30 जुलाई 2010

शिक्षा एक वस्तु – ग्राहक या खरीदार (अंश ३)

पिछले अंश में हमने देखा की किस प्रकार उच्चशिक्षा में प्रवेश महज एक औपचारिकता रह गयी है. या दूसरे शब्दों में यह परिणति है उस युद्ध की जो स्कूली शिक्षा के वयस् में हमारे छात्र लड़ते हैं . ऐसा नहीं की यहाँ कोई युद्ध नहीं लड़ा जाता . असल में इस चक्रव्यूह से निकलने का अंजाम तो इस चक्रव्यूह में प्रवेश के पहले ही तय हो जाता है . और मैं देख रहा हूँ की इसमें सफलता के निहितार्थ भारतीय माता –पिता चक्रव्यूह में सफलता के लिए इस युद्ध को वर्ष दर वर्ष आगे की ओर धकेलते जा रहे हैं . पहले इसकी तैय्यारी स्कूली शिक्षा के अंतिम वर्ष में होती थी . फिर यह सरककर नौवी – दसवीं कक्षा पर खिसक गयी . फिर आठवीं .

क्या पता हमारे काल में जन्मे अभिमन्यु को इस कला का ज्ञान गर्भ में  रहने के दौरान ही देने का दौर भी आ जाये . अभी २२ वर्षीय एक नौजवान जो किसी भारतीय तकनीकी संस्थान में प्राध्यापक के तौर पर नियुक्त हुआ है – अच्छा नाम है तथागत अवतार तुलसी . किसी साक्षात्कार में उनके सन्दर्भ में पढ़ा की – वह योजनाबद्ध रूप से महान हैं . अतिशयोक्ति हो सकता है पर समाचार नज़रों में आ ही जातें हैं की जन्म के साथ साथ अच्छे स्कूल में दाखिले के लिए माता –पिता नाम लिखा आये .घुटनों के बल चलते शिशु को स्कूल जाते देखने का प्रयास करें तो निराश नहीं हों शायद .



मैं जानता हूँ पिछले अंश के कुछ पाठकों को लगा होगा की यह कह रहा है की हम शिक्षा एक वस्तु के बारे में अपने आप को उच्चशिक्षा तक सीमित रखेंगे और फिर पूरी किश्त स्कूली शिक्षा के बारे में बहस करते समाप्त कर दी. असल में स्वामी विवेकानंद का संकलन ज्ञानयोग पढ़ा था . उसमे वह समझाते हैं. बीज में ही वृक्ष के आकार , पत्तों , कलियों , फलों , फलों के स्वाद , फूलों की गंध , तने का आकार सब कुछ निहित है . वृक्ष बीज में ही समाया हुआ है . यह बात स्वामीजी ने ब्रह्माण्ड के क्रमिक विकास को समझाने हेतु कही थी . तात्पर्य यह था की जिस महाविस्फोट से ब्रह्मांड की उत्पति हुई है . क्रमिक विकास से उसके गर्भ से आकाशगंगा , निहारिकायें , सैकड़ों सूर्य , तारों का जन्म हो रहा है तब किसी अवस्था में ठीक इसके विपरीत क्रिया महासंकुचन से यह सब उसमे समाये होंगे . जैसे ब्लैक-होल या तिमिरछिद्र सब लील लेता है . स्वामी जी कहते हैं हर क्रमिक विकास की परिणति क्रमिक संकुचन ही होगा . अगर एक न हो दूसरा हो ही नहीं सकता . इसलिए सोचा विकास (इवोल्यूशन) से पहले इन्वोल्यूशन को समझना उचित होगा . 
 
इसी तरह उच्च शिक्षा के विकास को समझाने से पूर्व हमें स्कूली शिक्षा पर समय व्यतीत करना पड़ा. उच्चशिक्षा के ग्राहक भारत में उच्चशिक्षा के बाज़ार में क्यों आते हैं ? और उच्चशिक्षा के किस माल पर उनकी नज़र है . यह तो हमने देख लिया की उच्चशिक्षा के अलग अलग उत्पाद का वर्गीकरण सीधे सीधे आर्थिक सरोकारों से जुड़ा है . और इन सरोकारों से ही भारतीय मध्यमवर्ग ने उत्पादों का चयन कर लिया . और अपने सारे प्रयत्न ऊँचे से ऊँचे उत्पाद को पाने में लगा डाला . सारी कवायद सारे सरअंजाम सही – गलत किसी भी तरीके से ऊँचे से ऊँचे उत्पाद को पाने की होड़ में झोंक दिए जातें हैं . यह धर्मयुद्ध है . और युद्ध में सब जायज है . इसमें तीन वर्ष के बच्चे को शिशु विद्यालय/ नर्सरी में भर्ती करना . अपनी आँखों के तारों / कोख के जने को अपनी आँखों से दूर हैदराबाद या कोटा भेजने के लिए तैयार होना शामिल है . यहाँ हम भारतीय समाज की चर्चा कर रहे हैं .अमरीकी नहीं जहाँ मजाक में पिता ने प्री-स्कूल ग्रेजुएटिंग सेरेमनी से लौटकर आशा व्यक्त की शायद पुत्री  शीघ्र घर छोड़ दे .

पर जिस समाज में जहाँ जिस उत्पाद की इतनी मांग है वहाँ बाज़ार में इतनी मारकाट क्यों ? यह हमारी आज़ादी के बाद हमारे तंत्र पर छायी समाजवादी चिंतन प्रणाली की देन है . जिस चिंतन में माई-बाप सरकार ही सब कुछ है . और संयुक्त रूप से समाज का पुरुषार्थ माई-बाप सरकार और इस माध्यम से राजनीतिज्ञों , नौकरशाहों , चापलूसों , सुविधाभोगी , लगान – अभिलाषी , लाइसेन्स-परमिट-कोटा राज के भोग चढ़ गया . यह नहीं की इस दौर में सिर्फ सरकारी तंत्र ही उसका फायदा उठा रहा था . बाज़ार तो वैसे ही लाभ की ओर भागता है . और बहती गंगा में हाथ धोने की कहावत तो भारतीय समाज में वैसे ही बहु-परिचित और बहु-प्रचलित है . उस समय जब हर चीज सरकारी नियंत्रण में थी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से शायद इस पीढ़ी को ज्ञात न हो . चलिए एक झलक देख लें चलते – चलते . बजाज स्कूटर , जी हाँ "हमारा बजाज " . तब इसके लिए वेटिंग लिस्ट ( प्रतीक्षा – सूची) होती थी . लोग विवाह में दहेज के लिए स्कूटर की मांग पूरा करने के लिए इसे सिनेमा की टिकिट की तरह ब्लैक दे कर खरीदते थे . इस प्रतीक्षा सूची को आप छोटा कर सकते थे अगर आपका कोई परिचित विदेश में रहता हो और वो आपके लिए विदेशी मुद्रा का आयोजन कर दे . ऐसा ही पर्याय उस अदद चीज के लिए था जिसे हम हिंदी वाले दूरभाष और आम भारतीय टेलिफोन कहता है . वही प्रतीक्षा सूची . या फिर मंत्री-संत्री कोटा . या ओन – योर- टेलिफोन ( ओ.वाई.टी.) के अंतर्गत हज़ारों की रकम . वह टेलिफोन जिसके खराब होने पर आपको ठीक कराने के लिए हथेली गर्म करनी पड़ जाती थी . तीज – त्योहारों पर मान-मनौव्वल का व्यवहार रखना पडता था सो अलग . दो अलग उदाहरण . दोनों एक जैसे . नहीं फर्क है . एक नितांत निजी क्षेत्र की कंपनी और एक सरकारी संस्थान. और ग्राहक की एक सी नियति . यह तो बड़ी – बड़ी चीजों की बड़ी – बड़ी बातें हैं . छोटी चीजों की तरफ देखें तो शादी – ब्याह में पानी के अतिरिक्त टैंकरों या चीनी के लिए लोग मंत्री – मुख्यमंत्री तक के द्वार हो आते थे . नयी पीढ़ी के तो वारे-न्यारे हैं . दो-पहिया वाहन वाले निर्माता तरह – तरह की छूट देंगे , बीमा मुफ्त , पेट्रोल मुफ्त , रोड-टैक्स मुफ्त , अग्रिम राशि भी नहीं , बिना ब्याज के ऋण , किस्तों में भुगतान . और न जाने क्या – क्या . काश हम एक पीढ़ी बाद जन्म लेते . फोन भी इसी तरह . वह भी मोबाइल . घर घर में , बच्चे – बच्चे के पास . और सबसे कम दाम पर देने के बावजूद लोग दूरसंचार विभाग से दूर – ही – दूर जा रहे हैं . क्यों यह न आपकी चिंता है न हमारी . सोचिये अगर नहाने के साबुन पर समाजवादी विचारधारा का अंकुश होता तो आप कई – कई हफ्ते बिना नहाये रह जाते . या फिर मंत्री – मुख्यमंत्री या सांसद – विधायक के सिफारिशी पत्र के लिए भागते फिरते . और मेहमान को लिखते साबुन ले कर आयें कृपया . और बेटी की शादी होती तो शायद पुरे मोहल्ले से कहना पडता . कृपा कर एक –एक साबुन अपने अपने कोटे से दें. इससे ज्यादा आँखों में शर्म वाले मांग भी कैसे सकते थे . चीज ही ऐसी है . चोर साबुन की चोरी करते . और आप रपट लिखाते और कुछ मिले न मिले दारोगा जी पर यह साबुन आपको बरामद करना ही पड़ेगा . यह तो मज़ाक की बात हो गयी . पर कुछ बातें मजाक – मजाक में जल्दी समझ आ जाती हैं कभी – कभी .

