31 मई 2011

शब्द सारथी थे

मैंने  हमेशा शब्दों को अहमियत दी 
अंकों को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया 
जोड़ना घटाना
अंको का पहाड़ा
गुणा भाग , सबने 
मुझे हमेशा पछाड़ा 
वो तीन तेरह करता रहा 
मैं नौ दो ग्यारह हो गया 
अंक में बच्चा 
हिसाब में कच्चा 
बीजगणित सोचता
कृषि विज्ञान है 
और रेखा से कौन अनजान है 
शब्द तो सावन भादों 
बाग़ बगीचों 
बाज़ार ले जाते रहे 
हम उँगलियों से जुल्फ सहराते रहे 
लोग गिनते गए 
हम अलंकार मात्रा और छंद पीते गए 
शब्द यहाँ वहां बिखरे थे 
उन्हें आँखों में पढ़ा 
चेहरे पै गढ़ा
हाथों से थामा
पलकों से जिया 
दिल से तलाशा 
गढ़नी थी भाषा 
अनकहा लिखना था 
बिन लिखा पढना था 
मौन को नापना था 
कितना कुछ बांटना था 
शब्द सारथी थे 
कल्पना के रथ की लगाम थामे 
डटे थे कुरुक्षेत्र  में 
गिनना था युद्ध के पश्चात
दोनों पक्षों के क्षत विक्षत शरीर 
क्रंदन , करुणा, अवसाद 
ईश्वर का गणित समझना 
हमसे इतर था 
या था शून्य या 
सूक्ष्म से सूक्ष्म
अनंत से अनंत 
हमारी पहुँच से परे 
शब्द हमारी जेब में पड़े सिक्के थे 
जब चाहा निकाला,  खेला , उछाला 
असली या खोटा
अर्थ हमारा मितर था
जितना हमारे  बाहर था 
उतना भीतर था .
मुझे तुम्हारा नाम याद है 
तुम्हारा नम्बर - पता नहीं ?
वैसे तुम आदमी हो या मकान हो ?

26 मई 2011

गुड मॉर्निंग

अभी अभी
नभ में टूटा कोई तारा
हमने नहीं देखा
नदी के तट पर
हर शाम की तरह
खुद का प्रतिबिम्ब निहारता
अपार जल-राशि पर अपनी लालिमा बिखेरते हुए डूबा सूरज
घाट पर पानी में अठखेलियाँ करती होंगी मछलियाँ
पंछी चहकते हुए अपने घरौंदों को लौट चुके होंगे
माँ ने संभाल ली होगी रसोई
श्रीनाथ जी के मंदिर में संध्या हो गयी
और हो जायेगा शयन
दूकान बंद कर बनिया घर लौट जायेगा
बंद हो जायेंगे रौशनी में जगमगाते शो रूम
चुंधियाते बल्बों में खड़े सजे पुतले थक कर सो जायेंगे
सारा दिन दौड़ती बस थक हार कर पस्त हो लौटेगी डिपो में
बिटिया सो कर उठेगी
सजेगी
कुछ खा कर निकल जायेगी
शहर की उन्धियाती रौशनी में सरपट भागती कार
ले जायेगी उसे
पहुँच कर बैठेगी काल सेंटर में
उठायेगी फ़ोन
और आधी रात में मधुर आवाज़ में बोलेगी
'गुड मॉर्निंग '
'में आई हेल्प यू ?'

11 मई 2011

एक स्वीकारोक्ति

बहुत वर्ष लेखन और रचना प्रक्रिया से अलग रहने के बाद जो भी दिमाग में आता है लिख जाता हूँ . पाठक इस अनर्गल प्रलाप को बर्दाश्त कर रहें हैं . सुखद अनुभूति है .
पर  प्रक्रिया  है मस्तिष्क को फिर सान पे चढाने जैसी .और उससे भी ज्यादा चीजों को अलग से देखने की प्रवृत्ति वापस पैदा करना. वर्त्तमान में इस से गुजर रहा हूँ . अपने आप से रेस में दौड़ने जैसा कुछ कुछ .लय वापस पाने की  मंशा है . यात्रा उसके बाद शुरू होगी . आशा है आपका साथ रहेगा .

