागार 
धन-धान्य व्यापार
तक्षशिला, नालंदा 
और करने संचय 
ज्ञान-कोष अक्षय 
ज्ञानपिपासु व्हेनसांग , फाह्यान 
मेगास्थनीज, अलबरूनी 
यूनान-मिस्त्र-रोमा  
चीनो-अरब-सारा 
इतिहास की गोचर पृष्ठभूमि 
ले फिरे किम्वदंतियां
सम्पन्नता-विवृत्तियाँ  
व्यापारी , यात्री , छात्र 
यात्रा-वृतांत 
आये , हुआ समागम
बुद्ध , गौतम , शरणागत 
धम्मं शरणं गच्छामि 
संघम शरणं गच्छामि 
बुद्धम शरणं गच्छामि 
हुआ प्रसार , प्रचार 
महावीर आगमन 
णमो अरिहंताणं
णमो सिद्धाणं 
णमो आइरियाणं 
जय जिनेन्द्र 
जय महावीर 
थी यह शून्य की आय ?
या थी यही भूमि धाय ?
सब प्रश्न पूछते हैं प्राय: !
सत्ता और शक्ति 
बदलने लगे समीकरण 
फिर छिड़ा संग्राम 
युद्ध था संहारक 
भग्नावशेष स्मारक 
लूट ली सम्पत्तियाँ
मिटा दीं सब रीतियाँ 
शोकाकुल सब समाज
कुलीन और साधारण जमात 
नैराश्य का उद्दीपन 
आस्था का उद्वेलन 
विश्वास डगमग डगमग 
इतिहास का प्रतिफलन 
कौंधा अँधेरे में चमक 
अंधकार को प्रकाश सूझा 
ज्ञान की प्रकाश्य पूजा 
मार्ग था भक्ति
भक्ति और भक्ति 
आसक्ति , विश्वास, श्रद्धा , शक्ति 
जन-संबल लौटा  
उधर बिछा 
चौसर का हाथ 
चलो चलें नए दाँव 
फिर चलो हस्तिनापुर 
रचें नई महाभारत 
इतिहास ले रहा करवट
हाथी , ऊंट , वजीर, बादशाह 
फिर बिछी बिसात 
शतरंज के प्यादे 
ढाई घर उलांघे
घोड़े आये , दौड़े आये
सरपट भागे 
पोरस के साथी 
डुबो गये हाथी 
सिकंदर को मिला आम्भी 
आया , एक अजनबी 
फारस का गज़नवी
फिर जिसके 
हाथ से 
छुटा समरकंद 
और छुटा वादी-ए-फरगना 
वहाँ से चला मंगोल 
फारस में ढला मुग़ल 
बना मुग़ल सरगना 
लाया साथ 
गोला , बारूद , आग्नेयास्त्र, तोपखाना 
पड़ गया पुराना 
धनुष की प्रत्यंचा, गदा, बर्छी, भाला, तलवार 
शक्ति का ह्रास 
बदलने लगा इतिहास 
बदला भूगोल 
हिंदुकुश निर्वासना 
दोआब में बस गया 
यहीं रच गया 
कहते रहे ज्ञानी 
बूझल बानी 
कोऊ नृप होए हमैं का हानी.

इतिहास ( चतुर्थ किश्त : क्रमशः )