पर इतना परिवर्तन आया कैसे ? निजी क्षेत्र वही है . बजाज भी वही है . सारा खेल मेरी कमबुद्धि की समझ में प्रतियोगिता का है . प्रतियोगिता ने , आर्थिक सुधारों ने टेलिफोन , उपभोक्ता सामग्री के बाज़ार में आमूलचूल परिवर्तन ला दिया है . ग्राहक की पौ-बारह हो गयी . दो पहिया वाहनों का सामग्री - बाजार या टेलिफोन का सेवा – बाज़ार . इसके ग्राहक की मांग के अनुरूप बाज़ार ने अपने को ढाल लिया . अब देखें शिक्षा का ग्राहक कैसा है ? और इसका बाजार क्या अपने को ढाल पायेगा ? और इस क्षेत्र को सुधार की बयार क्यों छोड़ गयी ? इन प्रश्नों से भी दो-चार होंगे पर पहले अपने ग्राहक को तो समझें . कहतें हैं "ग्राहक बाजार का राजा है ".

पर यह ग्राहक कितने किस्म का है ? बाजार के विशेषज्ञ अपने ग्राहकों का खण्ड-विन्यास चाहते हैं . इससे सुविधा होती है ग्राहकों का वर्गीकरण करना और उनका लक्ष्य साधन . कुछ ग्राहक शिक्षा चाहते हैं आजीविका या पेशे के लिए . कुछ शिक्षा जगत में आते हैं ज्ञान के लिए . कुछ समय व्यतीत करने के उद्देश्य से . कुछ ग्राहक आते हैं कुछ कौशल या हुनर सीखने के लिए . हमारे एक मित्र एक शैक्षिक उपाधि को लक्ष्य कर बोलते थे जमाई होने के लिए उपाधि . परिवर्तन कर उसे पुत्र-वधु उपाधि से भी नवाज़ा जा सकता है . वैसे भी विज्ञापनों में पढ़ने में आता ही है – पढ़ी – लिखी लड़की चाहिए . और वर के लिए विज्ञापन देने वाले लिखते ही हैं – कान्वेंट एजूकेटेड. उद्देश्य स्पष्ट है . और जब ये ग्राहक बाजार में दिख जाएँ तो उन्हें उनके हाव-भाव या व्यवहार से पहचाना भी आसानी से जा सकता है . अभी किसी समाचार में पढ़ा था भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान के एक छात्र ने शिक्षा पाने के पुरे पांच वर्षों में मात्र सत्रह कक्षाओं में उपस्थिती दर्ज कराई. पेशेवर छात्र जो छात्र – राजनीती में भाग लेने के लिए पूर्णकालिक तौर पर उच्चशिक्षा संस्थानों में भर्ती होते हैं उनसे भी हम परिचित ही हैं . कुछ जो पिता या परिवार का व्यवसाय संभालेंगे युवा अवस्था में समय बिताने के लिए दाखिला लेते हैं . कुछ विवाह की तैयारियों के लिए उपाधि ग्रहण करने के लिए इस में शामिल होते हैं . और इसके पूर्ण होने की प्रतीक्षा में काल व्यतीत करते हैं . कुछ लोग जो जीविका –साधन के लिए आतें हैं वह शिक्षा के हर सोपान के बाद इसके लिए प्रयास करते हैं . कुछ लोग तो दिल्ली जैसे शहरों में स्थित कुछ नामी-गिरामी विश्वविद्यालयों में महज इसलिए दाखिला लेते हैं की वहाँ छात्रावासों में रहना आर्थिक रूप से ज्यादा कारगर नुस्खा है . और ऐसी परंपरा भी विकसित हो गयी है . अपने इस कौशल को विज्ञापित करने के लिए संस्थान भी विज्ञापन देते हैं - की कितने छात्र कितनी मोटी तनख्वाहों पर परिसर पर साक्षात्कार द्वारा स्थान-नियोजन में सफल हुए . अब तो छात्र संस्था का चयन इसी बात से प्रभावित होकर करने लगे हैं . हमारे समाचार माध्यम भी हर वर्ष नौकरी आयोजन पर्व में ऐसे समाचारों को प्रमुखता से उछालते व्यस्त नजर आते हैं . और कुछ तो ऐसे मेलों का आयोजन करते हैं या इसमें सहभागिता करते हैं . अब तो बहुत से संस्थान अपने द्वारा प्रदान शिक्षा से जो हासिल नहीं कर पाए इस प्रयास में सफलता के लिए सुसज्ज्ति करने की कवायद करते हैं . इसमें कुछ सरकारी संस्थान निजी संस्थानों की मदद भी लेते हैं . जो छात्र सरकारी नौकरी के लिए लालायित रहते हैं या थे वो सब आई. ए. ऐस., से शुरू करके बैंक अधिकारी , मैनेजमेंट प्रशिक्षु , बैंक लिपिक , सरकारी लिपिक और चयन आयोग द्वारा सारे आयोजनों के अभ्यर्थी हो जाते हैं और निष्ठापूर्वक इनके फ़ार्म भरते हैं और इसमें शामिल होते हैं . इन में शामिल होना एक मेले में शामिल होने जैसा होता है . वैसा ही उत्साह , पूरा का पूरा परिवार , वैसी ही चहल पहल . मेले में जाने के लिए जैसी भीड़ बसों या रेलों में दिखती है वैसा ही समझ आता है जब किसी संस्थान के बाहर छुट्टी वाले दिन मेला सा देखें . या रेलवेस्टेशन पर एक उम्र-विशेष लोगों का हुजूम तो समझ लें किसी प्रतियोगी – परीक्षा में भाग लेने वाली सेना कूच में है .

पहले कुछ नौकरियों के लिए टाइपिंग सीखना या शार्ट-हैण्ड सीखना भी कुछ लोगों के लिए शिक्षा से इतर एक अग्नि-परीक्षा या मजहबी रस्म थी . बाद में यह संगणक या कम्पयूटर सीखने के संस्कार का रूप ले चुकी .

