बचपन में दादी के किस्से-कहानियाँ
माँ की लोरियाँ
रेडियो पर बजती चैती , कजरी
सरसों की मालिश , छत की धूप
धूत - अवधूत
पर नींद गहरी
सुनी, गुनी
खाए , फूल गए
भूल गए .
आदर्श नारी
आदर्श बालक
हमारे पूर्वज
सब सहज
पढ़ा , बनारस रहा
स्कूल गए
बाकी सब भूल गए .
कवितायें , कहानियाँ , उपन्यास
उपनिषद , स्मृतियाँ , इतिहास
भाषा , विज्ञान , गणित
विषय मूल , विषय अतिरिक्त
प्रबंधन , वाणिज्य
भौतिकी , जीव , रसायन
अनुक्रमणिका , पाठ , प्राक्कथन
उपसंहार
प्रश्न और उत्तर
और प्रश्न , और उत्तर
व्याकरण , विश्लेषण
संविधान , कानून , मनोविज्ञान
साहित्य और समाज
संस्कृति , व्यंग्य , उपहास
सबने छला
कौन बचा भला
प्रकृति का दोहन
उत्पादन , विपणन
आये सब झंझावात
एक के बाद , एक निष्पात
परीक्षा दर परीक्षा
होती रही समीक्षा
उतीर्ण , अनुतीर्ण
फला , अफला
पादप फला - फूला
ऋतुएँ हुई अवतीर्ण
कभी पादप जीर्ण
नये किसलय , नयी काया
पतझड़ वसंत आया
कोंपलें आती रहीं
ग्रीष्म कुछ ताप लाया
बढ़ती रही शाखा -प्रशाखा
पाताल विस्तृत जड़
नभ प्रसरित चेतन
यौवन का नया राग
गाये विहाग
आये कुछ शूल नये
फिर सब भूल गए .
यहाँ वहाँ घूमा
अँजुरी में ओस ली
माथे पे माटी
झील की शांति
लौ की काँति
समुद्र का गर्जन
भ्रमर का गुंजन
ग्राम कि निस्तब्धता
शहर का कोलाहल
कभी मन शांत स्थिर
कभी वाचाल , पागल
देखा , सुना , गुना , भान , विपान
सब विस्मृत , सब वितान
एक मृगमरीचिका
शब्द है छलावा
पर्त दर पर्त
सत्य हो निर्वस्त्र
ज्ञान का आवरण
सबके मूल गए
फिर सब भूल गए .
माँ की लोरियाँ
रेडियो पर बजती चैती , कजरी
सरसों की मालिश , छत की धूप
धूत - अवधूत
पर नींद गहरी
सुनी, गुनी
खाए , फूल गए
भूल गए .
आदर्श नारी
आदर्श बालक
हमारे पूर्वज
सब सहज
पढ़ा , बनारस रहा
स्कूल गए
बाकी सब भूल गए .
कवितायें , कहानियाँ , उपन्यास
उपनिषद , स्मृतियाँ , इतिहास
भाषा , विज्ञान , गणित
विषय मूल , विषय अतिरिक्त
प्रबंधन , वाणिज्य
भौतिकी , जीव , रसायन
अनुक्रमणिका , पाठ , प्राक्कथन
उपसंहार
प्रश्न और उत्तर
और प्रश्न , और उत्तर
व्याकरण , विश्लेषण
संविधान , कानून , मनोविज्ञान
साहित्य और समाज
संस्कृति , व्यंग्य , उपहास
सबने छला
कौन बचा भला
प्रकृति का दोहन
उत्पादन , विपणन
आये सब झंझावात
एक के बाद , एक निष्पात
परीक्षा दर परीक्षा
होती रही समीक्षा
उतीर्ण , अनुतीर्ण
फला , अफला
पादप फला - फूला
ऋतुएँ हुई अवतीर्ण
कभी पादप जीर्ण
नये किसलय , नयी काया
पतझड़ वसंत आया
कोंपलें आती रहीं
ग्रीष्म कुछ ताप लाया
बढ़ती रही शाखा -प्रशाखा
पाताल विस्तृत जड़
नभ प्रसरित चेतन
यौवन का नया राग
गाये विहाग
आये कुछ शूल नये
फिर सब भूल गए .
यहाँ वहाँ घूमा
अँजुरी में ओस ली
माथे पे माटी
झील की शांति
लौ की काँति
समुद्र का गर्जन
भ्रमर का गुंजन
ग्राम कि निस्तब्धता
शहर का कोलाहल
कभी मन शांत स्थिर
कभी वाचाल , पागल
देखा , सुना , गुना , भान , विपान
सब विस्मृत , सब वितान
एक मृगमरीचिका
शब्द है छलावा
पर्त दर पर्त
सत्य हो निर्वस्त्र
ज्ञान का आवरण
सबके मूल गए
फिर सब भूल गए .
भूलने की शायद परंपरा रही है..
जवाब देंहटाएंसच्ची बात कह रहे हैं सर!
जवाब देंहटाएंहम सब सब कुछ भूल गए हैं।
सादर
बहुत कुछ बदल चुका है अब ,
जवाब देंहटाएंलगता है शब्द भी अर्थ भूल गए !
प्रसन्नता का मूल धुन्धलाती यादों में है।
जवाब देंहटाएंBad memory is necessary ingredient to happiness! :-)
We forgot but these words reminded us. Beautiful:)
जवाब देंहटाएंइस मुक्त शैली का तो मैं कायल हूँ ही , संस्मरणों को शब्दों के हार में पिरोया जाना और भी सुखद है ,अपने आस -पास घटित -अघटित यादों को संजो कर , मुझे भी आपने उन्ही यादों में जोड़ लिया , और हो भी क्यों न , हर पाठक को भी यही एहसास होगा , |
जवाब देंहटाएंठीक ही कहा आपने हम भूल रहे हैं या भूलने की कोशिश कर रहे हैं - परिवेश को , मिट्टी को , शायद स्वयं को भी |
जड़ों को हमने जड़ता का पर्याय समझ मिट्टी से दूर कर दिया - खैर! "मणि - प्लांट" से संतुष्ट हो जाना अब तो आदत हो गयी है ,लेकिन कब तक ......?
सशक्त और प्रभावशाली प्रस्तुती....
जवाब देंहटाएंकल 10/01/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
उम्दा प्रस्तुति ....वक्त दर वक्त सब बदल गया हैं
जवाब देंहटाएंसबके मूल गए
जवाब देंहटाएंफिर सब भूल गए .
बिलकुल सच है...
कितनी सारी बातें और सब भूल गए .. अच्छी प्रवाहमयी रचना
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता
जवाब देंहटाएंkalamdaan.blogspot.com
वाह उत्तम रचना...
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही कहा आपने....हम सब कुछ भूल जाते हैं ....
जवाब देंहटाएंमेरा ब्लॉग पढने के लिए इस लिंक पे आपका सादर स्वागत है........
http://dilkikashmakash.blogspot.com/
बढ़िया....
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएँ.