हर शब्द का हमारा आपका अनुभव अलग है . शब्द के अर्थ हमारे अनुभव के अनुसार हमें सुख-दुःख संताप पीड़ा आह्लाद आनंद शांति द्वेष घृणा प्रेम जैसे उदगार देते हैं - शब्द और अर्थ .मेरे अनुभव और अर्थ का विहंगम . मेरे शब्दों का सफर .
20 अगस्त 2010
शिक्षा एक वस्तु –उत्पादक या सेवा प्रदारक
स्वतंत्रता के बाद सरकारी – केंद्रीय और प्रांतीय – उच्चशिक्षा और स्कूली शिक्षा संस्थानों की स्थापना हुई . स्थानीय स्व-निकाय ज्यादातर स्कूली शिक्षा में आये . कुछ सरकारी उपक्रम अपने कर्मचारीयों के बच्चों के लिए स्कूल चलाने लगे. जो अपने संपर्कों से सरकारी अनुदान प्राप्त कर सके उन्होंने अपने बलबूते पर अलग –अलग काल में अलग अलग योजनाओं में अलग – अलग स्तर पर शिक्षा जगत में प्रवेश किया . कुछ ने स्वयं के प्रयासों से अकेले या समूह बनाकर इसमें प्रवेश लिया . पर यह मान्यता प्राप्त शिक्षा देते थे या किसी विश्वविद्यालय से संबद्धता प्राप्त करते थे . मदरसा , कान्वेंट , सरस्वती , शारदा , मिशन विद्यालय धार्मिक या अल्पसंख्यक समुदायों द्वारा शिक्षा जगत में प्रभाव ज़माने की कवायद थी . और प्रचार का साधन .
जहाँ नौकरियां नितांत गैर सरकारी थीं बहुतायत के तौर पर . उन क्षेत्रों में बिना मान्यता के शिक्षा भी आई . संगणक , प्रचार , विपणन, विज्ञापन , हार्डवेयर, विमानन, बीमा, मयूचुअल फंड , नेटवर्क, इलेक्ट्रोनिक उपकरणों , फैशन, बैंक , शेयर बाज़ार , फिल्म उद्योग ने अपनी जरूरतों के हिसाब से पारंगत हाथों को अपने तौर पर तैय्यार करने का सरंजाम कर लिया . ऐसी बहुत सी संस्थाएं जो देशी / विदेशी दोनों हैं और जो परम्परागत और अपरंपरागत दोनों तरह के बाज़ार में थीं उन्होंने एक दौर में संबद्धता के शिकंजे से स्वयं को मुक्त कर स्वायत्तता या स्वछंदता में बदलने के लिए स्वयं को विश्वविद्यालय में बदलने के तरीके खोजे और कुछ कामयाब भी हुए . कितने यह अब उच्चतम न्यायालय तय करेगा. विगत वर्षों में अनेक दशकों की नींद से जागकर सरकार ने मांग के औचित्य से ताबड़तोड़ दर्जनों की तादात में नए संस्थान खोल दिए या उस प्रक्रिया से गुजर रही है.
यहाँ नया कुछ नहीं हो रहा है . वर्त्तमान में जिनकी मांग है या जहाँ से मांग आ सकती है वैसे , पहले से मौजूद संस्थानों की संख्या में ईजाफा हो रहा है . जिनकी तरफ ग्राहक ज्यादा भाग रहा है या समझा जाता है वे सफल हैं उनके प्रतिरूप में ढाले नए संस्थान . यहाँ ढाँचागत सुधारों की बात भी हो रही है . पर यह लक्षणों पर काबू पाने की कोशिश है . बीमारी की जड़ तक पहुँचने का प्रयास नहीं . एक प्रवेश परीक्षा ( उद्देश्य कोचिंग उद्योग पर लगाम ) , एक पाठ्यक्रम ( उद्देश्य एक परीक्षा के लिए समान पढाई ), नए संस्थान ( ताकि विदेश जा रही पूंजी को घर में रखा जा सके ) , विदेशी संस्थानों को आमंत्रण (ताकि विदेश जा रही पूंजी को घर में रखा जा सके ), पुराने नियामकों और नियंत्रकों के बदले नए ( ताकी बाजार में जब सरकारी ,गैर सरकारी और बहु-राष्ट्रीय सब हों तब खेल ठीक-ठाक हो ). संस्थानों के लिए रेटिंग – एजेंसी ( ताकि वो पूँजी जुटा सकें ) , उपाधियों और प्रमाणपत्रों का अमूर्तिकरण (ताकि जालसाजी पर नियंत्रण हो ). पर अभी तक आपने विनिवेश के स्वर नहीं सुने हैं . पर यह सब क्या सुधारीकरण के अन्य परिवर्तनों से कुछ भिन्न हो रहा है ? हो सकता है यह सामरिक चुप्पी हो . एक समझदार चुप . वह भी होगा . पहले १० प्रतिशत फिर ५१ प्रतिशत . फिर ५० से कम . या फिर पूर्ण विनियोग .कहानी ऐसे ही आगे बढ़ती है .
अब कुछ हिसाब किताब. छः दशकों में सात भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान , एक विज्ञान संस्थान , एक आयुर्विज्ञान संस्थान , पांच प्रबंध संस्थान , पांच सूचना तकनीकी संस्थान , १०-१५ केंद्रीय विश्वविद्यालय . अब नए प्रस्ताव – ७-८ नए भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान, पांच विज्ञान संस्थान , पांच आयुर्विज्ञान संस्थान , ७-८ प्रबंध संस्थान , हर राज्य में नए केंद्रीय विश्वविद्यालय (जहाँ नहीं थे ), १४ नए विश्व-मानक विश्वविद्यालय (इन्हें अब नवप्रवर्तनशील कहा जा रहा है ), २० सूचना तकनीकी संस्थान , प्रवासी-भारतीयों के लिए विश्वविद्यालय, नालंदा विश्वविद्यालय, दक्षिण-पूर्व देशों का विश्वविद्यालय , पिछड़े छेत्रों में ३७४ महाविद्यालय , विज्ञान और औद्योगिक अनुसन्धान परिषद द्वारा विज्ञान अकादेमी , कर्मचारी राज्य बीमा निगम द्वारा चिकित्सा महाविद्यालय , भारतीय रेल द्वारा नर्सिंग और चिकित्सा संस्थान , नए औषधी शिक्षा और अनुसन्धान संस्थान , व्यावसायिक शिक्षा का राष्ट्रीय मिशन , शिक्षा अधिकार कानून , कानूनी शिक्षा के नए विश्वविद्यालय और अनुसन्धान संस्थान . इसके अलावा क्षेत्रीय अभियांत्रिकीय संस्थानों का नया अवतार – राष्ट्रीय तकनीकी संस्थान के रूप में और उनकी हर राज्य में स्थापना . नए पॉलीटेक्निक, नए औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान . हर मंत्रालय व्यस्त है. पहले मंत्रालय व्यस्त थे – विजन – २०२० बनाने में . अब संस्थान बनाने में . इसके अलावा विप्रो के प्रेमजी , एयरटेल के सुनील भारती मित्तल, वेदांत के अनिल अग्रवाल , एच. सी. एल. के शिव नादार , रिलाएंस के मुकेश , इन्फोसिस के मूर्ति भी विश्वविद्यालय स्थापित करेंगे . चर्चाएँ चल रहीं हैं . विदेशी संस्थानों के भी चर्चें हैं . शिक्षा मंत्री उन्हें आमंत्रित करने अमेरिका, ब्रिटेन घूम आये . सिंगापुर , मारिशस, दुबई वाले आये या हम हो आये . देशों के साथ सहयोग के नए ज्ञापनों पर हस्ताक्षर हो रहे हैं . अमेरिकी राष्ट्रपति और हमारे प्रधानमंत्री की नए "ओबामा – मनमोहन २१ वी सदी ज्ञान – पहल" पर काम हो रहा है . कुछ लोग खुश हैं . बहुत खुश . कुछ लोग दुखी हैं . बहुत दुखी
.