संस्कृत 
वेद , ऋचा , श्लोक , उपनिषद 
दर्शन , शास्त्रार्थ 
एक प्रथा 
सिंधु सभ्यता 
की लिपी अपठित , अलभ
चित्र सन्मुख 
पशुपति – नंदी मुद्रा 
अंकित विशेष 
देवता शिव सा  
स्वरुप महेश
रूद्र महादेव 
देवाधिदेव 
तीर्थ दुर्गम  
कैलाश – मानसरोवर 
अट्ठारह ज्योतिर्लिंग 
प्राचीन अर्वाचीन देवता 
युग बाद आये  द्वापर, त्रेता  
तब छाया था 
शंकर - भाष्य 
संस्कृत भाषा 
ॐकार 
शब्द ब्रह्म 
नाद ब्रह्म
अउम ध्वनि 
व्याकरण पाणिनि 
स्मृति शाश्वत 
वैदिक विरासत 
देववाणी तुल्य 
अमृत-सम-अमूल्य 
पर इनसे इतर 
मनुष्य बहुल 
किस स्वर संकुल 
सकल-संवाद-रत 
क्या उनके प्रयत 
थे स्वर दीर्घ 
या सिर्फ 
ह्रस्व    
क्या पता 
क्या थे सब शतपत 
या एतरेय ?
तैतरीय निषाद 
एकलव्य 
संशय  की पराकाष्ठा 
है मुझे भी सालता  
क्या करें 
कैसे रहें 
सब प्रश्न स्वयं से पूछते रहे 
नचिकेत अग्नि के पूर्वाग्रह 
हों कितने भी गूढ़
हम मूढ़  
यम के द्वार डटे रहे 
आर्य –अनार्य
विभाजित के विपर्यस्त
भोगा 
राम का वनवास 
संपर्क प्रथम 
वनवासी समाज 
केवट संगम 
स्वप्न समागम 
बाँधा एक पुल,एक सेतु 
फिर भी रहा कटा 
जन-ज्वार नहीं पटा
धोबी का ताना 
बना उर-छाला
सीता - त्याग
अग्नि-परीक्षा 
आज तक खीजता 
खोजता मृगमरीचिका  
कल्पनालोक 
यूटोपिया 
किसने दिया , किसने दिया 
रामराज्य , रामराज्य   
तुलसी के सात सोपान 
भक्तिमय उपादान 
श्रवण-पान श्रवण-गान .
बदली , बदली, भाषा बदली 
चार कोस पर बोली 
ब्रज , अवधी , मीरा , रहीम , कबीर, रसखान 
विद्यापति , पद्मावत , जायसी, नानक, सूरदास 
उठे ढोल , मंजीरे 
भक्ति रस में धीरे -धीरे 
पीछे छूटा बमभोला 
हर हर महादेव 
महामृत्युन्जय
कृष्ण की रासलीला 
बाल गोपाल उनका झूला 
बही बही बयार 
उमडा उमडा जनज्वार 
कुछ-कुछ पटा
लोक-जन , जन-जन 
समरसता , समरसता 
ब्रज की बोली , अवधी की सत्ता 
भाषा का रामराज्य बसता !!

21 फ़रवरी 2012

इतिहास (तृतीय किश्त : क्रमशः )


रेगिस्तान 
रेत का वीरान 
कितने इतिहासों की स्मृति 
कितने कवलयतियों का श्मशान 
ज़िंदगी 
रण-बाँकुरा  
या कालबेलिया बंजारा 
सूरज के सिर पै सवार 
दौड़ता घुड़सवार
टापों की पुकार 
जिंदगी भागती 
रेत की आँधी
सी उड़ चली 
कट चली    
रेत के सब टीले 
बदलते रहे कबीले 
बंजारे , बंजारे 
किसको पुकारे 
आज यहाँ कल वहाँ 
चरैवेति , चरैवेति, चले 
हमको क्या धमकाते ?
क्या है जो हार जाते ?
रेत की आँधियाँ
सहस्त्रार शताब्दियाँ 
सूर्य के प्रहार 
रोज़ हम झेलते 
ज़िंदगी को ठेलते 
लड़ रहे युद्ध हैं 
रंगहीन समुद्र हैं 
किन्तु सब रंग जिया 
बांधे सिर पर लहरिया 
रंगों का इन्द्रधनुष !
जीवन एक युद्ध !
हरदम , मार्ग दुर्गम , अवरुद्ध 
था जिसका वरण
किया धारण 
हाथ - शस्त्र
लौह - वस्त्र 
नेत्र - निमेष 
शत्रु - निषेध 
दुर्ग - प्राचीर  
किले - अभेद्य 
धधकती ज्वालाओं में 
कवलित जौहर 
केसरिया पताकाओं में 
हल्दी रक्त गौहर 
अदम साहस 
अदम साहस 
आदिम अट्टहास
शिशु शैशव बचा 
जो भी बचा
एक ही इतिहास 
रक्त रंजित मञ्जूषा  
सबमें पारंगत 
भाला, बरछी , तलवार
इन्हीं खिलौनों रत  
पीढ़ी दर पीढ़ी 
लड़ाईयां लड़ी 
चलता रहा झगडा 
लड़ा, लड़ा, और लड़ा 
नहीं हुआ नत 
जीवन अस्त-व्यस्त
नहीं कोई नदी 
बहा रक्त-प्रपात 
सिंचित सारी धरा 
रक्त-प्रपात, रक्त प्रपात 
हमें कहाँ नींद , हमें कहाँ सोना
राणा प्रताप , राणा प्रताप
जीवन का तम्बू जहाँ उखड़ा
मृत्यु का वहाँ गड़ा 
जीवन अस्त-व्यस्त 
नहीं हुआ नत. 