9 मई 2011

रिमोट कंट्रोल

जब  जगह  थी  ज्यादा 
लोग कम थे 
आपस में बतियाते 
सुख दुःख साझे 
घर की छत से छत लगी थी 
आँगन चबूतरा रोशनदान अहाता 
मिलने की हज़ार जगह बनी थी 
कोई किसी भी चारपाई सो जाता 
तब भी भरी पूरी नींद होती  
जब आसपास कितना कुछ हो जाता 
पाँव लम्बा फैलाता
पसरा सन्नाटा .
दूर बजती बांसुरी की सुन पड़ती तान 
आती हवाओं पर सवार लहरियाँ
भजनों में राधा के सावरियां
कंठों में वृन्दावन गान .
अल्लसुबह उठ जाता 
भिनसारे सूरज से बतियाता  
कार्तिक माघ नहाता 
मुंह अंधियारे जाता
सरसों में नहाया बदन 
बूंदों में झिलमिलाता .
कच्चे आम की केरी 
गन्ने की आँक से दातों की रणभेरी 
बाल्टी भर भींगे आमों की ढेरी 
चूसते  चूसाते  दोपहरी 
कुरवा भर झागवाला मक्खन मलाई 
गुलाबी रेवड़ी गरम नान -खटाई.
समय अंतराल हुआ 
शहर विकराल हुआ 
कबूतरबाज कबूतर खानों में रहते हैं 
पड़ोसी की नामपट्टिका पढ़ते हैं
गौधूलीबेला क्रॉसिंग पै लाल बत्ती चेहरा है 
भीड़ है अकेला है 
गौरेया नर्सरी किताबों में फुदकती है 
जिन्दगी यूँ ही रूप बदलती है .
पैकेट से निकलती है बनी बनाई रसोई 
भुने हुए भुट्टों की कॉर्न सी साफगोई.
देर से उठता हूँ 
कोयल की कूक नहीं  
शहर अब मूक नहीं 
अलार्म बजाता है 
सपना डर जाता है .
सूरज की धूप नहीं 
एयरकंडीशंड कमरों में 
एलईडी रोशनी है 
दुनिया बयालीस ईंच की एलसीडी में सिमटी है 
जीवन एक चलती फिरती धारावाहिक में तब्दील 
झुण्ड के झुण्ड आकाश अबाबील 
संपर्कों की क्षीण डोर 
सब कुछ रिमोट कंट्रोल . 

कविता प्रतिमा नहीं

(भूमिका परिचय - कक्षा - बारह / विषय - हिंदी साहित्य / स्कूल - केंद्रीय विद्यालय / पी जी टी हिन्दी - चमनलाल मास्साब / शहर - राजकोट / भोपाल / अंक - ७६ प्रतिशत )

उनका आग्रह था 
व्याकरण ठीक हो 
भाषा की दुर्बलता 
शब्दों का गलत चयन 
मात्रा की कमजोरी 
देर सबेर सुधरेगी .
संधि अलंकार सारे 
तत्सम समास सारे
भूत वर्त्तमान काल 
आत्मसात कर लिए 
सब तूणीर धर लिए .
पुस्तकालय की पुस्तकें पढ़ीं
कवितायें , निबंध , कहानियाँ , नाटक , उपन्यास 
सब प्रतिश्रुति , भंगिमाएं , दृष्टि , विवेचना 
संस्कृति के सारे स्तम्भ 
सारे रस सारे रंग .
कवि सम्मेलन, मुशायरा 
दाद, उस्ताद , वाह वाह करा 
बहस मुबाहिसे से गुजरा 
सब कुछ धरा .
हथियार बेधार के 
शब्द उधार के 
इधर उधर घुमाता 
उधेड़बुन भुनाता 
अलाव में तपाता
कच्ची मिट्टी का घड़ा
कब भरा ?
अलकनंदा - भागीरथी की क्षीण धाराएँ 
स्वर्ग से उतारी गंगा हो जाएँ 
गंगोत्री से मुहाने तक   
एक यात्रा कितने पड़ाव 
धोएं भागीरथ के सहस्त्र पुरखों के  घाव
तरणतारिणी गंगा शब्द नहीं सृष्टी है 
जीवन दर्शन  दृष्टी है 
बाहिर है  भीतर है 
भाषा संवाद है 
हंसी है रुदन है मिठास है 
श्रृंगार है तंज है विषाद है 
जुड़ना सिर्फ मिलन नहीं अभिव्यक्ती है 
कविता प्रतिमा नहीं जिवीत व्यक्ति है .
हिंदी का अध्यापक व्याकरण पढ़ाता
बस जुड़ना नहीं सिखाता .
नहीं है चमनलाल मास्साब की कोई आलोचना 
इतनी बार गुजरा 
आँखों में नहीं उतरा 
इलाहाबाद के पथ पर 
उसका पत्थर तोड़ना . 
अब तक सवाली हूँ 
भीतर से खाली हूँ .