सरकार इस विचार से अभिभूत है की सुरसा की तरह बढ़ती जनसँख्या जो समाजवादी चिंतन में एक विशाल समस्या और अभिशाप थी वह अर्ध पूंजीवादी चिंतन में बुजुर्ग होती पश्चिमी और यूरोपीय देशों की जनसँख्या के लिए कारीगरों और कामगारों की सेना में परिणत की जाये . पर क्या ऐसा संभव है ? इसे कई लोग ज्यादा जनसँख्या के लाभांश के तौर पर पेश कर रहे हैं . उपरोक्त परिच्छेद में उल्लेखित आंकड़ों पर फिर एक नजर डाल लें . सरकार की उतावली का उत्तर मिल जायेगा .
हमारे यहाँ उर्जा की भी समस्या है . सारी पंचवर्षीय योजनाओं , बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बुलावे , विदेशी पूंजी के आमंत्रण , मुनाफे की जमानत , शासकीय विद्युत कंपनियों के पुनः-संरचना, बिजलीघरों की स्थापना के लिए विशेष सहूलियतों के बावजूद समस्या जहाँ की तहाँ खड़ी है . क्यों ?
सूचना क्रांति की अचानक बढ़ी मांग और उसमे प्रवासी भारतीयों की सफलता और देशी कंपनियों की हिस्सेदारी ने मध्यवर्ग की बांछे ही खिला दीं . सब अपने अपने नौनिहालों को सूचना क्रान्ति वीरों के रूप में हरे डालरों के लिए विदेश भेजने को लालायित हो गए . और इससे देश में प्रोद्योगिकी शिक्षा में क्रांति आई . पहले पांच राज्यों और बाद में कमोबेश सभी राज्यों में हजारों – हजार निजी अभियांत्रिकी महाविद्यालय उपस्थित हो गए . कहानी पुरानी नहीं है अतैव विस्तार में नहीं जा रहा . कम लिखा ज्यादा पढियेगा . सरकारों ने राज्य स्तर पर प्रोद्योगिकीय विश्वविद्यालय स्थापित कर दिए . प्रवेश परीक्षाएँ शैक्षिक बिरादरी की दिनचर्या का महत्वाकांक्षी स्तंभ बन गया . यह कुछ कुछ कुम्भ मेले जैसा आयोजन है . विशेष रेलगाडियाँ चलाई जाती हैं . लाखों लोगों का समागम होता है . अंतर सिर्फ यह की इसमें शामिल बूढ़े-बुजुर्ग नहीं . नौजवान होते हैं . तपस्या की जाती है . मन्नतें मानी जाती हैं . रत-जगा होता है . परिवार के सदस्य रात बारी-बारी जग कर चाय-काफी का प्रबंध करते हैं . माता-पिता चाचा-चाची ताऊ-ताई अलग अलग परीक्षा के लिए लिवाने –लेजाने के लिए यात्रा की तैयारियां करते हैं . बहुत से दूर के शहरों में बसे परिचितों और दोस्तों से इसी बहाने मुलाकात भी हो जाती है . कई राज्यों से फ़ार्म मंगाए जाते हैं . फ़ार्म भरने और परीक्षा की तिथियाँ घर के कैलेंडरों पर अंकित की जाती हैं . अख़बारों में परीक्षा के पूर्व और उसके बाद आते कोचिंग संस्थानों के विज्ञापनों से किसकी दृष्टि बची होगी भला . और इसके बाद अख़बारों और टी.वी. पर ग्राहकों को ललचाते शिक्षण संस्थानों के प्रवेश के लिए आमंत्रण के विज्ञापन . पर हकीकत क्या है ?
नास्कोम के अनुसार हमारे ७० प्रतिशत अभियांत्रिकीय स्नातक नौकरी के उपयुक्त नहीं हैं . और विगत वर्षों से इन संस्थानों में हजारों सीटें खाली पड़ी हैं . शायद ऐसा चला तो कई दुकानें बन्द हो जाएँ . एक पुरानी कहावत है – जल्दबाजी में करो और शांति से भुगतो .सरकारी क्षेत्रों में भी जो संस्थान आज के पैमाने पर कुटीर उद्योग के रूप में जन्मे थे अब कई गुना बढ़कर बड़े उद्योग का रूप ले चुके हैं . हालाँकि इनमे कोई ढाँचागत बदलाव नहीं आया है . विशाल आकार हो जाने के बावजूद . भारतीय अर्थव्यवस्था को वैसे भी लोग टाइगर नहीं हाथी से उपमा-कृत करते हैं .
सरकारें जानती हैं . या सीख चुकी हैं . यह पाठ की – लागत से कम पर माल बेचने से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है , अक्षमता को प्रश्रय , अगर उपभोक्ता लागत न दे तो उत्पादक में उत्पादता , जवाबदेही के प्रति शिथिलता आ जाती है . सरकार के पास इतने साधन नहीं की वह अपने दम पर पूरी अर्थव्यवस्था का भार उठा सके . किसी भी माल को अनुदान या सहायिकी से बेचने से उसकी गुणवत्ता कम होती है . और सरकार दिवालिया भी हो सकती है . अनुदान का फायदा गलत लोग लेते हैं .उत्पादन के तौर तरीकों में नयी तकनीकों का इस्तेमाल नहीं होता . सरकारी उपक्रमों को जो अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं उन्हें बन्द कर पाना टेढ़ी खीर है इत्यादि . अब राष्ट्रीय ज्ञान आयोग , विश्वविद्यालय अनुदान आयोग , शिक्षा मंत्री , प्रधान मंत्री ३०० , ८०० , और १५०० विश्वविद्यालयों की बात करते हैं . इसीलिए सरकार ने अपने बूते पर जितने पड़े नए संस्थान खोल दिए . नहीं तो विपक्ष निंदा करता . साम्यवादी विचारक गिरवी रखने – रखाने की बातें करते . अब इत्मीनान से निजी क्षेत्र से भागीदारी के कार्यक्रम बनायें . देशी-विदेशी पूंजी को आमंत्रित करें . इसके लिए संसद में दोनों के लिए नया कानून . और पूंजी बिदके न इसलिए पूंजी-बाजार – बीमा-बाज़ार की तर्ज पर नए स्वतंत्र नियामक . रेटिंग एजेंसी की तर्ज पर शैक्षणिक रेटिंग एजेंसी . शेयर प्रमाणपत्र की तर्ज़ पर उपाधीपत्र और अंकसूची का अमूर्तिकरण . बाज़ार को एकीकृत करने के लिए एक प्रवेश परीक्षा , एक समान पाठ्यक्रम . अन्य घोषित उद्देश्य हैं – विस्तार , सम्मिलन , श्रेष्ठता , गुणवत्ता ,और पहुँच . इसके लिए महिलाओं की उच्चशिक्षा संस्थानों में भागीदारी और उपस्थिती , अल्पसंख्यकों विशेषकर मुस्लिम समुदाय में शिक्षा का प्रतिशत बढ़ाने के प्रयास. इसके अलावा शिक्षा के अधिकार कानून द्वारा सब बालकों को विद्यालय ले जाने की महत्वाकांक्षी परिकल्पना . एक आंकड़े के अनुसार विश्व के अशिक्षितों का ३५% एक – तिहाई से ज्यादा ,भारत में रहता है .जिसका ६४% भाग औरतें हैं . यूनेस्को के अनुसार २०१५ तक हर बच्चा स्कूल में लक्ष्य प्राप्ति में भारत पिछडता लग रहा है . विश्व-शक्ति का तमगा पहनने की ललक पर यह तमगा भारी पड़ रहा है . इसलिए सरकार की शीघ्रता हमें समझनी होगी .