इतिहास - ( द्वितीय किश्त: क्रमशः )

मैदान में बस गए
गंगा दोआब भए
पंजआब भए
यहाँ वहाँ सर्वत्र
भागीरथ के साठ सहस्त्र
पुरखों की हड्डियों से उर्वरा
भर गया सुनहरी
बालियों सा सोना खरा
खेती-किसानी की
तुम्हारे खलिहान भए
कोल्हू के बैल भए
गाय को माता किए
आता किए , जाता किए
खता किए, खाता किए
घाट नहाए , मंदिर के द्वार रहे
गुरु द्वारे मत्था टेका
फ़कीर की मज़ार गए
गाए कजरी , ठुमरी , चैती , फगवा
इन सबसे ऊबे तो डार लिए भगवा
बांचन लागे तुलसी की रामायन
गाए लागन मीरा,सूर के भजन
पार की वैतरणी
कबीर की बानी
दुनिया आनी जानी
थके हारे , सुते रहे
दस माह जुते रहे
पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ
कुछ बूझा, कुछ नहीं बूझा
वही काटा , जो बुआ
हम का कहें बबुआ
कोऊ नृप होए हमैं का हानी ?

हम तो पढ़ें मित्रों मरजानी ?

17 फ़रवरी 2012

प्रेम

देह है 
दैहिक है 
दहकता है 
मस्तिष्क से पैर 
शिराओं में तरल 
बहता लावा
देह वन में दावानल 
देहयष्टि 
पोर-पोर अंगारा
एक टुकड़ा  
होंठों पै 
अब भी दग्ध है 
एक टुकड़ा 
कनपटी से चिपका 
आसपास गालों तक 
रोम-रोम 
तप्त है 
सुर्ख हैं  
रक्ताभ कपोल 
जिस्म का ज्वार !
बहती है स्वेद की क्षीण धार !!
यह क्या है ह्रदय का उदगार !!!
प्रेम है 
लौकिक है 
ललकता है 
आँखों में 
थिरता है 
बैचेन एकलता है
रीझना , रूठना , मनाना
सजना , संवरना, इठलाना 
समझना , समझाना 
वृथा बहलाना 
खेल , खिलौना , खेलना 
उम्र का बचपना 
सृष्टी की रचना 
ऐसी ही है संरचना 
पिहु-पिहु पुकारना 
चकोर का ताकना 
मन की सरलता 
मन का जोड़ना 
विश्व क्या द्वैत है ?
शाश्वत द्वन्द 
ये नश्वर काया 
जो पाया   
क्या माया   
यह कैसा भोग ?
प्रेम क्यों रोग ??
क्या कहते ज्ञानी 
प्रेम की क्या बानी  
एक ही वचन बोल 
प्रिये ! सिर्फ तुमसे है प्यार !
ले कोई प्रियतम पुकार !!
ढाई आखर आखिरकार !!!


(१४ फरवरी का बुखार उतरने के बाद )

11 फ़रवरी 2012

इतिहास -अंतिम किश्त

हम सब मुद्राएँ हैं 
चांदी के सिक्के हैं 
सोने की अशर्फियाँ हैं
डालर हैं , रूपइया हैं 
मार्क हैं , फ्रांक हैं 
बुद्ध अब जेन है
जापानी येन है
यात्री ह्वेन्सांग , फाहियान 
शाखा महायान , हीनयान 
दर्शन अब युआन 