बहुत बात हुई

एक  अजनबी से मुलाकात हुई
बहुत बात हुई .
देश दुनिया की 
घर द्वार की 
ख़बर अखब़ार की 
बूढ़े लाचार की 
अपंग की लाठी की 
पहलवान की काठी की 
बन्नो की भाभी की 
बब्बन की शादी की 
बातों ही बातों में 
आधी रात हुई 
बहुत बात हुई .
घटते बाघों पर 
विलुप्त रागों पर 
राजनैतिक परिवेश पर 
चिंदी गणवेश पर 
बढ़ती चर्बी पर 
दुनिया की गर्मी पर
मिल के सेंकी रोटियाँ 
चिकनी चुपड़ी बतियाँ
जबान बदजात हुई 
बहुत बात हुई .
अपने अखाड़ों  को 
राजनैतिक बाड़ों को 
धारणाओं, पक्षपातों को 
कपट , ग्रंथियाँ, गाठों को 
कितना भरा , कितना पाटा
अटका रहा सन्नाटा 
मन कहाँ निष्पक्ष था 
पक्ष प्रतिपक्ष था 
अन्तःघात हुई 
बहुत बात हुई .
अजनबी शहर में रहता हूँ 
परदेशी हूँ खलता हूँ 
भाषा बोली अपनाकर 
उनके जैसा खाकर 
दिल फिर भी डरता है 
मन में कुछ पलता है 
प्रतिकूल परिवेश में कौन फला है 
मौसम जब भी बदला है 
दुर्घटना अकस्मात हुई 
बहुत बात हुई . 

4 मई 2011

कर्सर की तरह

चंद शब्द 
या लिख पूरा महाकाव्य 
नहीं भर सका उसके जाने से उपजी रिक्तता 
आया ठहराव 
बुद्धू बॉक्स के सामने बैठकर 
चैनल बदलता रहा 
सड़क पर निरुद्देश्य चलता रहा 
हाथों में किताब ले पलटे पन्ने 
कभी इस कभी उस कमरे बैठा 
उस पर सिगरेट का टोटा
बस एक दो गहरा कश  धुएँ का छल्ला 
जाने - अनजाने लोगों का  घुमाया नम्बर
बिना बादलों के सूना ज्यों  ज्येष्ठ का अम्बर 
पानी पीकर फेंका नारियल 
लुढ़कता रहा कभी ईधर कभी उधर 
वैसा ही खाली 
चाय की दुकान  सामने की बेंच 
बैठक नहीं लेती  चुस्की नहीं देती 
आवारा दोस्तों के साथ आवारा नहीं होता 
हिंदी सिनेमा देख कर नहीं रोता 
अखबार में छपी बुरी खबरें नहीं रुलाती
चुटकलों पर  हंसी नहीं आती 
सिनेमा के पोस्टरों में ढूँढता हूँ 
पुरानी धुन में गुनगुनाता हूँ 
किसी कविता की भूली पंक्तियों  सा
चाह कर भी याद नहीं आती 
पेड़ से बिछड  कर हवा में उड़ गयी जर्द पाती
आईने से उसके चेहरे की मानिंद 
बादलों की स्याही की चादर में लिपटा शहर
एक अँधेरा कुआं जिसने मुझे छुआ 
संवाद मौन हो गया 
अचानक सहसा किसी साजिश जैसा 
परिचित, कौन ? हो गया
नंगा खाली बिस्तर जिससे किसी ने उतार ली चादर 
और बाल्कनी में टांग आया नुमाईश के लिए 
बासी खबरों के ताज़ा अखबार की तरह 
कीबोर्ड पर पागलों की तरह पटकता उंगलियाँ 
एक के बाद एक नाम दिया 
खर्च कर डाले सारे तखल्लुस 
सारी रात तकता रहा टकटकी बांधे
स्क्रीन से नहीं निकला  कोई
ना कोई तारा , न सितारा , न साया , न छाया 
न अकेले  न जुलूस  
सार्वभौमिक सत्ता इन्टरनेट की व्याप्ति 
मेरे खाली कमरे में सिकुड़ गयी 
यथार्थ सामने खड़ा था 
और मैं अकेला था 
चौबीस इंच के आयत पर बेबस 
कर्सर की तरह तिलमिलाता
अगली कुंजी के दबाव के इंतज़ार में |