कुछ लोग जो सक्षम थे खेल कूद में भाग लेते थे . क्योंकि कुछ नौकरियों में ऐसे लोगों के लिए आरक्षण था .ऐसे लोग प्रतियोगिताओं में भाग लेते और उसके प्रमाणपत्र इकठ्ठा करते . आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर शोध से यह साबित हो जाये की हमारे देश में कुछ खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन महज इसलिए किया जाता है जिससे उसमे भाग लेने वालों को इस तरह के प्रमाणपत्र जुटाने का मौका मिल सके .

ऐसी ही प्रव्रृत्ति देखी है उच्च पद के अभ्यर्थियों में . वहाँ सम्मान – उपाधि या गौरव –उपाधि या श्रेष्ठ – उपाधि या पुरस्कार जुगत का सामान बन जाते हैं . इसके लिए कुछ संस्थाएं पेशेवर तौर पर कार्य करती हैं . कुछ महानुभाव इसके लिए मूल्य भी देते हैं . और कुछ पुरस्कारों के बारे में तो यहाँ तक कहा जाता है की वो जान – पहचान या सिफारिश या चापलूसी या संजाल ( नेटवर्किंग) के मिलते ही नहीं . अभी कुछ दिनों से यह उन्माद अंतर-राष्ट्रीय प्रशस्तिपत्र या कौन क्या है पाने के रूप में सामने आया है . इसके लिए भी शुल्क है . यह सब हासिल कैसे ही न किया जाए पर यह आवेदन पत्र में बड़ी शान से दर्शाया जाता है .

शिक्षा के सन्दर्भ में हमारे और एक अभिन्न मित्र कहा करते थे की वो जीवन में बहुत से ऐसे लोगों से मिले जो बहुत साक्षर थे पर शिक्षित नहीं थे . और इसके विपरीत अनेक ऐसे थे जो साक्षर बिलकुल नहीं थे पर शिक्षित बहुत थे . कभी कभी लोग बहुत गूढ़ बात बहुत सामान्य तौर पर कह जाते हैं . और मैं भी छात्र जीवन में सोचता था कबीर , तुलसी , मीराबाई , सूरदास सब के सब बिना किसी उपाधि वाले पर इनपर शोध कर कर के न जाने कितने अनगिनत लोग डॉक्टर की उपाधि पा चुके . इस वर्ष भारतीय प्रौद्योगिक संस्थान द्वारा आयोजित प्रवेश परीक्षा बहुत से कारणों से प्रचार माध्यमों में लगातार चर्चा में है और उसमे एक खबर यह भी की घर में शिक्षित १४ वर्षीय एक किशोर ने दिल्ली क्षेत्र से इस परीक्षा में बैठ कर सर्व-भारतीय तालिका सूची में ३४ वां स्थान प्राप्त किया . नाम है सहल . यह तो विषयान्तर हो गया . चलिए लौटते हैं अपने ग्राहक की तरफ . पर साक्षरता अभियान और शिक्षा अभियान में फर्क को रेखांकित करके चलते हैं .

जब ग्राहक ने उपाधि को शिक्षा का प्रतिदान मान लिया . वह उपाधि जो कार्यरत होने के लिए आवश्यक हथियार है . उन्नति या प्रोन्नति का उपादान है . नौकरी में प्रवेश के लिए पार-पत्र या पासपोर्ट के समान हो गयी . तब उच्चशिक्षा धीरे – धीरे इस ओर विमुखित हो गयी . या भटक गयी . या दिशाहीन हो गयी . या शिक्षा का इस तरफ मतिभ्रम हो गया . लोग येनकेनप्रकारेण इसे पाने के लिए यत्नप्रद हो गए . और बाजार में इस मांग को पूरा करने के लिए बड़े आयोजन होने लगे . इस पिपासा को शांत करने के लिए बहुत उपक्रम हुए . कुंजियाँ आ गयीं , अपेक्षित प्रश्नावलियाँ बिकने लगीं , प्रश्न – बैंक इस कड़ी में आगे आये . परीक्षा में बैठने य पास कराने के ठेके लिए और दिए जाने लगे , नक़ल करने और करने वालों का एक उद्योग शुरू हो गया . जहाँ ऐसी सुविधाएँ थी ऐसे प्रदेशों में लोग जाकर परीक्षा देने लगे . छद्मनाम या छद्मवेशी होकर परीक्षा दी जाने लगी . नक़ल करना जन्मसिद्ध अधिकार हो गया . और अगर गूगल में "मास कॉपिंग" देकर भारतीय पृष्ठ तलाशा तो कुल ४३८० पृष्ठ मिल गए . अध्यापक , एक राज्य के डी.आई.जी., एक स्कूल , पूरा शहर , एक शहर, एक राज्य , माफिया, परिस्थति भयावह नहीं तो विषम जरूर है . यह परीक्षा में नक़ल का कारोबार स्कूल बोर्ड तक सीमित नहीं है . इसका विकास हुआ है . आखिर हम विकासशील देश हैं . यह अब विश्वविद्यालय और उससे आगे प्रवेश परीक्षाओं , और दिल थाम लें प्रतिभा-खोज परीक्षा में भी प्रतिभाशाली अपने जौहर दिखा रहे हैं . यह किसी एक राज्य या क्षेत्र का मामला नहीं है . यह विविधता में एकता का देश है . कश्मीर से केरल, गुजरात , राजस्थान , महाराष्ट्र, बंगाल कोई भी अछुता नहीं है . इस हमाम में सब नंगे हैं .

जो परीक्षा में नक़ल करके भी लक्ष्य को नहीं पा सके . उन्होंने इससे एक कदम आगे जाकर नक़ल उपाधि या नकली अंक सूची पर ही नजर गड़ा ली . अब इसके उदाहरण आप खुद गूगल द्वारा खोजने की जहमत कर लें . मैं इसमें आपकी मदद नहीं करूँगा . इसमें विश्वविद्यालय के कुलपति , कालेज के प्रधानाध्यापक , माता-पिता , राजनेता सब शामिल हैं . पड़ोसी देश से भी ऐसी खबरें आयीं . और उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया उपाधि तो उपाधि है उसमे नकली क्या असली क्या ? और जिस देश में विदेशी चीजों के प्रति विशेष लालसा हो वहाँ लोग नकली विदेशी उपाधियों के प्रति विशेष दुराग्रह रखें तो स्वाभाविक ही है . एक राज्य के उच्चन्यायालय ने केंद्र को नकली उपाधियों के खिलाफ जाँच करने को कहा है . और इससे भी आगे जाँच कर केंद्रीय जाँच विभाग ( सी.बी.आई ) ने गहन छान बीन के बाद अनुशंषा की है की सरकार ई-प्रमाणपत्र जारी करे . बात अगर यहीं तक सीमित रहती तो ठीक था . यह बीमारी तो चिकित्सा की नकली उपाधि तक आ पहुंची है . यह भी मांग है बाजार की . एक समाचार आया – नकली स्नातक – क्या आप उसे पहचान लेंगे ? पर इससे आगे एक दौड़ है . प्रवेश परीक्षा में सफलता पाने की महत्वाकांक्षा ने लोगों को वहाँ पहुंचा दिया जहाँ शून्य पाकर भी लोग सफल हैं ? और २४००० छात्र प्रवेश परीक्षा में तो सफल हो गए पर बोर्ड की परीक्षा में असफल . हर मंडल या बोर्ड ज्यादा से ज्यादा अंक देने की होड़ में शामिल है . और यह गुब्बारा भी शीघ्र फटने वाला है ऐसी शंकाएं व्यक्त की जा रही हैं . और बहुत ज्यादा अंक पाने वालों की अभिज्ञता भी पतली निकलती है . ग्राहक क्या करे ? बाज़ार उसे जो देता है वो उसे वैसे ही लपक लेता है . मैं ये उदाहरण सिर्फ एक उद्देश्य से दे रहा हूँ . आपको डराना मेरा मकसद कतई नहीं है . जिसके जीवन में ये रोज़मर्रा की घटनाएँ हो वो इन सब से क्या डरेगा और क्यों डरेगा ? मैं तो सिर्फ यह निष्कर्ष निकालना चाहता हूँ की अगर असल माल की प्राप्ति न हो और जरूरत हो तो लोग नकली माल भी किसी भी कीमत पे लेने को तैय्यार होते हैं . और लोग बेवजह शोर करते हैं ग्राहक को माल मुफ्त में चाहिए . या वह उसकी कीमत नहीं चुकाना चाहता . अब यह न कहियेगा ऊपर उल्लेखित ये सारे कारोबार बिना लेनदेन के संपन्न हो जाते हैं .

