कितने दिनों बाद
बिना किसी डायरी के
बिना शायरी के
बिताया ज़िंदगी का एक दिन !
खोला नहीं घर का मुख्य द्वार
नहीं लिया आज का अखबार
ना ही सुबह से चलाया टी वी
सिर्फ एक अदद फ़ोन, वह भी
घर से बीवी
नहीं , यह भी सिर्फ मेरा ख्याल था
स्वयं से जूझता अदद सवाल था
बिना किसी दैनंदिनी के
बिना किसी कामकाज़ के
बिना मूल या ब्याज़ के
कैसे खर्च डाला एक दिन !
सुबह हुई , शाम हुई
बहुत से जन्म हुए
बहुत सी जिंदगियां तमाम हुई
अरबों-खरबों का कारोबार हुआ
बहुत से बिछड़े
बहुतों को प्यार हुआ
तुमने ना ही घड़ी देखी
ना ही कलेंडर पर की निगाह
न कुछ लिया न दिया
अपनी या किसी और प्रजाति से ना किया
साक्षात्कार
बिना किसी संसर्ग के
बिना किसी मर्म के
कोई कैसे
किसी दिन को
इतने सस्ते में ले सकता है ?
चौबीस घन्टे
चौबीसों घन्टे
मशीनरत ज़िंदगी
कलपुर्जे सी
यन्त्रवत आवर्तनी में
चकरघिन्नी सी घूमती है
किसी अनाकोंडा के पाश से
किसी तरह
सिर्फ एक दिन बचा पाया !