ऊपर हमने उर्जा क्षेत्र का उल्लेख किया था . तमाम कौशल करतब के बावजूद समस्या न सिर्फ वहीँ के वहीँ है बल्कि हमें घेरती जा रही है . जब नितांत संसाधनों और पूंजी जगत पर निर्भर उर्जा क्षेत्र में सरकार , सारी कवायद के बावजूद सफलता का मुंह नहीं देख पा रही . तब शिक्षा जगत में जहाँ विगत कई दशकों से विश्वविद्यालयों , अनुसन्धान , विज्ञान सभी संकायों में शिक्षा के निरंतर गिरते स्तर पर मंत्री , प्रधानमंत्री , राष्ट्रपति , उप-राष्ट्रपति , वैज्ञानिक , शिक्षाविद अपनी चिंताएं अलग अलग प्रसंगों पर अलग अलग मंच से व्यक्त करते आ रहे हैं क्या अपेक्षाएं रखी जाएँ ? . यह सारे अनुप्रयोग समस्या के समाधान की बजाय उसे और विषम तो नहीं बना देंगे . हाँ होमियोपैथी का चिकित्सक रोग के लक्षण बढ़ने को औषधी के कारीगर होने के संकेत के तौर पर देखता है . क्या पता यह कैसी चिकित्सा चल रही है ? अभी तस्वीर धुंधली ही है . पर एक बात अच्छी हो रही है एक बहुत नितांत जरूरी क्षेत्र जिसे कई दशकों से आवश्यकता थी अब बहस के केंद्र में है . बहस के मुद्दों पर हर आदमी को चिंता करनी चाहिए . और इस बहस से कोई अछूता रहेगा तो वह देश और समाज किसी के हित में नहीं होगा .
दूरसंचार क्रांति से दूरसंचार निगम (अब) और महानगर दूरसंचार निगम वर्षों की मौजूदगी के और पहले-पहल (फर्स्ट मूवर ) की बढ़त के बावजूद पिछडते नज़र आ रहे हैं . अन्य क्षेत्रो में ऐसे कई उपक्रम गुमनामी में भी जा चुके हैं . सरकारी उड़ान कंपनियां भी लड़खड़ा रही हैं .
बाजार स्थायित्व चाहता है . उसे ज्यादा उतार – चढ़ाव पसंद नहीं . सबके लिए एक से नियम चाहता है . इसे बेलगाम रोक –टोक या जरूरत से ज्यादा नियंत्रण पसंद नहीं .बाज़ार में कमजोर प्रतिद्वन्दी को रौंद देने की प्रवृत्ति है . बाज़ार में बड़ी मछली छोटी को मौका पाते ही निगल लेती है . यह प्रकृति का नियम है . और यही प्रकृति में संतुलन भी रखता है . पर प्राकृतिक रूप में मानव जितना भी निष्कपट दिखे – आप और मैं जानते है . यह दुष्ट बुद्धी (अन्य किसी शब्दावली के अभाव में ) ज्यादा और ज्यादा की हवस में दृश्य और अदृश्य सब हथकंडों को कभी जानकर और कभी अनजाने में भी बेहिचक अपना लेती है . और बाज़ार का कुसंस्कार हो जाता है . आप जितने चाहे कठोर – से कठोर नियम बनाना चाहें बना दीजिए . अगर उसे अवसर नजर आता है तो वह उसे भुनाने आ ही जायेगा . उत्पादक बाज़ार ढूँढता है . पहले आस-पास का . फिर क्षेत्र का . फिर देश का . फिर महाद्वीप का . और फिर उत्पादक पूरे विश्व का बाजार चाहता है . बाज़ार बहुत भूखा है . वह सब कुछ लील लेता है . उसकी क्षुधा शांत करना आसान नहीं . बाज़ार एक दावानल है . यह बेरोक टोक बढ़ना सीख ले फिर किसी के बस का नहीं . विश्व की सबसे शक्तिशाली पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाएं नहीं तो एक-दो वर्ष पहले इतनी लाचार नज़र नहीं आतीं . इसे सरकारे नियंत्रित करने का प्रयास करती हैं पर वे भी इस प्रयास में इसके हेरफेर का शिकार हो ही जाती हैं .असफलता का भय किसी भी कठोर कदम को लेने से रोक जो देता है . खतरा बाज़ार उठा सकता है उठाता है . यह खतरा सरकारे नहीं उठा सकतीं . बस इसी मानसिकता का अंतर बाजार की सारी सुविधा और दुविधा को जन्म देता है . यह रीछ से पंजे लड़ाने जैसा है . एक बार आपको गिरफ्त में ले ले . फिर जब तक दूसरा शिकार न ढूंढ ले आप का छुटकारा संभव नहीं है .
अब देखिये जब मांग थी और सरकार ने अवसर मुहैया कराया तब धड़ाधड़ प्रबंध और अभियांत्रिकीय शिक्षा के महाविद्यालय खुले . दक्षिण के चार राज्यों और महाराष्ट्र ने इसमें अग्रता दिखाई . पहल करने वालों ने बाज़ार से बहुत मलाई निकाली . मैनेजमेंट कोटा , एन . आर . आई . कोटा , पेड सीट, कैपिटेशन फीस के नाम पर . कुछ ने लाइसेंस के बलबूते पर उगाही की और उसी से व्यवसाय भी खड़ा कर लिया . बाद में न्यूनतम संरचना के मापदंड बनाये गए . और इसे सत्यापित करने वालों ने मलाई का हिस्सा लिया .वसूली की बढ़ी लागत ग्राहक के खाते ही थी . जब अपने प्रदेश में ग्राहक नहीं मिले तो अन्य प्रदेशों में ग्राहकों को हाँका लगाने के लिए हंकवे नियुक्त किये . वहाँ मांग थी पर उत्पादक नहीं थे . जब इन राज्यों से सैलाब दूसरे राज्यों में जाने लगा . तो यहाँ की सरकारों की नींद उचट गयी . और वे भी लामबंद हो गयीं . अब ज्यादातर सब राज्यों में सैकड़ों की तादात में उत्पादक आ गए हैं . फिर मंदी आ गयी . और ग्राहकों में हिसाब – किताब हुआ . नौकरी मिलेगी तो ? इतना लगाना ठीक होगा ? लागत के अनुसार मुनाफा वसूली तो हो पायेगी ? अब सीटें खाली रहने लगीं . खराब माल बाज़ार उठाने से कतराने लगा . तब बाज़ार संभालने के लिए विज्ञापनों का दौर शुरू हो गया . पूरे पूरे पृष्ठ के विज्ञापन . एक रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा संस्थान प्रकाशन माध्यमों में अब सबसे बड़ा विज्ञापनदाता है . दृश्य माध्यम में भी इनके विज्ञापन पिछले वर्षों में तेजी से बढे हैं . इनके द्वारा विज्ञापनों के स्वरुप पर चिंता , बहस , और शिकायतों का दौर भी शुरू हो गया है .