( आज इतना ही अगले हफ्ते इस चर्चा को आगे ले जायेंगे )

26 जुलाई 2010

शिक्षा एक वस्तु – ग्राहक या खरीदार (अंश – २)

मारे देश में आंकडो के अनुसार उच्च शिक्षा में युवा वर्ग का एक बहुत छोटा अंश ही उच्च शिक्षा के लिए जा पाता है . स्कूली शिक्षा में वैसे ही जनसँख्या का एक छोटा अंश प्रवेश करता है . और उसका भी एक छोटा अंश उसमे रह पाता है . और उसका भी एक छोटा  अंश ही उसे पूरा कर पाता है. समाज का एक तबका समझता है की शिक्षा पाने के बाद भी शायद उसका उन क्षेत्रों में प्रवेश नहीं हो जिसमें शिक्षा से प्रवेश मिल पाता है – प्रवेश बन्द कराने के और कतिपय आधार हैं जैसे भाषा ( क्षेत्रीय बनाम हिंदी बनाम अंग्रेजी ), जाति , धर्म , क्षेत्र इत्यादि . इनमे से कुछ दृष्टय और कुछ अदृष्टय . पहले लक्ष्मी और सरस्वती नहीं मिलते थे पर अब धनाढ्य वर्ग , समाज में शिक्षा को देखने की दृष्टि में परिवर्तन की वजह से और परिवारवादी उद्यमों में आये संस्थागत बदलाव की वजह से वो भी शिक्षा पाने को शामिल है . नितांत सीधे शब्दों में भारत में उच्च शिक्षा अपवादों को छोड़ दें तो कमोबेश मध्यम वर्ग के लिए , मध्यम वर्ग द्वारा , मध्यम वर्ग का आयोजन ही रहा है .


अब तक आप समझ ही चुके होंगे की मैं वर्तमान बहस को उच्च शिक्षा तक ही सीमित रख रहा हूँ. आजकल नहीं जानता पर जब हम पढते थे तब कक्षा दसवीं के बाद रिजल्ट आने पर बहुत अच्छे छात्र अगली कक्षा में विज्ञान , उसके बाद की श्रेणी के वाणिज्य , और अंतिम श्रेणी के छात्रों को स्कूल कला संकाय में प्रवेश देता था . इसमें छात्र की रूचि , उसके समाज का रुझान , संकाय की उपलब्धता , परिवार का उपादान भी थोडा बहुत होता होगा पर हम बहुसंख्यकों को लेकर ही बात करेंगे अपवादों को लेकर नहीं . फिर बारहवीं का परिणाम आने पर विज्ञान के छात्र उसके अनुसार तकनीकी, चिकित्सा , पोलिटेक्निक, कृषि वैज्ञानिक या फिर विज्ञान स्नातक होने के लिए भर्ती हो जाते थे . स्नातक होने के बाद प्रतियोगी परीक्षाओं में आई .ए.एस. / समकक्ष , बैंक , अर्धसरकारी , निजी क्षेत्र की नौकरियों  इत्यादी का दौर चलता था , कुछ विज्ञान के छात्र उस समय फिर एक बार तकनीकी शिक्षा के लिए प्रयास करते और इन सब में सफल न होने वाले आदतन आगे की कक्षा में प्रवेश ले लेते थे . और कुछ करने के लिए नहीं था और ऐसा  करने की कोई लागत भी नहीं थी . और वहाँ का परिणाम आने पर फिर एक बार आई .ए .एस. , बैंक , इत्यादी का दौर चलता था और असफल होने पर फिर शोध वगैरह के लिए प्रवेश की परिपाटी . यहाँ यह रेखांकित किया जाना चाहिए की शोध के लिए वही छात्र बचते थे जो हर बार की चलनीकरण में रह जाते थे . साधारण अनुग्रह से शिक्षा से जितना शीघ्र हो कर्म क्षेत्र में प्रवेश ही स्वाभाविक था .


हर संकाय की कमोबेश यही कहानी थी . सिर्फ वाणिज्य के लिए सी.ए. , लागत शास्त्री होने या कला संकाय वालों के लिए टाइपिंग , शार्टहैण्ड और ऊपर वालों के लिए एडवरटाईजिंग इत्यादि . अगर हम ध्यान से देखें तो पाएंगे की अभियांत्रिकी में आई.आई.टी. में सबसे ऊँचे , उसके बाद के राजकीय तकनीकी , और उसके बाद कृषि तकनीकी , उसके बाद के पोलिटेक्निक में जाते थे . और फिर वहाँ से निकलने के बाद वैसी ही नौकरियां . यानि शिक्षा में जैसा  चलनी द्वारा छात्रों का वर्गीकरण होता था वैसा ही वर्गीकरण भारतीय अर्थव्यवस्था में नौकरियों का था . सरकारी , अर्धसरकारी , निजी क्षेत्र की नौकरियां . इसमें एक चीज जो उभर कर आती है वह यह की उच्चतम शिक्षा में या शोध तक की शिक्षा में वही प्रवेश लेते थे जो इस चलनीकरण में बच जाते थे .


अब ऊपर की चर्चा से यह स्पष्ट है की समाज में कार्यों , नौकरियों का स्वमान्य वर्गीकरण है . जैसे भारतीय समाज में मनुष्य का जातियों में वैसे ही आर्थिक आधार पै पेशों का . हर पेशे में प्रवेश के लिए शिक्षा जगत में भी एक समानान्तर वर्गीकरण हो चुका है . और शिक्षा धीरे धीरे उसमे प्रवेश का पासपोर्ट मान ली गयी . फिर डिग्री को समानार्थी प्रसंग में शिक्षा का पर्याय मान लिया गया . विश्वविद्यालय या महाविद्यालय डिग्री देने के कारखाने का रूप लेने लगे . बाज़ार में नकली माल आ गया . डिग्री दिलाने के ठेकेदार भी मिलने लगे. सरकारी नौकरियों में बहुत से लोगों ने दूरस्थ शिक्षा द्वारा डिग्री हासिल की . कुछ कुछ लोगों के पास ऐसी डिग्रियों की बाकायदा सूची है . यानि शिक्षा से दूरी बनाये हुए डिग्री . अब तो इसकी सी.बी.आई. द्वारा जांच भी होने लगी है . नकली हल्दी, नकली प्रसाधन सामग्री और नकली डिग्री . डिग्री पूर्ण रूप में शिक्षा का पर्याय बन चुकी है . शिक्षा कहीं पीछे छूट गयी है . ऐसा नहीं की विश्वविद्यालयों में अच्छे छात्र नहीं हैं , अच्छे प्राध्यापक नहीं हैं . अपवाद हर जगह हैं . हम व्यापक वातावरण की बात कर रहें हैं . बहुत सी नौकरियों के लिए मान्य डिग्री की आवश्यकता पर ध्यान दें या उन नौकरियों को करने वालों से पूछें की आपने जो भी सीखा उसका अपने कार्य में क्या उपयोग करतें हैं ? अधिकांश कार्यों के लिए डिग्री का तारतम्य नहीं है . अगर कक्षा १२ के बाद उन कार्यों से सम्बंधित ज्ञान दिया जाता तो शायद वो बेहतर कर रहे होते . पर हमारे समाज में जहाँ परिवार के द्वारा बहुत से कार्य वंशपरंपरा द्वारा बहुत अच्छे से व्यावसायिक शिक्षा के पर्याय के रूप  में न जाने कितनी पीढ़ियों से संजोये गए हुए हैं उसी समाज में व्यावसायिक शिक्षा विधिवत रूप में स्थापित नहीं हो पाई . मालूम नहीं आप में से कितनो नें ऐसे समाचारों पै ध्यान दिया है की – हमारे ज्यादातर स्नातक रोजगार के अयोग्य हैं . और ऐसे समाचार साधारण स्नातकों के ही नहीं "अभियांत्रिकी स्नातकों" के बारे में भी छपते रहे हैं लगातार .


