मैं न तो समय हूँ , न सत्ता . न मेरे पास दिव्यदृष्टि है , न काल-यंत्र. इतिहास जो भी लिखे , जब भी लिखे , दृष्टी है , कल्पना है , टुकड़ा है , अनुमान है . मधु यामिनी पर खिंचा हुआ एक चित्र . जिसमे उपस्थित युगल के मन में क्या चल रहा है , था , आसपास उपस्थित कोई क्या लिखेगा . और युगल द्वय अगर डायरी दां हों , तो उनका दरयाफ्त अलग होगा , रोज़नामचा अलग होगा , निवेदन अलग होगा , प्रणय अलग होगा . इतिहास द्वैत है .
इसलिए मैं सोचता हूँ , इतिहास लिखने की वस्तु है , पढ़ने की वस्तु है , इतिहास समीक्षा , टीका , टिप्पणी की वस्तु नहीं है . नज़र है , जिसे कोटि-कोटि नज़रें देखें उसके कोटि-कोटि नज़ारे होंगे , कोटि -कोटि नज़रिया होगा . बैरन बन गई - गोरी तेरी नजरिया.
मैं इतिहास नहीं लिखता , न समालोचक हूँ , पढ़ी -पढाई बातों को लिखता हूँ , नज़र खराब है , चश्मा पहन रक्खा है , उसी चश्मे से देखता हूँ . मेरा नंबर , आंखों का भाई , बहुत ज्यादा है , मेरा चश्मा आप पहन लें , तो कुछ दिखेगा भी नहीं .
एक कविता , पद्य , गद्यनुमा पद्य लिखना शुरू किया था , इतिहास को लेकर , बहुत बड़ा हो गया और अभी पूरा भी नहीं हुआ . तब बचपन में पत्रिकाओं में किश्त-वार आती कहानियाँ जेहन में आयीं . क्रमशः, अगले अंक में जारी , गतांक से आगे , पिछले अंक से जारी , अब आगे की कहानी .
सोचा यही तरीका अपनाऊं . आप भी मुझे किश्तों में झेल लिजीए . कोई किश्त नहीं चुका पाया तो बैंक का क़र्ज़ तो है नहीं जो आप गुंडे भिजवा देंगे . वैसे इतिहास है तो - काशी का गुंडा - एक कहानी का शीर्षक था यह भी . या सिर्फ गुंडा शीर्षक था , लेखक काशी का था , वैसे काशीनाथ सिंह यकीनन काशी के हैं . वही काशी का अस्सी वाले ! भई संतन की भीड़ वाला घाट तो चित्रकूट में था पर तुलसी दास जी अस्सी पर रहते थे , जिन्होंने यह लिखा. वरुणा और अस्सी के इसी क्षेत्र को वाराणसी कहते हैं . काशीनाथ सिंह के भाई नामवर जी से सब बड़े डरते हैं , ऐसा सुना है , पढ़ा है . हिन्दी वाले आलोचक एक ही मानते हैं . बनारस में गाली देने और सुनने-सुनाने की परंपरा रही है . अगर संस्कृति का हिस्सा हो तो लोग प्यार से गाली भी सुनने में यकीन रखते हैं . आप भी दिल खोल के दें - कुछ दिन मैं भी काशी में रहा हूँ , बुरा नहीं मानूंगा .
इसलिए मैं सोचता हूँ , इतिहास लिखने की वस्तु है , पढ़ने की वस्तु है , इतिहास समीक्षा , टीका , टिप्पणी की वस्तु नहीं है . नज़र है , जिसे कोटि-कोटि नज़रें देखें उसके कोटि-कोटि नज़ारे होंगे , कोटि -कोटि नज़रिया होगा . बैरन बन गई - गोरी तेरी नजरिया.
मैं इतिहास नहीं लिखता , न समालोचक हूँ , पढ़ी -पढाई बातों को लिखता हूँ , नज़र खराब है , चश्मा पहन रक्खा है , उसी चश्मे से देखता हूँ . मेरा नंबर , आंखों का भाई , बहुत ज्यादा है , मेरा चश्मा आप पहन लें , तो कुछ दिखेगा भी नहीं .
एक कविता , पद्य , गद्यनुमा पद्य लिखना शुरू किया था , इतिहास को लेकर , बहुत बड़ा हो गया और अभी पूरा भी नहीं हुआ . तब बचपन में पत्रिकाओं में किश्त-वार आती कहानियाँ जेहन में आयीं . क्रमशः, अगले अंक में जारी , गतांक से आगे , पिछले अंक से जारी , अब आगे की कहानी .
सोचा यही तरीका अपनाऊं . आप भी मुझे किश्तों में झेल लिजीए . कोई किश्त नहीं चुका पाया तो बैंक का क़र्ज़ तो है नहीं जो आप गुंडे भिजवा देंगे . वैसे इतिहास है तो - काशी का गुंडा - एक कहानी का शीर्षक था यह भी . या सिर्फ गुंडा शीर्षक था , लेखक काशी का था , वैसे काशीनाथ सिंह यकीनन काशी के हैं . वही काशी का अस्सी वाले ! भई संतन की भीड़ वाला घाट तो चित्रकूट में था पर तुलसी दास जी अस्सी पर रहते थे , जिन्होंने यह लिखा. वरुणा और अस्सी के इसी क्षेत्र को वाराणसी कहते हैं . काशीनाथ सिंह के भाई नामवर जी से सब बड़े डरते हैं , ऐसा सुना है , पढ़ा है . हिन्दी वाले आलोचक एक ही मानते हैं . बनारस में गाली देने और सुनने-सुनाने की परंपरा रही है . अगर संस्कृति का हिस्सा हो तो लोग प्यार से गाली भी सुनने में यकीन रखते हैं . आप भी दिल खोल के दें - कुछ दिन मैं भी काशी में रहा हूँ , बुरा नहीं मानूंगा .
प्रभावशाली प्रस्तुती....
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