अब आपूर्ति बढ़ी . सिर्फ गैरसरकारी नहीं सरकारी आपूर्ती भी बढ़ी है . अब मांग से ज्यादा आपूर्ती के कारण उत्पाद की बहुतायत हो गयी . ग्राहक के पास बहुत से विकल्प खुल गए . लाचारी ग्राहक से हटकर उत्पादकों के पाले चली गयी . अब वे उन्हें ललचाने के लिए दाम में छूट का प्रलोभन दे रहे हैं . अपने उत्पादन के बारे में झूठे सच्चे दावे कर रहे हैं . और शिकायते आने पर सरकार ने शिक्षण संस्थाओं द्वारा अनुचित व्यवहार पर निषेध का कानून बनाने की कार्यवाही कर डाली . शिक्षा न्यायाधिकरण बनाने के लिए कानून संसद में पास करने के लिए भी विधेयक पेश कर दिया है . सरकार ने ऐसे संस्थानों की गुणवत्ता पर उठे सवालों के जवाब में राष्ट्रीय प्रमाणन नियामक प्राधिकरण का विधेयक भी पेश कर दिया है . इसी बीच राज्यों द्वारा इन के लिए संबद्धता के मद्देनज़र खोले गए राज्य तकनीकी विश्वविद्यालयों से आजीज आकार मेलजोल और लेनदेन से स्वयं को विश्वविद्यालम में रूपांतरित कर लिया . हंगामा मचा . शोर उठा . अब उच्चतम न्यायालय में सब पक्ष माथापच्ची में लगे हैं . देखिये ऊंट किस करवट बैठता है . पर सरकारों द्वारा पहलकदमी और दूरंदेशी के आचरण के बजाये प्रतिक्रिया के कारण आचरण से ग्राहकों को कभी कभी त्रिशंकु की स्थिति से गुजरना पड़ता है . सांप – छछूंदर जैसी . न निगल सकते हैं ना उगल. अभियान्त्रिकी, प्रबंध , और चिकित्सा शिक्षा का ग्राहक एक दाम देने को तैय्यार था . हालांकि अंधाधुंध उत्पादन ने इसमें कुछ खटाई पैदा जरूर कर दी है . पर देखिये बेदाम की उपाधियों के बाज़ार में कोई नहीं आया . यह उत्पाद केंद्र और राज्यों के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों तक ही सीमित रह गए हैं . होटल , विक्रय , बीमा , प्रचार , संगणक , फैशन , संजाल , इलेक्ट्रोनिक , दूरसंचार , पूंजीबाजार , फिल्म इन सब क्षेत्रों में बाजारोन्मुखी शिक्षा के उत्पादक आये . और चले भी खूब . हमारे उपलब्ध ढांचे में न बाज़ार की लय थी , न तत्परता . वह न पहल करने के योग्य था न प्रतिक्रिया में कोई कदम उठा सकता था . बाज़ार की शक्तियों से वह डरता था . अपने ग्राहकों को उसने जानने की समझने की कभी कोशिश नहीं की . वह तो ग्राहक को गुलाम समझता है . मेरे पास नहीं आयेगा तो कहाँ जायेगा ? जो दूंगा ले लो . लेना है तो लो नहीं तो आगे बढ़ो . हम तो यही देंगे . इससे बढ़िया चाहिए तो विदेश से ले आओ . पैसे तुम देते हो क्या जो तुम्हे हिसाब दें ? तुम्हे क्या चाहिए यह हम तय करेंगे . तुम्हारी यह जुर्रत की तुम हमारी ही गुणवत्ता पर सवाल उठाओ ? जितना मिल रहा है ले लो नहीं तो ये भी नहीं मिलेगा . उसके लिए ग्राहक एक निम्न वर्ग का प्राणी है . जो उसकी कृपा दृष्टी पर पलता है . हम उत्पादक है . हमारा सिंहासन ऊँचा है . वह नजरें झुका के बात करेगा . हम अपने सिंहासन से उतर कर उससे क्यों बात करें ? वह कौन होता है हमें बताने वाला की हमारा उत्पादन किसी काम का नहीं . बेकार है . की उससे कोई लाभ नहीं निकलता . उसकी जुर्रत तो देखो हमें बताने चला है की हमारे कम दाम का माल उस दाम में भी लेने को कोई तैय्यार नहीं होगा अगर ग्राहक को देना होगा. जब तक सरकार और हमारे माईबाप हमारे साथ हैं . हमें किसकी परवाह. बस वो प्रसन्न रहें . और हम पर अपनी कृपा बनाये रखें .
सक्षम को कभी बाज़ार ने भयभीत नहीं किया . प्रतिस्पर्धा ने नहीं डराया . साम्यवादी अर्थाचिन्तन और बाज़ार से बेदखल विस्थापित भारतीयों ने अपने दम पर परचम लहराया .कुछ भाग्यवान जिन्हें इस व्यवस्था के प्रसाद रूप में सहायिकी / अनुदानित शिक्षा मिली . पर जिसके पाने के लिए उन्हें प्रतिस्पर्धा करनी पडी . वह और प्रतिस्पर्धा के कारण अर्जित अनुभव ने उन्हें सफलता दी . इसीलिये वो प्रतिस्पर्धा के पक्षधर हैं . वो जानते हैं लागत का मूल्य किसी न किसी को वहन करना पडता है . स्वयं ग्राहक करे या हम. इस विडम्बना को स्वीकार कर जीते रहें की - हमारी शिक्षा का भार देश के वो अशिक्षित करों के माध्यम से वहन करते रहें जो विश्व के सारे अशिक्षितों का एक – तिहाई अंश हैं . या वे बच्चे जो स्कूल जाने की उम्र में काम करते हैं .
उच्चशिक्षा में सरकारी संस्थानों से इतर कुछ मॉडल जो अब सफल होते दिख रहे हैं . अगर वो नए प्रतिमान गुणवत्ता पर भी कामयाब हो गए . और नए मॉडल भी आ गए . तो सरकार पर नियंत्रण हटाने , विनिवेश , और स्वामित्व के पूर्ण विनियोग की मांग का दबाव बढ़ेगा . मांग होगी पिछड़े , अति-पिछड़े , अनुसूचितजाति, अनुसूचित जनजाति , अल्पसंख्यकों, आर्थिक पिछड़ों, प्रवीण , महिला वर्ग जिसकी भी सहायता करनी है . सीधे उन्हें अनुदान या सहायिकी दें . उत्पादकों को दिया अनुदान अकुशलता बढ़ाता है . इससे भ्रष्टाचार पनपता है . अनुदान हित-ग्राहकों तक नहीं पहुँचता. वो वंचित रह जाते हैं . जो सक्षम हैं उन्हें अनुदान किसलिए ? ऐसे प्रश्न उठाए जायेंगे . अनुदान की राशी से रिसावों की संभावना रहती है . "आधार" के चालू हो जाने से अनुदान सीधे हित-ग्राहकों तक पहुँचाने में मदद मिलेगी .इत्यादि .
अब देखिये उत्पादक का मस्तिष्क कैसे कार्य करता है . पूंजी ढूंढती है अवसर . पूँजी दौडती है और पूँजी की तरफ . पूँजी जहाँ जितनी आसानी से दूना – चौगुना होने की रफ़्तार दिखे लपक लेती है . पूँजी मितव्ययी है . वह जरूरत से ज्यादा नही सिकुडना चाहती . कम से कम लागत, ज्यादा से ज्यादा मुनाफा . उसे स्कूल मास्टर से ज्यादा पर दस्तखत करवाने और कम देने में मुनाफा दिखता है . उसे गणवेश में मुनाफा दिखता है . उसे पाठ्यपुस्तकों में मुनाफा दिखता है . उसे पाठ्यक्रम के अतिरिक्त गतिविधियों में मुनाफा दिखता है . उसे क्रिसमस मेले में मुनाफा दिखता है . उसे प्रवेश के फ़ार्म में मुनाफा दिखता है . उसे स्कूल की कैंटीन और बस सेवा में भी मुनाफा दिखता है . स्कूली परीक्षा के पुराने प्रश्नों को बेचने में मुनाफा है . उसे पाठ के अंत में दिए अभ्यास के हल बेचने में मुनाफा दिखता है . उसे स्कूल के काल के बाद अतिरिक्त कक्षाओं में लाभ दिखता है . एक कक्षा के भर जाने पर नए अनुभाग खोलना मुनाफा है . विद्यालय के भर जाने पर दो पालियां चलाना मुनाफा है . एक स्कूल चल जाने और नाम होने पर दूसरा स्कूल खोलना मुनाफा है. अगर खुद पूँजी नही लगा सकते या बाज़ार बहुत दूर है तो नाम भी किराये पर दिया जा सकता है . यह तो स्कूली शिक्षा के उत्पादक का व्यवहार है .
उच्चशिक्षा में अभियान्त्रिकी शिक्षा के सन्दर्भ में हमने इस वर्ग के उत्पादक का मस्तिष्क भी देखा है . कमोबेश एक सी संरचना है . बस पैमाना अलग है . विन्यास अलग है . पापड़ अलग तरह से बेलने पड़ते हैं . पर उच्चतम शिक्षा या विश्वविद्यालयीन शिक्षा में यहाँ अभी कोई बहुत ज्यादा मॉडल नही हैं . स्नातकोत्तर शिक्षा या अनुसन्धान से जहाँ शिक्षा ज्ञान बढ़ाने का एक सम्मिलित प्रयास है . वहाँ अभी प्रयोग हो रहे हैं . नए कलेवर तैय्यार किये जा रहे हैं . बहुत से विचार सामने आ रहे हैं . अन्य देशों के अनुभवों का अध्ययन किया जा रहा है . अपनी गलतियों में सुधार करने पर बल है . ह्रास के कारणों का अध्ययन हो रहा है . लक्षणों का इलाज चल रहा है . राष्ट्रीय ज्ञान आयोग , यशपाल समिति , अम्बानी और बिरला समिति के प्रतिवेदन सरकारों के पास जमा हैं . साथ ही साथ जिन्हें नयी हवा में अंदर खतरा लग रहा है वो अंदर से. और जिन्हें बाहर खतरा लग रहा है वो बाहर से . बन्द जबान और मुखरता से विरोध दर्ज करा रहे हैं . विरोध और समर्थन के स्वर अपने अपने स्वार्थों के साथ बदल जाते हैं. जिसे खोने का डर है . उसके माथे पर बल पड़ेंगे ही . जिन्हें अवसर के बन्द दरवाजे खुलते दिखेंगे वो सस्वर समर्थन में जुट जायेंगे . परिवर्तन में पुराने मत , ढाँचे, व्यवहार , स्थापित मठों , मठाधीशो का जाना तय है . साथ ही नए सृजन की चुनौतियाँ हैं . और ग्राहक को भी नए बाज़ार से व्यवहार के लिए अपने को तैय्यार करना पड़ेगा .