छांट कर छात्रों के वर्गीकरण और कार्यों का उसके मूल्य के अनुसार वर्गीकरण से समाज में कार्य का आदर ( रेस्पेक्ट फॉर लेबर) खत्म हो गया . कुछ कार्यों को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा . बहुत से कार्य तकनीकी के विकास के बावजूद चिर-पुरातन तरीके से ही किये जाते हैं अब तक . हमारे परंपरागत मजदूर वर्ग के काम करने के औज़ार और तकनीक में मुझे नहीं दीखता कोई बदलाव आया है . संगठित श्रमिक वर्ग अपवाद होगा क्योंकि वहाँ जरूरत के अनुसार उन्हें प्रशिक्षित किया गया है . हमारे कुशल मजदूर, मैं उन्हें परंपरागत पेशे वाले मजदूर वर्ग के रूप में संबोधित करूँगा . विधिवत व्यावसायिक शिक्षा के अभाव में नए कारखानों , नए उद्यमों से दूर होते जा रहे हैं . इससे जुड़ा है उत्पादकता और उससे आमद बढने या पिछड़ने के लक्षण .


अब ग्राहक को मालूम है किस शिक्षा का बाजार में क्या मूल्य है . अभिवावक भी जानता है . यह बाजार मूल्य उच्च शिक्षा का है . पर इसका आधार तय होता है स्कूली शिक्षा के परिणाम पर. तो इस युद्ध की ओर ध्यान दें . जैसे जैसे किसी वस्तु की मांग बढती है . बाजार में उसकी आपूर्ति एक समय अंतराल में बढ़ जानी चाहिए. और वस्तु की मांग कम होने पर बहुत से कारखाने बन्द हो जाते हैं या हमारे सरीखे देश में बीमार हो जाते हैं . अगर आपूर्ती नहीं बढती तो ? उसकी काला - बाज़ारी होगी . छीना-झपटी होगी . उसे पाने के लिए द्वन्द होगा . जब मांग कम थी तब लोग कुछ कक्षाओं में स्कूल के अलावा अतिरिक्त पढाई की व्यवस्था में लगते थे . मैं जान बूझ कर प्राइवेट ट्यूटर शब्द का उपयोग करने से परहेज कर रहा हूँ . क्योंकि एक समय इसे छात्र की कमजोरी के तौर पर देखा जाता था . आज इसे न करा पाना अभिवावक की कमजोरी के रूप में देखा जाता है . ट्यूशन अब कोचिंग (परीक्षा के लिए तैयार करना) में परिवर्तित हो चुका है . लोग पहले दोस्तों से आग्रह करते थे थोडा समझा देना . फिर घर बुलाने लगे समझाने के लिए , कुछ पारिश्रमिक दे कर . मांग बढ़ी तो प्रशिक्षक झुण्ड में पढाने लगे . और मांग बढ़ी तो सत्र लगाने लगे . कुछ संस्थान इसके लिए विख्यात हो गए . और फ्रांचिजी आ गए . फिर कुछ शहर अब इस लिए विख्यात हो गए . इसमें अब कुछ लिमिटेड कंपनीयां भी शामिल हो गयीं हैं . पहले यह १२ वी से शुरू होता था फिर क्रमशः अब सुना है वर्तमान में यह ८ वी कक्षा से शुरू हो रहा है . जनसंख्या विशेष कर शहरी क्षेत्रों में जनसँख्या विस्फोट से , इसका परिणाम , तीन साल के बच्चों को स्कूल में प्रवेश हेतु परीक्षा के लिए तैयार करना तक पहुंचा है . इसमें कहीं कहीं अभिभावक का प्रशिक्षण शामिल है . सवाल कई हैं मेरे मन में ? मसलन भारतीय समाज में  एक दुराग्रह है आप इससे वाकिफ होंगे . शिक्षा का शुल्क नहीं बढ़ना चाहिए . वरना उच्च शिक्षा निर्धन लोगों की पहुँच से बाहर हो जायेगी . यह आवाज़ राजनीतिज्ञों , शिक्षाशास्त्रियों , छात्रनेताओं द्वारा प्रमुख रूप से उठाई जाती है. इसमें मध्यम वर्ग का वह तबका भी शामिल है जिसकी आवाज़ पेट्रोल के दाम बढ़ने पर उठती है . पर स्कूल की फीस , बस की फीस , किताबों के दाम , ट्यूशन की कीमत , कंप्यूटर , कराते , घुड़सवारी , कोटा या हैदराबाद या दिल्ली भेजने के खर्चे पर नहीं उठती . अलग अलग शहरों में जाकर प्रवेश की प्रादेशिक , संस्थागत , या राष्ट्रीय प्रवेश परीक्षा की अनगिनत चक्कियों में पिसने पर भी ऐतराज नहीं है . प्रवेश परीक्षा का आयोजन सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्र दोनों के लिए अलग से एक बाज़ार और व्यवसाय हो गया है . राजनेता , अभिनेता , दफ्तरशाह अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाते. सिवाय केंद्रीय विद्यालयों के जहाँ अन्य स्कूलों का बाज़ार नहीं बन पाया . या जहाँ स्थानांतरण की समस्या है . और वैसे भी यह बाज़ार मूल्य से कम रियायत पर उपलब्ध है . यह आवाज़ इसलिए नहीं उठती क्योंकि यह साधन हैं अगले युद्ध में कुशल योद्धाओं को पहुँचाने से रोकने के. यह युद्ध का पूर्वाभ्यास है . प्रतियोगिता का महत्व हम सब जानते हैं . और प्रतियोगियों की सीमित संख्या संभावनाएं बढ़ा देतीं हैं . अतैव यह स्वाभाविक है की स्कूली शिक्षा के परातन पर बहस नहीं होती , होती है तो दबी जबान में . और उसके बाज़ारीकरण पर भी हमें ऐतराज नहीं है . नहीं हुआ .