2 मई 2011

द्रोणाचार्य-एकलव्य सम्बन्ध

द्रोणाचार्य-एकलव्य सम्बन्ध क्या मात्र एक अँगुष्ठ 
वटवृक्ष की छाया या सूखे पेड़ का ठूंठ
कहाँ अब नचिकेता के यम प्रश्नों का उद्गम 
शिक्षा ज्ञानपिपासु को थमाया ध्रुव-तत्त्वं
सत्य की खोज है प्रश्नों से परे
क्यों वशिष्ठ जिज्ञासा से डरे-डरे
विज्ञान तर्क से परे धर्मग्रंथों में तबदील
निंदा से परे वैज्ञानिक अब नयी तफ़सील
पढ़ना –पढाना नाटक , शिक्षण अभिनय , पात्र
पाठ पटकथा , संवाद , रट लें ज़ुबानी छात्र
अनुसंधान पेशा नहीं , पदनाम , उपाधि
या वर्णसंकर सत्य की नई प्रजाति ?
शिक्षाविद ज्ञान-मंदिरों के नव-ब्राह्मण मठाधीश
विषय जहाँ नये वर्ण हैं , कुछ सवर्ण , कुछ दलित
स्वयंभू स्थापित विशेषज्ञ / निपुण अधिष्ठाता
सार्वजनिक फसलों पर कुंडली मारे जमींदार विधाता
‘अहं ब्रह्मास्मि ‘ दर्शन नही , एक अहं उच्चारण ,
खेतों को खा गयी मेड़ , येन-केन-प्रकारेण
क्यों नववर्ष कैलेंडरों पर घूम-फिर कर वही चंद मूर्तियां
जब हाथों में हर पल नई कॉलर टयून और छवियाँ
मंडनमिश्र और शंकराचार्य के शास्त्रार्थ की कहानी का तोता
पूज –पूज कर वर्ष दर वर्ष हर पत्थर शिव नहीं होता
बन्द कमरों में कैद घूर्णी-धर बुर्जुआ बासी हवा
खोल दो खिड़कियाँ , आने दो ताजी हवा ||

सच कहाँ खड़ा है

सच कितना बड़ा है
सच कहाँ खड़ा है || 

वो मेरा पड़ोसी है ?
दुनिया क्या इतनी छोटी है ?
किसके मुंह की बोटी है
वो क्या सिर्फ रोजी – रोटी है ?
दादी माँ माला के मनकों में पिरोती है
माँ इसे आसुओं में बहाती है
दुनिया गंगा में नहाती है
वो क्या इतना पक्षपाती है ?
वो क्या हमारे जजबातों में है
वो क्या बही-खातों में है
वो क्या मोमबत्ती की रोशनी में है
जो इंडिया गेट पर हाथों में है
वो काले लबादो में छुपा है
वो क्या बारीकियों-बातों में है
वो क्या इबारतो आयतों में है
वो क्या हमारी रवायतो में है
वो मुझसे कहाँ बिछड़ा था
क्या अब भी किसी मोड़ पर खड़ा था ||
वो क्या किसी मॉल में बिकाऊ है
वो क्या भाषणों में उबाऊ है
वो हमारे अखबारों में छपा है
वो किस लिफाफे का पता है
वो किसके चेहरे का हिजाब है
वो कैसा मुखौटा है
वो किसका नकाब है
वो क्या चेहरे पर फेंका तेजाब है
मेरी निगाहों नें जिसे ढूंढा है
वो जवान है या बूढ़ा है
सच कितना बड़ा है
सच कहाँ  खड़ा है ||
बुद्ध के निर्वाण का पड़ाव
गांव के चौबारे का अलाव
वो क्या अदालतों के अहातो में बिक गया
वो सभाओ , नारों, भाषणों में छिप गया
वो सड़ा गेहूँ  चावल था
या गरीब का निवाला था
वो किसकी गाढ़ी कमाई थी
किसकी नौकरी के लिए हवाला था
कला क्या सृजनात्मक अभिव्यक्ति है
या सिर्फ हमारी संवेदनाएं रीतीं हैं
भेडियो के लिए भेड़ की एक खाल है
या दोहरी चरित्रता की नयी कोई चाल है
अमरनाथ की यात्रा की कठिनाई
या एवरेस्ट की ऊँची चढाई
चेतना की सामूहिक अभिव्यक्ति
या अवनति की अंधेरी खाई
जब सारा जगत बिकाऊ है
वो क्यों इतना अकड़ा-अकड़ा है
सच कितना बड़ा है
सच कहाँ खड़ा है ||
किसी के समर्थन में लिखा अपरोक्ष संपादकीय / विश्लेषण
या किसी विषय का निरपेक्ष अंकेक्षण
सत्ता के गलियारे में सत्य की खोज
या सुविधाभोगी की तैयार उपजाऊ संपर्कों की फौज
सत्य की खोज में जुटी निर्भीक पत्रकारिता
या अपने राजनैतिक विश्वासों की छदम-चरित्रता
किसी औद्योगिकी घराने की सुविधाओं का प्रतिदेय
या किसी भौगोलिक सत्ता की प्रतिश्रुति का उपादेय
अगर हमाम में सब नंगे हैं
तो क्यों कपड़ों का झगड़ा है ||
सच कितना बड़ा है
सच कहाँ खड़ा है ??
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...