अर्थव्यवस्था में उदारीकरण ने देश की मानसिकता में बदलाव अवश्य लाया है . पर इसके साथ ही बाज़ार ने नये भय को भी जन्म दिया है . पुराने अभ्यास के छुटने के भय के साथ नये व्यवहार को अभ्यास बनाने की चुनौती भी है . और नये प्रश्नों ने भी जन्म लिया है . पर प्रतिस्पर्धा से ग्राहक को लाभ मिला है अब तक हर क्षेत्र में . शिक्षा जगत में भी ऐसा ही होगा ऐसी आशा की जानी चाहिए . पर सबसे बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य होगा . बाजार से निर्वासित को बाजार में शामिल करना . उत्पादक , बाजार , और ग्राहक के अलावा यहाँ अर्थव्यवस्था , नियामक , नियंत्रक, सामाजिक संस्थाओं की बड़ी भूमिका है . और सबसे बढ़कर भूमिका है समाज में इस विषय पर लगातार चिंतन , मनन , संवाद , और संभाषण की . मुक्तिबोध के स्वर में "अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे , ढहाने होंगे मठ और गढ़ सब ".
16 अगस्त 2010
पंछी का साया
बस धुंधला सा इक नाम औ’ भूली हुई सूरत
दिल से चाहोगे तो क्या खुदा नही मिलता .
चिलमन में छुपा लो चाँद को तो क्या होगा ?
बादलों में निहां चाँद से क्या दरिया नही उठता ?
सफर में साथ मेरे एक पंछी का साया था ,
उसे नहीं देखा कभी वो मुझे नही पहचानता.
इक तस्सवुर जिसके सहारे उम्र गुजार दी
उस खत पर चस्पा है न पता नही लापता.
मुड़कर देखना
ख्वाब हो या हकीकत छू कर देखना
कहाँ उम्र पड़ी है की मुड़कर देखना .
मंदिर पै घंटियाँ या मन्नत के बांधो धागे
दुआ कबूल न हो उसे मांगकर देखना .
सुबह का धुंधलका शाम तक चला आया
बियांबा न भटके ख्वाब जागकर देखना .
अजीब दहशत में गुजरी रात जुदाई की
अँधेरे में अपने ही साये से लिपटकर देखना .
गुलमोहर से बतियाने का सिलसिला पुराना
किसी दरख़्त को दूब पर लेटकर देखना .
महबूब बस नाम है उसकी सूरत नहीं होती
शायर को पूछकर देखना पढकर देखना .
कहाँ उम्र पड़ी है की मुड़कर देखना .
मंदिर पै घंटियाँ या मन्नत के बांधो धागे
दुआ कबूल न हो उसे मांगकर देखना .
सुबह का धुंधलका शाम तक चला आया
बियांबा न भटके ख्वाब जागकर देखना .
अजीब दहशत में गुजरी रात जुदाई की
अँधेरे में अपने ही साये से लिपटकर देखना .
गुलमोहर से बतियाने का सिलसिला पुराना
किसी दरख़्त को दूब पर लेटकर देखना .
महबूब बस नाम है उसकी सूरत नहीं होती
शायर को पूछकर देखना पढकर देखना .
कारवां नहीं होता
कोई यूँ ही बेसबब सिरफिरा नहीं होता
न मुहब्बत होती औ’ ये किस्सा नहीं होता.
सिर्फ मिजाजपुर्सी नहीं कुछ तीमारदारी भी हो
दिलों का घाव छुपाने से कभी अच्छा नहीं होता .
इकरार नहीं किया कभी , कभी इजहार नहीं किया
कभी मिसरा नहीं मिलता , कभी मतला नहीं होता.
सबकी अपनी रवायतें सबकी अपनी मसरुफियतें
सफर आगाज़ हो जाये फिर कारवां नहीं होता .
न मुहब्बत होती औ’ ये किस्सा नहीं होता.
सिर्फ मिजाजपुर्सी नहीं कुछ तीमारदारी भी हो
दिलों का घाव छुपाने से कभी अच्छा नहीं होता .
इकरार नहीं किया कभी , कभी इजहार नहीं किया
कभी मिसरा नहीं मिलता , कभी मतला नहीं होता.
सबकी अपनी रवायतें सबकी अपनी मसरुफियतें
सफर आगाज़ हो जाये फिर कारवां नहीं होता .
6 अगस्त 2010
शिक्षा एक वस्तु – ग्राहक या खरीदार (अंश ३ क्रमशः)
असल में शिक्षा का मूल है हर व्यक्ति की अपने व्यक्तित्व से पहचान . अपनी संभावनाओं को पहचानने , परखने और उसे निखारने की प्रक्रिया . वो हर शिशु जो जन्मता है एक सन्देश लेकर आता है . शिक्षा उस सन्देश को ग्रहण करने उससे साक्षात्कार का औचित्य है . यह किसी के जैसा बनने का मंत्र नहीं . यह खुद के बनने का साधन है . यह मानव के द्वारा बड़ी बड़ी चीजों के करने का साधन नहीं है . यह छोटी छोटी चीजें वृहत्तम करने का यज्ञ है . एक बार शरीर के विभिन्न अंगों में अपनी महत्ता को लेकर विवाद हो गया . आँख, हाथ, पैर, जिह्वा, मस्तिष्क, पेट, मुख सबने अपनी-अपनी महत्ता जताने के लिए कार्य करना बंद कर दिया. फलस्वरूप शरीर ने कार्य बंद कर दिया. इस विशाल सृष्टि की काया के हम सब अलग-अलग अंग है. हर अंग अपनी-अपनी जगह अपना-अपना कार्य करेगा. मस्तिष्क का जो आकार और कार्य है वह-वही करेगा. वह हाथ का आकार नहीं ग्रहण कर सकता न ही उसका कार्य कर सकता है. अगर हर मनुष्य औषधि की खोज करने लग गए जाये तो उसका उत्पादन कौन करेगा. उसे एक स्थान से दूसरे पर कौन ले जायेगा? कौन उसे वितरित करेगा? कौन उसे खायेगा? कौन उसके आय व्यय का हिसाब रखेगा? हमें संगीतकार भी चाहिए और चिकित्सक भी. मनोवैज्ञानिक भी और मसखरा भी. कलाकार भी और सैनिक भी. हमें हर कार्य के लिए होनहार की जरुरत है. हमें हर हुनर के लिए होनहार की जरुरत है. हमें नए हुनर की जरुरत है. अगर सब अभियंता बन गए. तो हमें संगीत, चित्र, औषधि, वनस्पति, धातु, अंक सबमें अभियांत्रिकी ही मिलेगी. गेंदा, जुही, कमल, गुलाब, रात-रानी, गुलमोहर, चंपा , चमेली हर उद्यान में हर फूल खिलने दें . गेंदा को गुलाब और गुलाब को गेंदा बनाने की जिद छोड़नी होगी.
