18 अक्टूबर 2012

उत्सव

लो फिर आ गया मौसम 
त्यौहारों का 
व्यवहारों का
लौटा फिर वृक्षों पर 
नये पात और नये फल लिये 
खेतों में एक नयी फसल लिये 
मौसम हल्की हल्की सर्दी 
गुनगुनी गुलाबी धूप का 
उपवन उपवन मौसम आया 
कौन चितेरा आँक रहा 
बादलों की तूलिका से 
यौवन के सपनों , मस्ती , अंगड़ाई ,
अलसाई , काम-रूप का !!
उत्सव है , तो जीवन है ,
आशा है , श्रृंगार है ,
कामना है ,
शरीर है , व्यसना है ,
उत्सव का अभिमान 
नवयौवना है .

14 सितंबर 2012

सरकारी हिन्दी की दूकान

दुकानें दो तरह की होती हैं . एक तो सरकारी राशन की दुकानों जैसी . वहाँ हर तरह का माल मिलता है जैसा वहीं मिल सकता है . राशन का चावल राशन जैसा , राशन की चीनी राशन जैसी , राशन का कपडा भी राशन जैसा . "राशन " खुद एक ब्राण्ड हो जाता है . आप वो चावल ले भी आयें , तो पका नहीं पाएंगे , पका लिया तो खा नहीं पाएंगे . आपको वो पका हुआ चावल उसी दुकान पर लौटा देना होगा . और दुकानदार से सुनना भी होगा - हम तो पहले ही कह रहे थे , आप रहने दें , आप नहीं खा पाएंगे , नहीं सुना . अब देखिए पका पकाया वापस लाना पड़ा न . अगर आप खा भी लेते तो मेरा दावा है पचा नहीं पाते . राशन का चावल है . अलग किस्म का पेट चाहिये इसके लिए .ये चावल अलग किस्म की आबो-हवा में पनपते हैं . इन्हें अलग किस्म की मिट्टी में उगाया जाता है . इसे राशन के लिए खरीदा और बेचा जाता है . इसे सिर्फ नेता , अफसर , ठेकेदार खा और पचा सकते हैं .

वैसे ही सरकारी हिन्दी की दुकान है . ये हिन्दी वहीं मिलती है . वही इसके उत्पादक हैं , विक्रेता हैं , और ग्राहक भी . आप इसे पढ़ नहीं सकते , पढ़ लें तो समझ नहीं सकते , समझ लें तो किसी और को समझा नहीं सकते . और अगर समझा लिए तो मेरा दावा है आप आदमी हो ही नहीं सकते .

आपके अंदर सरकारी बाबू , सरकारी अफसर , सरकारी खबरनवीस , सरकारी कवि, सरकारी साहित्यकार एक न एक अदद  छुपा है  .   
आप आइये आप को हम ही छाप सकते हैं , हम ही वितरित करेंगे , हम ही खरीदेंगे , हम ही पढेंगे , हम ही परिचर्चा करेंगे , समीक्षा लिखेंगे ,, और पुरस्कृत भी करेंगे . आप की महान रचना पाठ्यक्रम के योग्य समझी जायेगी . हम ही हिन्दी दिवस पर आपकी हर रचना को अलग-अलग पुरस्कारों , शाल - दुशाले , श्रीफल से नवाजेंगे . आप को अकादमी का अध्यक्ष बनायेंगे .  आपसे भाषण करवाएंगे , आपसे लिखवायेंगे , आपको सुनेंगे , आपसे ताली बजवायेंगे . 

पर हिन्दी का क्या होगा ? क्या होना है ? जो राशन का चावल नहीं पचा सकते भूखे तो नहीं मर रहे . बाजार से खरीद कर खा रहे हैं न ? अगर पैसे होंगे तो खरीदेगा , खायेगा , जिंदा रहेगा . नहीं ? नहीं तो क्या होगा मर जाएगा . आप भी कहाँ कहाँ की चिंता करते हैं . मॉल खुलने से मोहल्ले का दुकानदार मर तो नहीं गया ? बिक्री कम हुई होगी . वो फिर भी पेट भरने को कमा तो ले ही रहा है . अब देखिए जब मॉल नहीं थे तो  तो आपको डांङी मार कर माल कौन देता था ? नकली माल कौन देता था ? ज्यादा छपे भाव पर कौन देता था ? पुराना माल कौन देता था ? गन्दा , सड़ा माल कौन चिपका देता था ? तो अब आप उसकी चिंता में क्यूँ दुबरा रहे हैं ?

कानों में

अपने शब्द अपने कानों में 
आज शरीक़ हुए बेज़बानों में .
फिर  दोस्तों की याद आयी ,
बारिशों के मौसम, रमज़ानों में .
मुल्क में आमद अच्छी नहीं ,
पैसे ज़ेब में, न माल दुकानों में .
बारिशों में रुक जाओ , लुत्फ़ नहीं  
मिलना तुमसे हो जैसे बेगानों में .
तुम्हारी ज़बान बहुत मीठी है 
मिशरी सी घोलती है कानों में .
मौसम ने बदल लिया लिबास 
बहुत चर्चा है आज दीवानों में .
वो जिनके संस्कार अच्छे हैं ,
गिनते नहीं ऊँचे खानदानों में .
कोयल कूकती है न गाती है ,
हमरी बोली, हमरी ज़बानों में .
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