बाज़ार में प्रतियोगी अन्य प्रतियोगियों के प्रवेश को रोकने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाते हैं . जिन्हें प्रबंध शास्त्र की सभ्य भाषा में "प्रवेश अवरोध " कहते हैं या प्रवेश मार्ग में रोड़े अटकाना कहते हैं बाज़ार में यह परिलक्षित होता है परिव्रार की पृष्टभूमि पर आधारित प्रवेश के अघोषित नियमावलियों , माता पिता की शैक्षिक पृष्टभूमि , एक विशेष भाषा का ज्ञान या अज्ञान , पाठ्यक्रम के इतर पुस्तकों का क्रय करने का मूल्य , गणवेश का मूल्य , बस की फ़ीस , अतिरिक्त कक्षाओं की फ़ीस , पाठ्यक्रम से इतर गतिविधियों की फ़ीस , सरस्वतीपूजा या क्रिसमस मेले के लिए चंदा उगाहने की क्षमता इत्यादि . अब इसमें वातानुकूलित कक्षागृह शामिल हुए हैं जो पहले पहाड़ों में बनाये विद्यालयों का नया प्रतिरूप है. आखिर अभिजात्य वर्ग की स्कूली शिक्षा हमेशा से अभिजात्य रही है . पहले भी जहाँ सुदामा – कृष्ण के एक ही गुरुकूल में पढाने के दृष्टान्त हैं वहीँ एकलव्य की शिक्षा पर लगे अवरोध या द्रोणाचार्य द्वारा राजकुलों तक शिक्षा सीमित रखने के दृष्टान्त हैं . कॉन्वेंट की तर्ज़ पर अंग्रेजी भाषा में शिक्षित वर्ग की बढती आर्थिक सामाजिक वर्चस्वता को देख वैसे ही विद्यालय खुलने और उसमे प्रवेश की होड़. पहले सिफारिश , फिर चंदा , फिर दान , अब स्वीकार्य होने पर भारी शुल्क . साथ ही साथ भाषाई राजनीती के चलते सरकारी / म्युनिसिपल स्कूलों में छात्र घटने लगे . इनमे अध्यापकों की नियुक्ति राजनैतिक प्रश्रयता या मानदेय से होने लगी . इन कारणों से नौकरी पाने वाले दूरस्थ स्थलों पर जाने से परहेज करते हैं . पहले वो बदली-शिक्षक रखते थे . फिर महीने में वेतन वाले दिन जाना . फिर छमाही में जाना . स्वाभाविक है जहाँ अध्यापक ही विद्यालयों और कक्षाओं से अनुपस्थित हों छात्र कैसे और क्योंकर उपस्थित रहते . शरद जोशी ने मध्य प्रदेश राज्य की रजत जयंती पर हमारा मध्य प्रदेश उर्फ नयी मध्यप्रदेश गाइड में लिखा था


"शिक्षक हो जाना हमारे राज्य का प्रिय व्यवसाय है कहीं नौकरी न मिले तो लोग शिक्षक हो जाते हैं . मिल जाए तो पत्नी को शिक्षिका बना देते हैं हमारे यहाँ दुल्हा-दुल्हन सुहागरात को भी एजुकेशन डिपार्टमेंट के बारे में बातें करते हैं ."


शरद जोशी व्यंग लेखक थे . तबादले , नियुक्ति , पाठ्यपुस्तकों की खरीदी , प्रकाशन , उनका लेखन , पाठ्यपुस्तकों में गद्य-पद्य का शामिल होना , दोपहर का भोजन , बनाना , परोसना , और डकारना . धीरे धीरे सरकारी शिक्षा में इन सब का निचोडना / दोहन.  राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों और शैक्षिक जगत के महानुभावों ने शिक्षा को आंकड़ों और कागजी खानापूर्ति तक ला खड़ा कर दिया . सरकारी शिक्षा अन्य सरकारी पराक्रमों की तरह रुग्ण या बीमार उपक्रम बनकर रह गयी . यहाँ से छात्र और शिक्षा अपना पल्लू झाड चुकें हैं . स्कूली शिक्षा का पूर्णतया बाज़ारीकरण हो गया है . स्कूली शिक्षा जो बची है वह पूर्णतया निजी क्षेत्र में  है .या केंद्रीय विद्यालयों के रूप में जो एक वर्ग विशेष के लिए पूर्णतया अनुदान आधारित है . रसोई गैस की तर्ज़ पर . सरकारी स्कूलों के ढह गए अवशेषों पर राजनीतिज्ञ, नौकरशाह , समाजशास्त्री , बुद्धिजीवी , संचार – माध्यम, प्रबुद्धजन नहीं बोलता क्योंकि वह उस बाजार से बाहर आ चुका है . परित्यक्त बाज़ार इनकी चिंता नहीं है . इस युद्ध में इससे ज्यादा कारगर "प्रवेश अवरोध " (Entry-Barriers) ईजाद नहीं हो सकते शायद .


आगे हम देख चुके हैं की किस तरह स्कूली शिक्षा उच्चशिक्षा में प्रवेश के लिए युद्ध की तैयारी मात्र होकर रह गयी है . एक शिशु के सर्वांगीण विकास और एक सबल नागरिक के रूप में विकास के सामाजिक उद्देश्यों से परे . इनकी पूर्ती भी होती होगी पर यह प्रमुख उद्देश्य न होकर गौण रह गया सा लगता है . यह स्कूली शिक्षा का उपफल (By-product) है . वर्त्तमान स्कूली शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य परीक्षा , परीक्षा के अंक , परिणाम तालिका में स्थान और एकमेव येनकेनप्रकारेण प्रवेश परीक्षा की तैय्यारी , प्रवेश परीक्षा में अंक , परिणाम तालिका में  अंक या योग्यता सूची में स्थान , और जिसकी परमप्राप्ति वांछित वर्गीकृत जगह में प्रवेश है . सीखना – सीखाना, इसमें शामिल नहीं है . सजे सजाये अध्याय , मानक प्रश्न, मानक उत्तर , मानक अंक , मानक परिणाम. कुछ भी आडा-बाँका नहीं , कुछ भी कम – जियादा नहीं . एक एक वाक्य जैसा बोला गया , जैसा लिखाया गया , सिखाया गया , जैसा अपेक्षित है उससे हटकर नहीं . कहीं कोई अतिरिक्त पूर्ण विराम , अर्ध विराम , या प्रश्न चिन्ह नहीं . बाज़ार निर्दयता पूर्वक मानकीकरण या साम्यरूपता को बढ़ावा देता है . मशीनीकरण धीरे धीरे यन्त्र मानव तक पहुँच गया है . यह पुरातनपंथी या प्रागैतिहासिक काल का हस्तशिल्प नहीं जिसमे हर कृति अद्वितीय हो . वैसे आजकल बाज़ार में हस्तरचित या विशिष्ट वस्तुएं बेहिसाब या बेलगाम या नकचढे दामों में ही मिलती हैं . हमारी स्कूल शिक्षा नौनिहालों को यंत्रमानव में परिवर्तित करने में सफल होती जा रही है . ऐसे यन्त्र मानव जिनमे जीवन है . अनुभूति है , संज्ञा है . नहीं है तो कौतूहल, उत्सुकता , जिज्ञासा . जितने भी लेखक , विचारक , चिन्तक , कवि, वैज्ञानिक उभरें हैं वह निश्चित ही किसी दुर्घटना की उपज है . और मानक उत्पाद की मांग ज्यादा होती है . उनका संवेष्टन (packaging) ,प्रबंधन (handling) आसान होता है . उसे जिस बाजार में सबसे ज्यादा दाम मिले बेचा जा सकता है . भेजा जा सकता है . वैसे ऐसे बाज़ार में नक़ल उत्पाद भी आते हैं . एक शिकायत भारतीय समाज में बार बार उठटी  है हमारे यहाँ मूल शोध कम है . हमारे यहाँ शोध में मौलिकता कम है . मौलिक चिंतन कम है . नए विचारों का अभाव है . पर हमने तो शिशु को शैशव काल से ही मौलिक रूप से पढने , प्रश्न खोजने , प्रश्न उठाने , उत्तर खोजने , उत्तर लिखने की पद्धति से परिचित ही नहीं करवाया . जिसने किया उसे प्रोत्साहित नहीं किया . जिज्ञासा, कौतूहल की जहाँ भी प्रव्रृति दिखी उसे कुचल डाला . ठोकपीट कर थोक में मानक प्रश्नों , मानक उत्तरों , मानक अंकों के सांचे में ढाल दिया . स्कूली शिक्षा का बाजारीकरण पूरा हुआ . ग्राहक और खरीदार तैयार . ठप्पा भी लग गया ( Branding). बहुत से लोग इसमें आ रहे हैं – भारती मित्तल - एयरटेल वाले , शिव नादार – एच सी एल वाले . इसके अलावा प्रचार माध्यम समूह से भास्कर समूह जैसे . अलग अलग प्रदेशों में अलग अलग पैमाने पर सब अलग अलग उद्देश्य लेकर कूद पड़े हैं . खरीदार तैयार हैं . विभिन्न कीमत के अलग अलग उत्पादों हेतु .


