खेत की मेड़
बहुत बड़ा
बरगद का पेड़
खड़ा है
गड़ा है
अंदर से पोला है
खोखला है
कोई आंधी नहीं
गाँधी नहीं
हवा का एक हल्का सा झोंका
गिरा देगा
हरा देगा
कोई कुल्हाड़ी मत लाना .
न हँसी असली
न शब्द न कथनी न करनी
बहत्तर छेद चलनी
मिट्टी की गाड़ी
मृच्छकटिकम
चलती गड़गड़
हाथों में भरे
विषभरे अक्षर
मन से
मस्तिष्क से
रक्त कलम से
गलियों से
खेतों से
सड़कों से
गुजरते रहे
आते रहे जाते रहे
अकेले अकेले चले
घर जले
बस्ती जली
कस्बे जले
जहाँ जहाँ से गुज़रे
काफिले
चेहरे , चेहरे , तमाम चेहरे
लूले लंगड़े अंधे बहरे
हाथ , हथेली , मुट्ठी बाँधे
दाँत भींचे , फूले नथुने
रक्ताभ आँखे
जुलूस बने , जलसा बने , बहस -मुबाहिसा हुए
अर्थ की अर्थी उठाए
सफहा - सफहा
बिखरे बिखरे हरफ
एक तरफा , एक तरफ
गूंजने लगे
गाने लगे
चिल्लाने लगे
पाँवों के तलुए
चाटने लगे
सूँघते हुए
गलियाँ-गलियाँ
घूमते
कटखौने हुए , काटने लगे
गालियाँ - गालियाँ
और सब तटस्थ हैं
अर्थ सब बौने हुए
सुविधा के बिछौने हुए
धूप से बचने के लिए
आँखों को ढाँप लिया
स्वार्थों को भाँप लिया
दाम औने-पौने हुए
खेत की मेड़ पर
सूखे हुए कुँए के पास
धराशायी बरगद
भीष्म सा लहुलुहान
और विजयी मुद्रा में पास ही खड़ा है
एक बिजुका शिखंडी
बजउठी रणभेरी
अट्टहास कर , नरमुण्ड बांधकर
नृत्यप्रवृत कापालिका , चंडी
हो गया नाटक का अंत
पर्दा धीरे -धीरे गिरता है
मूक - दर्शक अपनी -अपनी जगह खड़े ,
बजायेंगे , करतल
तालियाँ - तालियाँ .
बहुत बड़ा
बरगद का पेड़
खड़ा है
गड़ा है
अंदर से पोला है
खोखला है
कोई आंधी नहीं
गाँधी नहीं
हवा का एक हल्का सा झोंका
गिरा देगा
हरा देगा
कोई कुल्हाड़ी मत लाना .
न हँसी असली
न शब्द न कथनी न करनी
बहत्तर छेद चलनी
मिट्टी की गाड़ी
मृच्छकटिकम
चलती गड़गड़
हाथों में भरे
विषभरे अक्षर
मन से
मस्तिष्क से
रक्त कलम से
गलियों से
खेतों से
सड़कों से
गुजरते रहे
आते रहे जाते रहे
अकेले अकेले चले
घर जले
बस्ती जली
कस्बे जले
जहाँ जहाँ से गुज़रे
काफिले
चेहरे , चेहरे , तमाम चेहरे
लूले लंगड़े अंधे बहरे
हाथ , हथेली , मुट्ठी बाँधे
दाँत भींचे , फूले नथुने
रक्ताभ आँखे
जुलूस बने , जलसा बने , बहस -मुबाहिसा हुए
अर्थ की अर्थी उठाए
सफहा - सफहा
बिखरे बिखरे हरफ
एक तरफा , एक तरफ
गूंजने लगे
गाने लगे
चिल्लाने लगे
पाँवों के तलुए
चाटने लगे
सूँघते हुए
गलियाँ-गलियाँ
घूमते
कटखौने हुए , काटने लगे
गालियाँ - गालियाँ
और सब तटस्थ हैं
अर्थ सब बौने हुए
सुविधा के बिछौने हुए
धूप से बचने के लिए
आँखों को ढाँप लिया
स्वार्थों को भाँप लिया
दाम औने-पौने हुए
खेत की मेड़ पर
सूखे हुए कुँए के पास
धराशायी बरगद
भीष्म सा लहुलुहान
और विजयी मुद्रा में पास ही खड़ा है
एक बिजुका शिखंडी
बजउठी रणभेरी
अट्टहास कर , नरमुण्ड बांधकर
नृत्यप्रवृत कापालिका , चंडी
हो गया नाटक का अंत
पर्दा धीरे -धीरे गिरता है
मूक - दर्शक अपनी -अपनी जगह खड़े ,
बजायेंगे , करतल
तालियाँ - तालियाँ .
लोकतंत्र का यह नाटक अभी जारी है ...
जवाब देंहटाएंसटीक !
बहुत खूब सर!
जवाब देंहटाएंसादर
यशवंत जी , पसंद आया , तो शुक्रिया बहुत बहुत, और लोगों तक पहुंचाएंगे इसका भी .
हटाएंकल 03/02/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
ओह हाँ। युग बीत जाता है। हम खड़े रह जाते हैं। सिर खुजाते, तालियां बजाते।
जवाब देंहटाएंहंसते हंसते आखों में पानी आ जाता है! :-(
धन्यवाद गुरुवर , आज संगम से आशीर्वाद आ गया , बहुत खुशी हुई .
हटाएंबेहतरीन और अदभुत अभिवयक्ति....
जवाब देंहटाएंसटीक!
जवाब देंहटाएंbahut sashakt rachna behtreen.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना...
जवाब देंहटाएंखेत की मेड़ पर
सूखे हुए कुँए के पास
धराशायी बरगद
भीष्म सा लहुलुहान
और विजयी मुद्रा में पास ही खड़ा है
एक बिजुका शिखंडी
बहुत बढ़िया प्रस्तुति..
बहुत ही सार्थक व सटीक अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक और सार्थक रचना...
जवाब देंहटाएंJhanjhod dene wali panktiyaa sir..
जवाब देंहटाएंbehtareen rachna..
ek ajab si madhoshi si chha gai thi padhte padhte..
jab khatm hui to dil chaaha ki abhi aur ho.. :)
kabhi waqt mile to mer blog par bhi aaiyega..
palchhin-aditya.blogspot.com
ज़रूर आयेंगे . प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद
हटाएंबेजोड़ भावाभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंनीरज
नीरज जी आपका आशीर्वाद मिला , बहुत अच्छा लगा . आपके यहाँ ग़ज़ल की किताबों की समीक्षा पढता रहता हूँ . और जैसे खज़ाना जमा है वहाँ
हटाएंधीरे-धीरे दम ही निकाल लिया है,
जवाब देंहटाएंशब्दों ने अर्थ को उछाल दिया है !