विषय भूगोल नहीं 
जी पी एस प्रद्दत है 
दुनिया कितनी मस्त है 

पृथ्वी अब गोल नहीं 
गूगल है 
आइंस्टाइन , न्यूटन से बड़ा ब्रांड 
ऐपल है 
गंगा से वोल्गा तक 
पेप्सी, कोक है 
मैक है , पिज्जा है 
मुर्गी अब के एफ सी का ब्रांड एम्बैसडर है 
मुल्कों से बड़ा मुल्क फेसबुक ट्विटर है .
वालस्ट्रीट नया मक्का है 
गीक ऋषियों की सिलिकोन वैली है 
एमोटीकोन भाषा की रोती-हँसती शैली है 
ध्यान अब डाओ-जोन्स है 
पूजा नैशडैक है 
ज़िंदगी रिपोर्टर है 
एक सौ चालीस चिन्हों में अक्षरा ट्विटर है 
बाईबल , कुरान, गीता सब विकीपीडिया है 
दौड़ती भागती ज़िन्दगी की सीढ़ियाँ है 
यंत्रवत ज़िंदगी है 
मानव एक पुर्ज़ा है 
युद्ध का कारण ज़र ज़ोरू ज़मीन नहीं 
तेल है , क्रूड है , ऊर्जा है .
पौरुष वाईग्रा है 
काम कंडोम है 
बहके हुए कदमों को थाम ले वो पिल है 
दुनिया सारी एड्स के दायरे में शामिल है  
सभ्यताओं का संघर्ष 
९/११ , कर्बला , कुरुक्षेत्र 
छोटे -छोटे युद्धों की एक सी श्रृंखला 
खर्च , खर्चा , क्रेडिट-कार्ड, खर्चा 
ज़िंदगी किश्तों में सब कुछ खरीद लाई
भविष्य अब विश्वव्यापी अवसाद की ईएमआई 
चमड़े के सिक्के जब जब चले 
ज़िंदगी दिल्ली से दौलताबाद तक जले 
हमसब अब बाइनरी गणित हैं 
विश्व के बाजार में या तो हैं खरीदार 'एक '
या फिर 'शून्य' हैं 
इससे ज्यादा नहीं हमारा कोई अस्तित्व 
इतना ही बचा खुचा 
संवेदनाओं का सतीत्व 
और हमारी भूख की भट्ठी में 
इतना सब जला है 
हवा में सांस लेना तक दूभर है 
हम विषधरों नें इतना फुँफकारा है 
अपनी ही सांसों में अब विषभरा है 
फन उठाये तैय्यार नागराज कोबरा है 
सिर्फ चित्रों और गानों में 
हरी हरी वसुंधरा है 
विश्वव्यापी तापक्रम वृद्धि से 
कौन डरा -डरा है 
पिघला दिए हिमनद 
हम नए भगीरथ 
किया नए ईश्वरों का वरण 
आज फिर कुरुक्षेत्र में खड़ा है रथ 
हे पार्थ ! हे अर्जुन !!
हे पताका पर आरूढ़ !!
सब के सब !!
किम्कर्तव्यविमूढ़ 
मुझे याद आ रहा है -
पुनश्च :
गांडीव हाथ से फिसलता जा रहा है 
- कोई है ?
कौन आ रहा है ?  

10 फ़रवरी 2012

इतिहास (प्रथम किश्त )

इतिहास चर्चा 
कभी भी कहीं भी 
इफ़रात से 
सुकरात से 
औने -पौने दाम 
टाईम पास मूँगफली
तोड़ी-फोड़ी, छिली
आड़ी-तिरछी लकीरें 
विहंगम पटल
सबका शगल 
जैसे चाहो उड़ेल दो रोशनाई 
वृहत्तर कैनवास 
सीता की अग्निपरीक्षा 
राम का वनवास 
द्रौपदी का चीरहरण 
सावित्री का व्रत-उपवास 
दुर्योधन का अट्टहास 
गांधारी का उपहास 
अंधा है धृतराष्ट्र
अंधा है धृतराष्ट्र
न चाहिए विवेक 
न शिष्टाचार 
डालो अचार , डालो अचार 
नहीं कुछ खर्चा
इतिहास चर्चा .
(क्रमशः जारी )

प्राक्कथन

मैं न तो समय हूँ , न सत्ता . न मेरे पास दिव्यदृष्टि है , न काल-यंत्र. इतिहास जो भी लिखे , जब भी लिखे , दृष्टी है , कल्पना है , टुकड़ा है , अनुमान है . मधु यामिनी पर खिंचा हुआ एक चित्र . जिसमे उपस्थित युगल के मन में क्या चल रहा है , था , आसपास उपस्थित कोई क्या लिखेगा . और युगल द्वय अगर डायरी दां हों , तो उनका दरयाफ्त अलग होगा , रोज़नामचा अलग होगा , निवेदन अलग होगा , प्रणय अलग होगा . इतिहास द्वैत है .


