3 मई 2012

महाभारत

"परिस्थितियों में 
जो उचित हो वही करो "
"यही तुम्हारा धर्म है "
पाञ्चजन्य के साथ 
क्यों किया शंखनाद 
उदघोष 
क्या थी मंशा ? 
शंका - कुशंका के 
उचित-अनुचित के 
किस तराजू पर 
लटका कर चले गये 
कांटे की तरह 
धरती और आकाश के इन पलड़ों में 
मैं कब से लटका हूँ त्रिशंकु जैसा  
अपने ही पासंग विवेक पर 
और लड़ता हूँ 
अपनी ही इच्छाओं और नैतिकताओं के बटखरे से 
डरता हूँ न जाने कब कौन 
डाँड़ी मार ले 
कौन बन मामा 
अवतरित हो 
शकुनी जैसा  
अपने ही दो नेत्रों के बीच 
कौरवों और पांडवों सा 
आ खड़ा हो 
भांजी मारने को 
अकस्मात 
किसी एक आँख की पुतली दबाकर 
चौसर की बिसात पर 
फेंके हुए पासों में 
अटका है मन , जीवन 
लालसाओं के चौंसठ खानों में 
लगा सर्वस्व दाँव पर 
घसिटता अपने को 
युधिष्ठिर के श्वान जैसा 
भूत और भविष्य 
के ध्यान जैसा 
कोई तूणीर , कोई गाण्डीव 
नहीं , जो फिसल रहा है 
फिसलन पर है जीवन
द्वापर और कलियुग के जिस संधिकाल में 
मुझे छोड़ गए हे पार्थ ! 
अपने ही अंदर छुपे  हुए 
शिखण्डी के साथ 
जो स्त्री है न पुरुष
अभिशापित है 
न कुलटा है , न सती
सर्वत्र व्यापित है
न विलक्षण रथी , न सारथी 
है आरूढ़ , किमकर्तव्यविमूढ़ , आमूढ़
फिर भी कुरुक्षेत्र में उतरा है 
न हारा है न जयी है 
मध्यमवर्गीय है !!

5 टिप्‍पणियां:

  1. फेंके हुए पासों में
    अटका है मन , जीवन
    लालसाओं के चौंसठ खानों में

    ...बहुत मर्म की बात कही है...!

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  2. धरती और आकाश के इन पलड़ों में
    मैं कब से लटका हूँ त्रिशंकु जैसा
    अपने ही पासंग विवेक पर
    और लड़ता हूँ
    अपनी ही इच्छाओं और नैतिकताओं के बटखरे से !
    हर व्यक्ति के मन के कुरुक्षेत्र पर लड़ी जा रही है महाभारत !

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह क्या बात है ? गजब की अभिव्यक्ति , और करार भी । बहुत ही बढिया

    जवाब देंहटाएं
  4. भूत और भविष्य
    के ध्यान जैसा
    कोई तूणीर , कोई गाण्डीव
    नहीं , जो फिसल रहा है
    फिसलन पर है जीवन

    वाह..........
    गहन अभिव्यक्ति...

    सादर.

    जवाब देंहटाएं
  5. फेंके हुए पासों में
    अटका है मन , जीवन
    लालसाओं के चौंसठ खानों में

    इन पंक्तियों पर वाह कहना कम है

    जवाब देंहटाएं

आपके समय के लिए धन्यवाद !!

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