16 अगस्त 2013

हम पुरनिया !!

धवल-स्फटिक श्रृंगार केश का 
ढीला-ढाला वस्त्र देह का ;
मद्धिम होती तपिश प्रेम की 
स्वर-फुहार अतिरिक्त नेह की ;
शांत-स्निग्ध स्पर्श तुम्हारा 
सदा रहें दो-दृग जल-धारा ;
मन के वृन्दावन में महा-रास 
अब नहीं, रे धनिया ! 
हम पुरनिया !!

हम सनातन , पोंगापंथी ,
चिर रहे बंधे , कुंठा - ग्रंथि ;
हर बात पै शंका , हर पथ भ्रांति, 
विस्मृत-स्मृतियों सी विश्रांति ;
नहीं कभी की कोई धींगामुश्ती
अवध की शाम, न बनारस की मस्ती ;
उम्र अब मार रही हमको 
तू न मार कोहनिया !
हम पुरनिया !!






28 जुलाई 2013

चौबीस घन्टे

कितने दिनों बाद 
बिना किसी डायरी के 
बिना शायरी के 
बिताया ज़िंदगी का एक दिन !
खोला नहीं घर का मुख्य द्वार 
नहीं लिया आज का अखबार 
ना ही सुबह से चलाया टी वी 
सिर्फ एक अदद फ़ोन, वह भी 
घर से बीवी 
नहीं , यह भी सिर्फ मेरा ख्याल था 
स्वयं से जूझता अदद सवाल था 
बिना किसी दैनंदिनी के 
बिना किसी कामकाज़ के 
बिना मूल या ब्याज़ के 
कैसे खर्च डाला एक दिन !
सुबह हुई , शाम हुई 
बहुत से जन्म हुए 
बहुत सी जिंदगियां तमाम हुई 
अरबों-खरबों का कारोबार हुआ 
बहुत से बिछड़े 
बहुतों को प्यार हुआ 
तुमने ना ही घड़ी देखी 
ना ही कलेंडर पर की निगाह 
न कुछ लिया न दिया 
अपनी या किसी और प्रजाति से ना किया 
साक्षात्कार 
बिना किसी संसर्ग के 
बिना किसी मर्म के 
कोई कैसे 
किसी दिन को 
इतने सस्ते में ले सकता है ?
चौबीस घन्टे 
चौबीसों घन्टे 
मशीनरत ज़िंदगी 
कलपुर्जे सी 
यन्त्रवत आवर्तनी में 
चकरघिन्नी सी घूमती है 
किसी अनाकोंडा के पाश से 
किसी तरह 
सिर्फ एक दिन बचा पाया !
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