एक बार नागपुर से हावड़ा ट्रेन यात्रा में एक जर्मन युवती जो अपनी माँ के साथ भारत भ्रमण पर थी मुलाकात हुई . चर्चा के दौरान बातों-बातों में पता चला वहाँ ज्यादातर युवक-युवती स्कूल तक ही शिक्षा ग्रहण करते है. हां स्कूल शिक्षा में वर्ष सबके लिए अलग-अलग होते है. यह इसपर निर्भर करता है कि उन्होंने क्या पेशा चुना है. वह युवती वस्त्र डिजाइन का पाठ्यक्रम कर रही है/ थी . उसके अनुसार वहाँ छात्र आधा समय कक्षा में और आधा समय अपने चुने हुए पेशे के अनुसार उद्योग में व्यतीत करते है. पेशे के अनुसार स्कूली शिक्षा १५-१६ वर्षों तक जारी रहती है. उसने बताया कि विश्वविद्यालय में वही पढने जाते है जिनकी दिलचस्पी शोध में है. और जो समझते है वे इसके काबिल या योग्य है. बाकि लोग स्कूल में रहकर अपने चुने हुए पेशे का हुनर सीख कर उद्योग में लग जाते है. मालूम नहीं जर्मन युवती सच कह रही थी या नहीं. क्या सचमुच जर्मनी में ऐसी शिक्षा प्रणाली थी या है पता नहीं. पर उसके झूठ बोलने की कोई वजह भी तो नहीं थी. पर लगा जर्मनी में शिक्षा का बाज़ार अपने ग्राहक कि जरुरत के अनुसार ठीक-ठाक कार्य कर रहा है. ग्राहक की बातचीत में कोइ द्वेष या मलाल नहीं था. कोई असंतोष भी उसके स्वर में नहीं पाया. जो जर्मनी की शिक्षा के बारे में जानते है वे इस बात कि तस्दीक करेंगे तो ठीक रहेगा.
दूसरे देश के शिक्षा जगत से मेरा साबका न के बराबर है. बस सुनी-सुनी बाते है. मेरे पिता के मामाजी श्री श्याम सुन्दर जोशी. लोग उन्हें श्यामू सन्यासी के नाम से जानते है. आजसे लगभग तीन दशक पूर्व , वो शायद सिर्फ इंटर पास थे, टोक्यो विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक नियुक्त हुए. उस समय उनकी उम्र ६०-६५ वर्ष रही होगी. उस उम्र में वहाँ रहते हुए उन्होंने ऐक्युप्रेशर की डाक्टरी पढाई में प्रवेश लिया था. और कालांतर में नागासाकी में एक चिकित्सक के रुप में कार्य भी किया. अन्य देशो की शिक्षा प्रणाली के ऐसे स्पर्श मुझे अचंभित जरुर करते है. हमारे देश की शिक्षा प्रणाली भी अचंभित करती है पर अपनी तरह से.
हमारे यहाँ बाज़ार में ग्राहक ने अपने को बाज़ार के अनुरूप ढाल लिया है आज़ादी के बाद पनपी समाजवादी सोच ने जीवन के हर पहलू पर अपना शिकंजा कसा . सरकार के बाहर कुछ भी नहीं था . नौकरियाँ सरकारी थीं . कला सरकारी थी . शिक्षा सरकारी थी . खेल सरकारी थे . संस्कृति सरकारी थी . सरकारी तंत्र में कौशल या हुनर की जरूरत सतही ज्ञान तक ही सीमित है. इनकी आवश्यकता न के बराबर थी . प्रजातंत्र में बहुमत की बात ही की जा रही है . कक्षा १२ वीं में इतिहास का विद्यार्थी था . पढ़ा था . दिल्ली के सुल्तान सूबों में सूबेदार नियुक्त करते थे . और सूबेदार ज़मींदार . आप लगान पहुंचाते रहिये और अपनी ज़मींदारी आप कैसे चलाते हैं इससे न सूबेदार को कुछ लेना देना था न सुल्तान को . न ही इससे की दिल्ली का लगान जुटाने के ऐवज में आप अपने लिए कितना लगान वसूलते हैं . आपकी जवाबदेही कहीं नहीं थी . हाँ आपकी वफ़ादारी की पूरी परख जरूर की जाती थी . निजी उद्योग भी इसी कसौटी पर जीते या मरते थे . हुनर , कौशल , काबीलियत अतिरेक पूर्ण बातें थी . न ये साधन थे ना साध्य . कमजोर राजा को कभी भी काबिल मंत्री नहीं भाये . वे खतरे की घंटी थे . उन्हें सुल्तान सल्तनत से , सूबेदार सूबेदारी से , और ज़मींदार अपनी ज़मींदारी से पहले मौके पर दूर खदेड़ देते . स्वयं की सुरक्षा पुख्ता करने के लिए . दरबारों में वैसे भी विदूषक , भांड , स्वांगी , विरदावली या प्रशस्ति गायकों के पनपने की परंपरा रही है . अन्य बिरले योग्यता - तंत्रों में लोगों को हुनर के साथ ओहदे प्रदत्त किये जाते हैं . पर ज़मींदारी प्रथा में ओहदा हुनर का पर्याय मान लिया जाता है .मसलन साधारण तौर पर जो विज्ञान में शोध या अनुसंधान का कार्य करता है उसे वैज्ञानिक कहते हैं . पर यहाँ वैज्ञानिक एक ओहदा होकर रह गया है . आप सारा जीवन इस ओहदे के साथ विज्ञान से कोसों दूर रहकर वैज्ञानिक की तरह हाव-भाव दिखाकर या उसके जैसा अभिनय करके सफलता पूर्वक गुज़ार सकते हैं . हाँ जी-हुजूरी , चापलूसी से गुरेज महंगा पड़ सकता है . वैसे भी हमारे प्रजातंत्र में टंकण या आशुलिपि के अलावा अन्य किसी कौशल परीक्षा का चयन करते वक्त आयोजन नहीं होता . सब मौखिक आचरण हैं . और टंकण और / या आशुलिपि जानने वाले सुल्तान , सूबेदार , या ज़मींदार के निजी सचिवों की अगाध शक्तिसम्पन्नता और प्रभावशीलता पर आज़ादी से अब तक पर एक पूरा महाकाव्य लिखा जा सकता है . अगर आपका ओहदा लेखा –परीक्षक का है तो अगर न आप लेखा जानते हैं न परीक्षण . कुछ व्यवधान नहीं होगा . प्रवेश के लिए चाहिए उपाधि . जिसे आप हासिल कर अपनी योग्यता प्रमाणित कर चुके हैं . ओहदा पाकर आप में हुनर भी आ ही जायेगा .
ऐसे वातावरण में मित्रों की माने तो – किस किस को सोचिये , किस किस को रोइए , आराम बड़ी चीज है , मुंह ढँक कर सोइए . पर ग्राहक के लिए इस वातावरण में बाजार जो लाया वह सार –संक्षेप में इस प्रकार है .
- ज्यादातर उच्च शिक्षा सरकारी क्षेत्र में रही.
- ज्यादातर उच्च शिक्षा संस्थानों के लाइसेंस, परमिट, कोटा राजनीतिज्ञों , नौकरशाहो या छोटे मोटे कारोबारीयों ने हस्तगित कर लिए.
- इनके लिए यह करना अज्ञात स्रोतों के अर्जित आय को जायज करने का उपक्रम भी था.
- इस क्षेत्र में अभियांत्रिकी की लालसा ग्राहक में ज्यादा थी और इसके साथ प्रबंधशास्त्र का आकर्षण. अतएव इन की ज्यादातर दुकाने बाज़ार में आई.
- चिकित्साशास्त्र की भी मांग कम नहीं है. पर इसमे निवेश भी ज्यादा है.
- AICTE और MCI यूँ ही कुख्यात नहीं हुए.
- बहुत से शिक्षाविद् और शिक्षाशास्त्री या शिक्षा जगत से जुड़े लोग भी इस बाज़ार में आ गए.
- शोध कर देखें ज्यादातर संस्थानों के प्रवर्ता कौन हैं.
- बाज़ार, संस्थान, उपाधि सब पर नियंत्रण की पहचान बना 'मान्यता प्राप्त'.
- हमारे यहाँ नकली वह भी नवाजा गया जो असली से कहीं बेहतर होने पर भी 'मान्यता प्राप्त' नहीं की श्रेणी में था.
- डिग्रियाँ, हर तरह की डिग्रियाँ, डिग्रियाँ ही डिग्रियाँ उपलब्ध की गईं.