बीच में एक प्रबंध गुरु ने बाज़ार के बारे में एक नयी सोच सामने रखी है . कंपनियों को सलाह दी की बाज़ार में पिरामिड की तलहटी में भी (Bottom of Pyramid) विकास और समृद्धि की संभावनाएं हैं . क्या स्कूली शिक्षा के ऐसे ग्राहकों के लिए बाज़ार कुछ नए उत्पाद तैय्यार करेगा ?

20 जुलाई 2010

कुछ कहना सुनना

उससे मुलाकात की गुंजाइश नहीं रही
फिर शहर में वो नुमाइश नहीं रही .
बिछड़ा हुआ महबूब अचानक मिल गया
खतोकिताबत की फरमाइश नहीं रही .
बेबसी बूढ़े बाप की गबरू जवान बेटा
बात फिर भी की समझाइश नहीं रही .
जिस दोस्ती में बेतकल्लुफी नहीं रही
फिर उस दोस्ती की खवाइश नहीं रही .
हम भाइयों में झगड़ा वैसा नहीं हुआ
अम्बानी- बजाज की पैदाइश नहीं रही .
.

15 जुलाई 2010

शिक्षा एक वस्तु

आजकल शिक्षा को लेकर देश में एक बहस छिड़ी हुई है . नए केंद्रीय शिक्षा मंत्री शिक्षा को लेकर अपने पूर्व मंत्रियों की तुलना में कुछ ज्यादा ही उत्साहित हैं . और उनका विरोध या उनके द्वारा अभिव्यक्त की गयी मंशाओं और उनके द्वारा लाए गए प्रारूपों के विरोध में मुखरित स्वर भी उतने ही उत्साहित हैं .

पहले ही स्पष्ट कर दूँ की मैं इस लेख के शीर्षक के सन्दर्भ में एक वक्तव्य रखना चाहूँगा . हमें यहाँ ज्ञान और शिक्षा को दो अलग अलग संज्ञाओं के रूप में लेना होगा . हम इन्हें अदल बदल कर उपयोग नहीं कर रहे .

वस्तु बाज़ार के कुछ नियम हैं . और उनके प्रति हमारा व्यवहार भी चिरपरिचित है .मसलन , वस्तु बाज़ार में मिलती है . वस्तु खरीदी और बेची जाती है .वस्तु की मांग और आपूर्ति के अनुपात में उसकी कीमत घटती और बढती है . वस्तु को तरह तरह के स्थानों पर ग्राहकों तक पहुँचाया जाता है .

एक ही वस्तु ग्राहक की मांग और क्षमता के अनुरूप बाज़ार में अलग अलग तरह से डिब्बाबंदी की जाती है . वस्तुओं का प्रचार किया जाता है . और एक तरह के ब्रांड या मार्का की मांग बढ़ने पर उसे स्वयं या फ़्रैन्चाइजी के माध्यम से अन्यत्र पहुँचाया जाता है . वितरण और सुपुर्दगी भी वस्तु बाज़ार का हिस्सा हैं . और प्रचार प्रसार भी . मनुष्य वस्तु को अपनी जरुरत और क्षमता के अनुसार खरीदता है . वस्तु उपहार और लेनदेन के काम भी आती है .

वस्तुओं के दो प्रकार हैं . एक जिनको हम बाह्य रख कर उपयोग करतें हैं मसलन घर , गाड़ी , उपकरण आदि , और वो जिन्हें हम आत्म्य कर उपयोग करतें हैं .  जैसे भोजन , फल इत्यादि. शिक्षा दूसरी श्रेणी में रखी जा सकती है एक अपवाद के साथ, की बाह्य रहने तक भी यह वर्त्तमान में हस्तांतरणीय नहीं है .भोजन की तरह .

जब भी हम वस्तु की बात करतें है तब हमारे जेहन में इनके उत्पादक , उत्पादक संस्थानों , उनके प्रकार और स्वामित्व , लागत, बाज़ार नियमों , मानकों के विचार भी आतें हैं . और बाज़ार का उल्लेख होते ही बाज़ार के खण्डीकरण और वर्चस्व का उल्लेख भी जरूरी हो जायेगा . वस्तु के प्रचार प्रसार , और उनसे जुड़े अन्य व्यवसायों का जिक्र भी स्वाभाविक होगा .

पर वस्तु और बाज़ार का उद्गम यहाँ नहीं . वह समाज , मनुष्य की प्राथमिकताओं , संसाधनों , और सबसे ऊपर मनुष्य की इच्छा , जरूरत , और चाह पर निर्भर होता है . जिसका जितना आकार उसका उतना बाज़ार . हम चीजें क्रय करतें हैं , मूल्य निर्धारित करतें हैं इस बिना पर की उससे हमारी कितनी उपयोगिता सिद्ध होगी . और जो शेर की सवारी नहीं कर सकता वह शेर भी नहीं खरीदता . आखिर शेर की उपयोगिता सवारी के लिए नहीं है जो .

ज्ञान के और शिक्षा के सन्दर्भ में बहस की बहुत गुंजाईश है . और इसका विन्यास बहुत बड़ा . अतैव मैं यह पूरी बहस इस बिना पर ले रहा हूँ की शिक्षा ज्ञान से अलग है . ज्ञान सार्वभौमिक सम्पदा है . वायु , जल की तरह . पर अगर वह जिस रूप में हम ग्रहण कर सकतें हैं उस रूप में चाहिए तो उसे उस रूप में उपलब्ध कराने का बाज़ार स्वयं निर्मित हो जायेगा . और ज्ञान शिक्षा रूपी वस्तु के रूप में हमारे सामने होता है . ज्ञान का उपयोग उसके संचयन , व्यवस्थापन , प्रस्तुतीकरण , हस्तांतरण , और उसकी स्वीकृति पर टिका है . अगर हम ज्ञान का अर्जन करें और ज्ञान में वृद्धि करें तो वह जितनी हमारी सम्पत्ति है उतनी ही सार्वभौमिक . नए ज्ञान का सृजन पूर्वपुरुषों द्वारा संचयित और उपलब्ध समस्त ज्ञान के कारण है प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष. यहाँ पूर्वपुरुषों से तात्पर्य समस्त मानवजाति से है . पर विगत वर्षों में हम कुछ संबंधों में बौध्दिक सम्पदा की नयी शब्दावली से परिचित हो रहें हैं . इस पर भी बहस की गुंजाईश है , और करेंगे भी .

उपनिषद में एक सूत्र पढ़ा था , मर्म समझा या नहीं , नहीं मालूम पर उसे उद्धृत करने की इच्छा बहुत दिन से दबी है . और लोभ संवरण नहीं होता . अगर विषयान्तर भी हो तो ध्यान दें –

अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते . ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाँ रताः

शब्दशः अनुवाद होगा - गहरे अंधकार में प्रवेश करते हैं वे जो अविद्या की उपासना करतें हैं . और उससे भी गहरे अंधकार में प्रवेश करतें हैं विद्या में रत हैं जो .