इसलिए मैं सोचता हूँ , इतिहास लिखने की वस्तु है , पढ़ने की वस्तु है , इतिहास समीक्षा , टीका , टिप्पणी की वस्तु नहीं है . नज़र है , जिसे कोटि-कोटि नज़रें देखें उसके कोटि-कोटि नज़ारे होंगे , कोटि -कोटि नज़रिया होगा . बैरन बन गई - गोरी तेरी नजरिया.


मैं इतिहास नहीं लिखता , न समालोचक हूँ , पढ़ी -पढाई बातों को लिखता हूँ , नज़र खराब है , चश्मा पहन रक्खा है , उसी चश्मे से देखता हूँ . मेरा नंबर , आंखों का भाई , बहुत ज्यादा है , मेरा चश्मा आप पहन लें , तो कुछ दिखेगा भी नहीं .


एक कविता , पद्य , गद्यनुमा पद्य लिखना शुरू किया था , इतिहास को लेकर , बहुत बड़ा हो गया और अभी पूरा भी नहीं हुआ . तब बचपन में पत्रिकाओं में किश्त-वार आती कहानियाँ जेहन में आयीं . क्रमशः, अगले अंक में जारी , गतांक से आगे , पिछले अंक से जारी , अब आगे की कहानी .


सोचा यही तरीका अपनाऊं  . आप भी मुझे किश्तों में झेल लिजीए . कोई किश्त नहीं चुका पाया तो बैंक का क़र्ज़ तो है नहीं जो आप गुंडे भिजवा देंगे . वैसे इतिहास है तो - काशी का गुंडा - एक कहानी का शीर्षक था यह भी .   या सिर्फ गुंडा शीर्षक था , लेखक काशी का था , वैसे काशीनाथ सिंह यकीनन काशी के हैं . वही काशी का अस्सी वाले ! भई संतन की भीड़ वाला घाट तो चित्रकूट में था पर तुलसी दास जी अस्सी पर रहते थे , जिन्होंने यह लिखा. वरुणा और अस्सी के इसी क्षेत्र को वाराणसी कहते हैं . काशीनाथ सिंह के भाई नामवर जी से सब बड़े डरते हैं , ऐसा सुना है , पढ़ा है . हिन्दी वाले आलोचक एक ही मानते हैं . बनारस में गाली देने और सुनने-सुनाने की परंपरा रही है . अगर संस्कृति का हिस्सा हो तो लोग प्यार से गाली भी सुनने में यकीन रखते हैं . आप भी दिल खोल के दें - कुछ दिन मैं भी काशी में रहा हूँ , बुरा नहीं मानूंगा .

1 फ़रवरी 2012

खोखला

खेत की मेड़‌‍‌
बहुत बड़ा 
बरगद का पेड़ 
खड़ा है 
ड़ा  है 
अंदर से पोला है  
खोखला है  
कोई आंधी नहीं 
गाँधी नहीं 
हवा का एक हल्का सा झोंका 
गिरा देगा 
हरा देगा 
कोई कुल्हाड़ी मत लाना .
न हँसी असली 
न शब्द न कथनी न करनी 
बहत्तर छेद चलनी  
मिट्टी की  गाड़ी 
मृच्छकटिकम
चलती गड़ड़
हाथों में भरे 
विषभरे अक्षर 
मन से 
मस्तिष्क से 
रक्त कलम से 
गलियों से 
खेतों से
सड़कों से 
गुजरते रहे 
आते रहे जाते रहे 
अकेले अकेले चले 
घर जले 
बस्ती जली
कस्बे जले 
जहाँ जहाँ से गुज़रे 
काफिले
चेहरे  , चेहरे , तमाम चेहरे 
लूले लंगड़े अंधे बहरे 
हाथ , हथेली , मुट्ठी बाँधे
दाँत भींचे , फूले नथुने
रक्ताभ आँखे 
जुलूस  बने , जलसा बने , बहस -मुबाहिसा हुए 
अर्थ की अर्थी उठाए 
सफहा - सफहा 
बिखरे बिखरे हरफ 
एक तरफा , एक तरफ 
गूंजने लगे 
गाने लगे 
चिल्लाने लगे 
पाँवों के तलुए 
चाटने लगे 
सूँघते हुए 
गलियाँ-गलियाँ 
घूमते
कटखौने हुए , काटने लगे 
गालियाँ - गालियाँ 
और सब तटस्थ हैं 
अर्थ सब बौने हुए 
सुविधा के बिछौने हुए 
धूप से बचने के लिए 
आँखों को ढाँप लिया 
स्वार्थों को भाँप लिया 
दाम औने-पौने हुए 
खेत की  मेड़‌‍‌  पर 
सूखे हुए कुँए के पास 
धराशायी बरगद 
भीष्म सा लहुलुहान 
और विजयी मुद्रा में पास ही खड़ा है 
एक बिजुका शिखंडी 
बजउठी रणभेरी
अट्टहास कर , नरमुण्ड बांधकर 
नृत्यप्रवृत कापालिका , चंडी  
हो गया नाटक का अंत 
पर्दा  धीरे -धीरे गिरता है 
मूक - दर्शक  अपनी -अपनी जगह खड़े  , 
बजायेंगे , करतल 
तालियाँ - तालियाँ .