- मान्यता प्राप्त डिग्रियों के लिए मान्यता प्राप्त संस्थान जरुरी थे.
- मान्यता लेना देना एक व्यावसायिक गतिविधी हो गयी .
- मान्यता प्राप्त संस्थान मान्यता प्राप्त डिग्री के साथ गैर मान्य भी खपाने लगे.भोले-भाले ग्राहकों को .
- एक राज्य ने एक वर्ष में सैकड़ों विश्वविद्यालय बनाने की शीर्षक पंक्ति भी बनाई.
- इसमे भी कुछ अग्रणी और फिसड्डी राज्य साबित हुए. पांच राज्यों (महाराष्ट्र और चार दक्षिण के ) में ६३% अभियांत्रिकी महाविद्यालय हैं .
- मान्यता प्राप्त संस्थानों ने मान्यता प्राप्त उपाधि वितरण के लिए देश-विदेश में एजेंट नियुक्त कर दिए.
- सैकड़ो प्रवेश परीक्षा, सैकड़ो प्रवेश के आवेदन पत्र, सैकड़ो परीक्षाओ के सैकड़ो केंद्र, सभी परीक्षाओं के लिए सैकड़ो प्रश्न पत्र, प्रश्न पत्र बनाने वाले , उनके मूल्यांकनकर्ता, परीक्षा की प्रक्रिया संपन्न करने वाले, फार्म बेचने वाले केंद्र, रिज़ल्ट भेजने वाले वेबसाइट और टेलिकॉम कंपनिया. सब अपने-अपने हिस्से का पैसा बटोर रहे हैं.
- जहाँ प्रवेश परीक्षा नहीं अंक . वहाँ हर कोई ज्यादा से ज्यादा अंक देने और अंक पाने की जुगत में लगा रहता है और पकड़े जाने पर भोले माता पिता कहते है वो नहीं जानते थे. 'अंक तालिका नकली है'. प्रतिशत बढ़ता गया. सत्तर, अस्सी, नब्बे और फिर सौ में सौ. और वह भी खुदरा नहीं थोक में. सैकड़ो , जो सौ में सौ पा रहे हैं. यह होड़ एक राज्य से दूसरे राज्य में फ़ैल गई. मेरी कमीज तुम्हारी कमीज से सफ़ेद कैसे. अब ग्राहक में क्षोभ/ कुंठा इस बात से है की ९८-९९ प्रतिशत पाकर भी वह पायदान में काफी नीचे है.
- अब कुछ संस्थान जो मान्यता नहीं प्राप्त कर सके वो विदेशी संस्थानों का नाम अपने से जोडने लगे है. स्थानापन्न के तौर पर.
- कुछ जो उपाधि के कारोबार में नहीं आ सके वो प्रमाणन में उतर गए. और कुछ विदेशी प्रमाणन की तर्ज पर हमनाम या मिलते जुलते नाम के प्रमाणन आरंभ करके.
- और फिर बॉम्बे क्लब की तर्ज पर विदेशी संस्थाओं के आने पर विरोध के स्वर मुखरित हुए. भारतीय उद्योग के संरक्षण के नाम पर.
- उच्च शिक्षा में शिक्षा पर ध्यान कम था. परीक्षा मुख्य हो गयी. अतएव जाहिर था प्रश्नपत्र गुपचुप तौर पर और खुलेआम बिकने का कारोबार भी हुआ.
- उच्च शिक्षा में नियुक्ति के लिए डाक्टर की उपाधि की अनिवार्यता के साथ इसे देने-दिलाने का व्यवसाय भी फला फूला.
- जो वास्तव में उच्च शिक्षा चाहते थे वे उन बाजारों का रुख कर गए जहाँ यह उपलब्ध थी.
- तकनीकी शिक्षा के उच्चतम शिखर भारतीय तकनीकी संस्थान का कोई बिरला स्नातक ही वहाँ स्नातकोत्तर / डाक्टरेट उपाधि का प्रयास करता है. क्यों ? उस शिखर में चार-पांच साल बिताकर उससे रूबरू होने के बावजूद. जबकि देश का यह गौरव है. जहाँ करोड़ो की पूंजी लगती है. जहा ऊँची-ऊँची उपाधि वाले ऊँची तनख्वाहो और सहूलियतो से नियोग होते है. जिन्हें सरकारी शोध का बड़ा हिस्सा भी बाँटा जाता है. प्राप्य है .
- इस उच्च शिक्षा नियुक्ति में जातीय, क्षेत्रीय, और खेमाबंदी जिसे कुछ लोग माफ़िया तक कह डालते है शामिल होते है. पुत्र, दामाद नियुक्ति का भाई-भतीजावाद . जिसमे नियुक्ति के मानकों में शिथिलता का अपवाद भी शामिल है. प्रो. सी. एन. आर. राव जो यू. पी. ए. सरकार में प्रधानमंत्री की वैज्ञानिक सलाह परिषद के अध्यक्ष है उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया की एक विश्वविद्यालय के एक विभाग में विभागाध्यक्ष से लेकर सब प्राध्यापक सिंह उपनाम के है. या किसी राज्य में कुलपति नियुक्ति कुल के उपनाम पर निर्धारित होती है .
- देश में लंबे काल तक कांग्रेस का शासन रहा है. और साम्यवादी देशों के खेमे से नजदीकी रही है. साम्यवादी पार्टियों से सहयोगिता / भागीदारी रही है. अतएव आश्चर्य क्या कि उच्च शिक्षा के अनेक संस्थानों में साम्यवादी विचारधारा के प्राध्यापक, कुलपति, इतिहासकार, छात्र राजनीती कि राजनैतिक पार्टिया बहुतायत से विराजमान हों. कांग्रेसी राजनीतिज्ञ तो वैसे भी स्टीफन , दून स्कूलों, कैम्ब्रिज, ऑक्सफोर्ड की परंपरा के रहे हैं. सहयोगियों में शांतिपूर्ण सहअस्तित्व इस भांति भी तो विद्यमान हो सकता है.
- इसके विपरीत दक्षिण पंथी ज्योतिष शास्त्र, सरस्वती वंदना , वन्देमातरम, सूर्य नमस्कार, और ताजमहल हिंदू परंपरा का निर्माण था. पर शोध करते व्यस्त रहे.
- शिक्षा में एक झगड़ा भाषा का रहा. कुछ प्रदेशो में यह उर्दू विरोधी, अंग्रेजी विरोधी के रूप में सामने आया. और कही-कही हिंदी विरोधी के रूप में. बंगाल में अभी हाल में ऐतिहासिक भूल को सुधार कर किश्तों में अंग्रेजी माध्यम को वापिस लाया जा रहा है.
- विज्ञान में पढ़ाई और शोध, पदार्थो, प्रक्रियाओं, विचारों, यंत्रों, औजारों और बुद्धि के चिंतन द्वारा संपन्न होता है या यह इस बात पर निर्भर होता है कि हम उसे किस भाषा में पुकारते या व्यक्त करते है? जर्मनी, जापान, फ़्रांस इसमें भाषायी औचित्य को अंगूठा दिखा चुके है. और चीन को हमारे उद्योगपति, नौकरशाह , शिक्षाविद, अंग्रेजी ज्ञान में हमसे काफी पिछड़ा बताकर गौरवान्वित ही होते है.
- भारत कि सौ करोड़ जनता को साक्षर बनाने में इतने पापड़ बेलने पड़ रहे है. इन्हें अंग्रेजी साक्षर बनाने में तो शायद सदियाँ लग जाएँ.
- शिक्षा विशेषज्ञ स्कूली शिक्षा जहाँ पाठ्यपुस्तको का खरीद वितरण एक दुधारी गाय कि तरह पूजी जाती है. उसी तरह उच्च शिक्षा संस्थान जहाँ करोड़ो की शोधग्रंथो और किताबो की आपूर्ति शोध का विषय है.
- पिछले दशकों में उच्च शिक्षा संस्थानों और कतिपय विद्यालयों में संगणक शिक्षा, संगणक खरीद, स्थानीय क्षेत्र जालक्रम, ब्रॉड-बैंड खरीद, नेटवर्क बिछाना और उसकी देख रेख संस्थान, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर एक और दुधारी गाय की नई नस्ल के रूप में उभरी है.
