3 जनवरी 2012

खत

समय पे लिखा था
हर्फ़ - हर्फ़
अक्षर - अक्षर पढ़ा था
ज़िंदगी ने गढा था
कोई तहरीर नहीं थी
गूँजता था
ओंकार
ध्वनि - प्रतिध्वनि - ध्वनि
रोम रोम में कंपन
छिद्र - छिद्र में टंकार
ओंकार
किसी तूफ़ान के पूर्व का हुंकार
विचलित सा कर जाता
ह्रदय था कंपकपाता
फिर निःशब्द
शांत
शून्य
स्थिर निरंतर
अन्धकार.
कोई उत्तर नहीं , कोई प्रत्युत्तर नहीं
न ही कोई कामना
स्थिरप्रज्ञ हो जैसे
प्रश्न सारे , अनगिनत असंख्य तारे
न दिवा - न रात्रि
कौन है जो मौन मुझको पुकारे
है किसका आमंत्रण
न कोई क्षितिज  न कोई किनारा
यहाँ
सब स्थिर
सब स्थित
न जरा घटता न जुड़ता
होता सिर्फ प्रस्फुटित
क्या यही है संपूर्ण कविता
क्या आदि से जिसे चाहा , ढूँढा
वो सब समय यहीं था
जिसका न था आदि,  न अनादि
जो था स्वयं में संपूर्ण
मैं अपनी ही
सीमाओं में बद्ध
उसे नाप रहा था
भांप रहा था .

10 टिप्‍पणियां:

  1. Every word touched the soul. Beautiful and powerful writing Sir...

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  2. कल 06/01/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  3. बेहतरीन...
    हर शब्द तराशा हुआ...
    बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  4. कल्पना की उड़ान वास्तविकता तक ...बहुत ही अच्छा

    जवाब देंहटाएं
  5. वाह बहुत सुंदर !
    हर्फ़ हर्फ़ बेहतरीन प्रस्तुति !

    जवाब देंहटाएं
  6. शब्दों को यु ही जोड़ कर ही तो कविता बन जाती है...

    जवाब देंहटाएं

आपके समय के लिए धन्यवाद !!

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