उल्लू

घुग्घू  या मुआ 
किसी भी नाम से पुकारें 
उल्लू का पट्ठा
उल्लू का पट्ठा रहा !!


घोंघा बसंत होने का दर्द 
जिसने सहा हो 
वह जहाँ भी रहा हो 
पानी के करीब 
किसी पुराने खंडहर 
या किसी पेड़ का सगा  
सारी उम्र घुग्घियाता - 
घुग्घूऊ ऊऊ रहा करता ,   
उल्लू का पट्ठा 
उल्लू का पट्ठा रहा !!


गले में पड़ा है 
लक्ष्मी का पट्टा 
भाग्य घिसा-पिटा
परसाई जी का दर्द 
परसाई जी ने कहा 
सबने अपना-अपना 
उल्लू सीधा किया 
चलता बना 
उल्लू का पट्ठा 
उल्लू का पट्ठा रहा  !!


प्रेम का फर्द 
ज़माने का सिरदर्द 
पिछली पीढ़ी का क़र्ज़
अगली पीढ़ी का फ़र्ज़ 
अजीर्ण का रोग 
अनिद्रा भोग 
विरह-वियोग 
प्रथम-मिलन-सम्भोग 
भैरवी साधना 
बकवादी की बकवास 
दार्शनिक का फलसफा 
देवों का सोमपान 
देवी का निंदा-सद्यस्नान  
सब का रतजगा 
सारी सारी रात चला 
उल्लू का पट्ठा 
उल्लू का पट्ठा रहा  !!



बिसमिल्ला की शहनाई 
पर जैसे आधी रात
राग बिहाग सजा, 
बजा, जब चढ़ी तान
कामदेव का बाण
इस पर चला 
उस पर चला 
पुकारती रही 
नयनों की आतुरता 
बैठा रहा घुग्घू 
निर्मिमेष ताकता 
उल्लू का पट्ठा 
उल्लू का पट्ठा रहा  !!

31 जनवरी 2012

बन्दर

एक महोदय डार्विन हुए थे , उन्होंने एक सिद्धांत दिया था , मनुष्य के पूर्वज बन्दर थे . या बंदरों से मनुष्य प्रजाति का विकास हुआ . पर कुछ बुद्धिमान मनुष्य तर्क देते हैं तो फिर अभी जो बन्दर हैं , वो क्या है ? तो कुछ ने मजाक में प्रति-तर्क दिया वो तो कुछ मनुष्य अवनति होकर बन्दर हो गये हैं . मगर सुना है डार्विन के सिद्धांत को चर्च ने अस्वीकार दिया था . काश विज्ञान ने भी त्याग दिया होता . बच्चे बिना प्रयोग के इस विज्ञान-पाठ से तो बच जाते . यह बात किसी उपलब्ध अकाट्य तथ्य पर अवलंबित हैं यह भी कोई नहीं बताता . मुझे व्यक्तिगत तौर से इस बात से कोई परहेज नहीं है . हिंदू हूँ तो किसी पूर्व जन्म में बन्दर भी रहा ही होऊंगा. दिक्कत तो जिन्हें पूर्वजन्म में विश्वास नहीं है , उन्हें है . वैसे इस ज़न्म में भी बड़े बुज़ुर्ग कई बार बन्दर जैसे व्यवहार का उलाहना दे चुके हैं . आप कई लोगों के बारे में मानते हैं की वो मनुष्य-योनि में दरअसल बन्दर हैं ? अब मैं क्या बोलूं ? आप बड़े-बुजुर्ग हैं . आपने दुनिया देखी है . आप मानते है तो कोई वजह होगी .  