सम्प्रति हम ज्ञान - शिक्षा, आंकड़ा - सूचना की बहस से बचेंगे और अपने विषय पर आगे बढतें हैं . (क्रमशः)

13 जुलाई 2010

एक सुबह अलसाई

रात जब सोया था
बहुत रोया था
अपना बचपन , अपना सपना
कितना सुन्दर कितना सलोना
दिन भर खेलना
गली - मोहल्ले
दौड़ा - पकड़ी
लुका छिपी
आँखे मींचे
बुझ बुझव्वल
हाथा पाई
गिल्ली डंडा
तोडा घर के अहाते का बल्ब
सुनी हजारों गालियाँ तल्ख़
खेला पत्थरों और गेंद से पिठ्ठू
पढ़ाया हर पाठ मियां मिठ्ठू
भांजे मुगदर पेले डंड
सुना लड़का बहुत ढीठ - उद्दंड .
और मेरी बिटिया रानी
थकी-हारी लौटे
भागम भाग  
छुट जाये जीवन
ना छूटे बस
दौड़ते हुए जाना
चूजों का खाना
बहुत सारे पचड़े बहुत सारे पेंच
पढना पढ़ाना अब गोरखधंधा
यह कैसा फंदा ?
चूहों की दौड़
बड़ी रेलमपेल
टयूशन की धकम पेल.
और मैं सोचता था
एक अलसाई सुबह
जब छाती पै बैठी
मेरी बिटिया रानी
मुझको जगाती
"नहीं चलेगा आज कोई बहाना
चलो जल्दी उठो
पकड़नी हैं तितलियाँ हमको है जाना "
हमारे हिस्से क्यों नहीं आई ?
एक सुबह अलसाई .
रात जब सोया था
बहुत रोया था .

8 जुलाई 2010

सतरंगी रे

नवीन किसलय कुञ्ज में 
वसंत बांसुरी की गूँज में 
विहंग कलरव , भ्रमर राग 
आरती माधुर्य स्वर-पुंज में  
गाओ राग 
जैजैवंती रे !
मनरंगी रे !!  
शंख स्वर , घंट निनाद बाजे
बाजे मृदंग , खर-ताल बाजे   
कर-ताल सुन , ओंकार धुन 
नाचे मयूर पंख पसार साजे
जैसे कोई 
सतरंगी रे !
मनरंगी रे !! 
कमर करधनी , चली मोरे अंगना
हाथों में मेहंदी , अली मोरे अंगना
कानों में झुमका , पाजेब खनका , 

धानी चुनर ,  हाथों में कंगना
बाजे चूड़ियाँ
पचरंगी रे !
मनरंगी रे !!

कतरनें ,चिन्दियाँ , पैबंद

रीती खाली जगह भरने 
जमा की कतरनें 
टूट न जाये भंगुर 
नाजुक ह्रदय 
यात्रा की आपाधापी में .
तार-तार हुए 
संबंधों की चिन्दियाँ 
बन गयी गाठें 
घावों की मरहमपट्टी में .
छिद्र-छिद्र आकाश पै
बादलों के पैबंद 
नहीं रोक सके 
अन्दर का बांध
मन भींग गया 
बूंदा-बांदी में . 

7 जुलाई 2010

नहीं आज कोई कविता नहीं

यमुना के आँचल पर  
चाँद का थिरकता नाच 
देखने दो 
मत रोको .
घास पर लेटा हुआ 
पेड़ों के झुरमुटों  से
चेहरे तक आता सूर्य का ताप 
या रश्मियों से बनी स्वर्ग की सीढियां ?
रात टिमटिमाते तारों में 
याद के पंछी 
या जुगनुओं की बारात ?
ओस से नहायी 
भीगी कलियों का स्पर्श 
या छू गया खिलखिलाता चेहरा तुम्हारा  ?
नहीं आज नहीं 
चाय का प्याला ,
सुबह का अखब़ार,
ना ही झोला लिए 
सुबह सुबह
रसोई के लिए बाज़ार.
नहीं आज कोई कविता नहीं .

6 जुलाई 2010

इसका कोई शीर्षक नहीं है

मेरे बचपन में 
अमरुद , बेर , जामुन , खीरा.
फालसा , केला , ककड़ी, शहतूत 
और करोंदे की चटनी 
आम थे .
और फलों का राजा था आम .
जब गुजरती थी ट्रेन इलाहाबाद से 
भर जाती महक 
मीठे खरबूजों की 
नासिकाओं में 
और लुभाता मीठा चहकता 
लाल अमरुद .
याद है लखनऊ के बेगम की उँगलियों सी ककड़ी 
तब भी फलों का राजा था आम .
चूसकर खाते और फेंकते 
गुठलियाँ मंदिर के बाग़
की जब निकलेगी कोपलें 
उनके सीपियों से खुले मुख में   
फूँक कर बजायेंगे सीटियाँ .
अब ब्रांडेड हो गया सेव 
बिकता है पैबंद 
दशहरी , लंगड़ा , तोतापरी , चौसा आम   
चाक चौबंद 
अल्फ़ान्सो होकर .
और दे रहा चुनौती अमरुद 
चालीस पचास किलो .
और मैं सोचता हूँ 
छोटे क्या खायेगा ?
जो अब भी वहीँ रह गया है 
उसी भूगोल में .
जबकि लड़झगड़ अमरुद ने अपनी जगह बना ली है 
बिकता है " बरुईपुर का पेयारा  "
अपनी पहचान के साथ 
चालीस पचास किलो 
छोटे की पहुँच के बाहर 
आम के समकक्ष .
और कौन कहेगा 
आम अब भी फलों का राजा है .
(बरुईपुर का पेयारा - कलकत्ते में बिकने वाला बरुइपुर नाम की जगह का अमरुद जिसे बंगाल में पेयारा कहते हैं )

सृजन का अंत - प्रत्याहार

सुना है
एक दिन
आएगी प्रलय , होगी क़यामत
अंत होगा जीवन .
अभी तो विस्तारमय है  ब्रह्मांड
फैलता ही जा रहा है
नए नए सूर्य , ग्रह , नक्षत्र , निहारिकायें
ले रहे हैं जन्म
और एक शिशु .
और कहीं
तिमिर छिद्र
तमस गर्भ
लील रहा है सब कुछ .
एक असीम विस्फोट से शुरू हुई सृष्टी
वैज्ञानिक की मानें तो
अंततः
समा जाएगी फिर उस परमाणु में
की जिससे व्युतपत्ति हुए 

आकाशगंगा
और उसमे समाहित असंख्य तारे ,
उनके अनगिनत सौरमंडल
और उनके अनेकानेक ग्रह , उपग्रह .  

जिनमे सैकड़ों पर हो सकता है जीवन
जिसमे शामिल है धरा
और उस पर विस्थापित
हजारों लाखों योनियों में जीवन
जिसकी एक प्रजाति मानव
और उन करोड़ों मानवों में मैं
साठ-सत्तर वर्ष का लेकर समय .
जो कालगति में शायद
पल का है सहस्त्रवाँ हिस्सा .
अगर यह सच है
तो मेरी रचनाएँ
मेरा परिवार
मेरा संसार
मेरे शत्रु , मेरे मित्र
सब कालजयी हैं .
मेरे काल से परे
हमारे काल से परे
असीम विस्फोट के उस परमाणु
जिसका हूँ अंश मैं
और मेरे हिस्से का ये आसमान .
और तब लगता है
विस्फोट के उस पल से शुरू हुई यह यात्रा
यह विस्तार
होगा जिसका महाप्रयाण
फिर उसी परमाणु में.

और मैं मूरख सोचता था
अपने अहंकार में
मैं उस अणु से अलग हूँ
उस परमाणु से अभिन्न .

जबकि मैं कभी उससे बाहर था ही नहीं
शून्य में था
पर उसके ही विस्तार में
निस्तार मैं.
जब नहीं रही संज्ञा
जब हुई प्रतिपादित हर क्रिया
और मैं स्वयंभू हो गया सर्वनाम , विशेषण .
तब भी मेरा व्याकरण
प्रत्यय उपसर्ग समास
उससे अलग नहीं था
तब भी नहीं
जब समस्त संधियों के साथ
मैं विलोम में लटका था .
मेरे सारे छंद  , मुहावरे , अलंकार
और मेरी व्युत्पन्नमति
रचनाएँ
और मेरे हिस्से का वो आसमान
जितने मेरे हैं
उतने ही तुम्हारे हैं .
क्योंकि हम नहीं जुड़े
किसी नियोग से
या संयोग से
हम जुड़े हैं उत्पत्ति से
अनादि से  
अनंत से
और जुड़े रहेंगे -
प्रारंभ से
अंत से .

यही है प्रत्याहार .
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