खैर डार्विन की इस बात पर सारे प्रतिरोध मनुष्य समाज के आये हैं , बन्दर प्रजाति ने विरोध में कोई मोर्चा निकाला हो इस बात का कोई समाचार नहीं आया है . न ही कभी उनके द्वारा बंद , जुलूस , बहिष्कार , हड़ताल , ज्ञापन देने का उल्लेख किसी समाचार पत्र में देखा कभी ? न बन्दरों ने  अपने पूर्व पुरुषों के अपमान पर कभी किसी चर्च, मस्जिद , मंदिर पर हमला किया , न कोई किताब जलायी , न किसी के मुंह पर कालिख पोती.

मनुष्य जाति जिसे सभ्यता के उन्नति का इतिहास बखानती है , और प्रगति के नए-नए सोपानों पर अपने  चढ़ने का दावा करती है , उसके ठीक विपरीत जिन्हें हम बन्दर कहते हैं वो विरोध में ज्यादा से ज्यादा खींसे निपोर देंगे , थोड़ा उछल-कूद लेंगे . बन्दर आपके सूखते हुए कपड़े उठा ले जाएँगे, या अगर आप ने खिड़की खुली छोड़ दी हो तो आपके घर में घुस कर आटा बिखेर देंगे , और कुछ नहीं कर पाए तो आपकी छत ( गौर किजीये छाती नहीं लिखा ) पर कूद लेंगे जोर जोर से . हमारी आपकी तरह विकास किया होता तो मुंह से गालियों की बौछार करते , इससे भी शांति नहीं मिलती तो 
लात-घूंसों, लाठियों , छूरों,  से मामला सुलझाने की कोशिश करते , और इससे भी बात नहीं बनती तो गोलियों की बौछार करते , और इसके बाद अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर सभ्यता से बैठकर झंझट निपटाने के लिए मिसाइलें और परमाणु बम तो है हीँ . 

हमारे हिन्दी सिनेमा के हीरो तो पेड़ों पर भले ही न उछलकूद मचाएं , उनके आसपास जरूर उछलकूद मचा लेते हैं . हालीवुड वालों ने जरूर एक सिनेमा बनाया था ,इन्सटिंक्ट, जिसमे एन्थोनी हॉपकिंस के द्वारा गोरिल्लाओं के साथ जंगल में रहने के कुछ दृश्यों द्वारा मनुष्यों और बन्दरों के व्यवहार पर टिपण्णी है .

हमने  अंग्रेज़ी भाषा के साहित्य का ज्यादा अध्ययन नहीं किया है . परन्तु हिन्दी भाषा का कुछ सीमित अध्ययन किया है . इसमे बन्दर के हाथ उस्तरा , बन्दर-बाँट , वानर-सेना ,लंगूर से शादी की धमकी या आश्वासन , हूर के साथ लंगूर जैसे मुहावरे या जुमले प्रयोग में लाये जाते हैं . इसमें से प्रथम दो लोकोक्तियाँ तो हमारी शैशवकाल पर ठहरी लोकतान्त्रिक व्यवस्था को चलाने में काफी सहायक सिद्ध हो रही हैं . और जब तरह-तरह की नयी वानर सेनाएँ लंका के बजाय अयोध्या पर ही चढ़ बैठी हैं , और ये वानर सेनाएँ  वैलन्टाइन दिवस , सिनेमा प्रदर्शन , किताब प्रकाशन , चित्रकला प्रदर्शनी , प्रणय-निवेदन में व्यस्त प्रेमी-युगलों के विरुद्ध जो बागोँ में हमारी प्राचीन परंपराओं के अनुरूप वसंत-उत्सव मना रहे होते हैं पर चढ़ाई करती हैं . जो वानर सेना  पत्थरों से समुद्र पर पुल बनाने के लिए विख्यात रही है , अब वही वानर सेना पत्थरों के द्वारा समाज के सारे पुलों को तोडने के लिए कुख्यात होती जा रही है .  

अंग्रेज़ी भाषा में अलग अलग प्रजाति के बन्दरों के लिए अलग-अलग शब्द उपलब्ध हैं मसलन - चिम्पांजी, गोरिल्ला , मंकी , लेमूर, ओरांगउटान  इत्यादि . घबराइए मत ये सब अपनी कान्वेंट में पढ़ने वाली बिटिया के नर्सरी की किताब से लिए हैं . हमारे यहाँ तो हनुमान , सुग्रीव , बाली , मयंद , अंगद रामायण के पात्र हैं और इन नामों को राम के प्रिय के रूप में पूज्य भी माना जाता है , परन्तु रामलीला वालों ने , फिर सिनेमा वालों ने , और फिर दूरदर्शन वालों ने इनकी विचित्र वेशभूषा और श्रृंगार से क्या हासिल किया या करना चाहते थे यह तो वही जाने . वैसे विश्वमोहिनी कथा में विष्णु ने नारद का श्रृंगार करने के लिए वानर-मुख क्यों चुना इसका गूढ़ अर्थ तो आपको कथावाचक ही बता सकते हैं . परन्तु इसका परिणाम यह हुआ की पूरी रामायण की नीवं इस एक चौपाई में मिल जायेगी -

          "कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥
            मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी। नारि बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥
"

नारद उवाच - "तुमने मेरा रूप बंदर का बना दिया था, इससे बंदर ही तुम्हारी सहायता करेंगे। तुमने मेरा बड़ा अहित किया है, इससे तुम भी स्त्री के वियोग में दुःखी होगे "
मुझे लगता है आदिवासियों , जनजातियों की कोटा राजनीति की नीव यहीं पड़ गयी थी जिससे हमारी रामराज्य नीति अभी तक जूझ रही है . आप ठीक कह रहे हैं यह दूर की कौड़ी है . परन्तु मेरा मौलिक विचार है की विष्णु नारद का मजाक नहीं उड़ा रहे थे , बल्कि  कपि-रूप ज्ञान स्वरुप है जिसे विश्वमोहिनी माया नहीं छल सकती , वाराणसी में विश्वनाथ मंदिर के पास ही एक हनुमान मंदिर भी है . मालूम नहीं जो काशी जा कर विश्वनाथ के दर्शन करते हैं , वो ज्ञानवापी स्थित दक्षिणमुखी हनुमान के दर्शन करते हैं या अथवा नहीं . 

परन्तु  सारे ब्रह्मचारी युवक , ठीक है , ठीक है , ब्रह्मचारी आयु वाले युवक, हनुमान भक्त होते हैं . हर अखाड़े में आपको हनुमान की प्रतिमा या तस्वीर ज़रूर मिल जायेगी . वैसे क्रिकेट की विश्वमोहिनी सूरत में फंसे कितने नारद यह जानते हैं की  गुरु हनुमान को द्रोणाचार्य और पद्मश्री दोनों सम्मानों से नवाज़ा गया था . और जिनके आठ शिष्य  भी सर्वोच्च खेल सम्मान अर्जुन पुरस्कार प्राप्त हैं . अब अगर गुरु हनुमान ने आपको कोई दाँव नहीं भी सीखाया हो , परन्तु अगर अँधेरे से आपको  डर लगता हो तो हनुमान चालीसा का पाठ मुंह-जबानी याद कर लें , रात-बिरात अँधेरे रास्ते से गुजरने में सहायता होगी . लड़की हैं ? तो क्या हुआ ? वैसे भी हमारे पिता के मित्र व्यास जी कहा करते थे देवताओं की पूजा देवियों को और देवियों की पूजा देवताओं को करनी चाहिए .


जिस देश में भरोसा नहीं की ज़रूरत पड़ने पर क़ानून आपकी मदद को आ पायेगा , और आया भी तो हिन्दी सिनेमा की तरह समय पर तो आएगा नहीं , ऐसे में हनुमान जी को आजमाने में क्या हर्ज है ? आप इसे मेरा अंधविश्वास भी कह सकते हैं . विश्वास अंधा है तो क्यों आपत्ति करते हैं , क़ानून अंधा है तो किसी को आपत्ति तो होती नहीं . वह देवी है इसलिए क्या ? 
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