- निचले स्तरों पर यह आपरेशन ब्लैक-बोर्ड, साक्षरता मिशन, प्रौढ़- शिक्षा, मिड-डे-मील की दुधारी गायों की नयी नस्लो के रूप में उभरी है.
हो सकता है बाज़ार के बहुत से पहलू जो ग्राहक की मांग को रखकर सामने आए हैं छूट गए हों . पर जब हम उत्पादकों की बात करेंगे. और बाज़ार के नियंत्रक और संचालक की बात करेंगे तो इन पर गौर होगा. अब ग्राहक को लेकर स्वस्थ / प्रतियोगी बाज़ार हेतु कुछ मूल प्रस्तावना रखूँगा.
- स्कूली शिक्षा में पूरा समाज सहभागिता करे .
- स्कूल निवास स्थलों के पास हों . जिससे स्थानीय समाज उसमे भागीदारी कर सके . सबके बच्चों के लिए एक ही विद्यालय हों . नौकरशाह , गरीब , उद्योगपति , व्यापारी , श्रमिक , मध्यमवर्ग , राजनेता सबके .
- सबके शामिल होने से उसमे शिक्षा की तिलांजलि के अवसर कम होंगे .
- स्कूली शिक्षा मातृ भाषा में हो . शोधकर्ताओं के अनुसार शिशु भाषा तेजी से सीखता है . अतेव उन्हें कई कई देशी विदेशी भाषा सीखने के अवसर उपलब्ध कराएँ जाएँ .
- शिक्षा उम्र के लिहाज से नहीं बुद्धि विकास की गति से हो .
- शिक्षा छात्र के ग्रहण करने की गति से हो .
- ज्यादा तेज ग्रहण करने वालों को आगे बढ़ा दिया जाये .
- जिज्ञासा और प्रश्न करने और उत्तर खोजने की प्रवृत्ती को बढ़ावा दिया जाये .
- शिक्षा किसी भी स्तर पर वजनी न लगे .
- हर स्कूल जाने वाली वयस् का शिशु विद्यालय में हो .
- शिक्षा का खर्च माता –पिता उठायें . उनकी सामर्थ्य न होने पर समाज . और स्वयंसेवी संस्थाएं . और बाकि सबका सरकार . खर्च विद्यार्थी को दिया जाये . या उसकी तरफ से विद्यालय को .
- उच्च शिक्षा का पूर्ण लाभ व्यक्ति उठाता है . या उसके परिजन . आर्थिक लाभ . ज्ञान संवर्धन वापस समाज को अवश्य जाता है . अतैव व्यय व्यक्ति पर हो .
- ऋण उपलब्ध हो .
- जिन संकायों की मांग कम है उन्हें बढ़ावा देने को संस्थाएं या सरकार यह ऋण मेधाव्रृति के रूप में दे सकती है . बाज़ार भी विशेष कालखण्ड या स्थापित क्षमता के उपयोग या किसी उत्पाद के न सरकने पर ग्राहकों को प्रलोभन या छूट देता ही है . इससे मांग और आपूर्ति में संतुलन लाया जाता है .
- उच्च शिक्षा और शोध के लिए रुचि और क्षमता ही अनिवार्यता हो . हमारे सबसे उर्वर मस्तिष्कों को ज्ञान – संवर्धन के लिए आकर्षित करना ही होगा . सारी बंदिशें हटानी होंगी . सारे बहानों की गुंजाईश खत्म करनी होगी . यह आगे की पीढ़ी और सभ्यता के विकास के लिए सबसे महत्वपूर्ण तत्त्व और कदम है .
- शोध और ज्ञान या शिक्षा के विभाजन को खत्म करना होगा . शोध को संस्थागत सहूलियतें देते हुए भी ज्ञान की पिपासा और ज्वाला से जूझते एकल व्यक्ति को सौंप देना होगा .
- उपाधि की अनिवार्यता समाप्त की जाये . कौशल या हुनर की ओर जाया जाये . शिक्षा ही नहीं पूरे समाज को योग्यता मुखी बनाना होगा .
- छात्र संस्थाओं के जीवन से राजनीती को समाप्त किया जाये .
- छात्र उच्च शिक्षा के छात्र वयस्क मस्तिष्क के प्रतिभाशाली काफी जिम्मेदार व्यक्तिव हैं . उन्हें प्रबंधन , समागमों , आयोजनों का भार सौंप देना चाहिए .
- प्रवेश परीक्षा एक ही हो . और वह भी योग्यता – रुझान की परख के लिए .
- ज्ञान - प्रतिभा के अलावा प्रतिभा और व्यक्तित्व के अन्य पक्षों को भी तरजीह दी जाये .
- उपाधि की अनिवार्यता के बदले कौशल की अनिवार्यता हेतु व्यावसायिक शिक्षण पर ध्यान दे . स्कूली और व्यावसायिक शिक्षा को एकीकृत करना होगा . स्कूली शिक्षा का सैद्धांतिक पक्ष विद्यालय में और प्रायोगिक पक्ष संबद्ध उद्योग में हो .
- इससे शिक्षा और उद्योग की जरूरतों में सामंजस्य हो पायेगा . उनमे अंतर भी पट जायेगा .
- हर पेशे के लिए विद्यालय हो . संगीत के गुरुकुल , नाट्य ग्राम , हस्तशिल्प के गुरु इन सब अनौपचारिक शिक्षा समूलों को लोकाचार शिक्षण में संकल करना होगा .
- हर पेशे के लिए प्रमाणन का प्रबंध हो . ताकि विद्यालयों द्वारा प्रदत्त शिक्षा का स्वतंत्र प्रमाणन हो सके .
- मूल्य देने वाला स्वयं लागत-लाभ का विश्लेषण कर लेता है . और बाज़ार को उत्पाद सही कीमत पर , उचित गुणवत्ता का देने पर मजबूर करता है . यह उसके उत्पादकों को निपुण और दक्ष भी बनाता है .
- मूल्य देने वाला जवाबदेही भी लाता है अपने प्रति . वह इसकी मांग भी करता है . यह स्वायत्तता को स्वछंदता में परिवर्तित होने को भी स्वयमेव नियंत्रित करता है .
- उच्च गुणवत्ता वाले अपनी गुणवत्ता के संवर्धन के लिए और उसे निरंतर प्रश्रित करने के लिए उच्च गुणवत्ता की चाह वाले ग्राहकों को किसी भी कीमत पर अपने प्रतिद्वंदियों के पास नहीं जाने देते . शिक्षा के बाज़ार में शिक्षा का ग्राहक (छात्र ) उत्पाद का हिस्सा भी जो ठहरा . वह उत्पाद का सृजक , स्वयं उत्पाद , और उसका उपभोक्ता भी है .
- इसी लिए विश्वविद्यालय ऐसी प्रयोगशालाएं ज्यादा हैं जहाँ प्रशिक्षु और शिक्षक मिलकर नए सृजन का प्रयोग करते हैं . न की ऐसे कारखाने जहाँ मशीन में एक ओर कच्चा माल डाला जाये और और दूसरी तरफ से तैयार माल निकल आये .
- ऐसे संस्थान ऐसी प्रतिभा की खोज भी करेंगे . और संभावनों की पहचान भी . ताकि पारस के उपयोग से धातु सोना हो जाये .
- शिक्षा धीरे सीखने वालों को दौड़ा कर उनके आत्मबोध को न तोड़े . और उन्हें कुंठा के सागर में गोते लगाने के लिए न छोड़े. और शिक्षा अतिमेधावी विरलों को उनके पाँव बांधकर उनकी उड़ान के पर न काटे .शिष्यों को तदनुसार गुरुओं को सौंपकर ही समाज वृहत्तर उद्देश्यों को प्राप्त कर सकेगा .
- कक्षा वैसे भी औसत के पैमाने पर संगोष्ठीत है . यह औसत विद्यार्थियों के समूह से ही न्याय कर पाती है . औसत से कुछ ज्यादा नीचे या औसत से कही ऊपर के विद्यार्थीयों के लिए विशेषज्ञ शिक्षक और विशेष शिक्षा प्रबंध की जरूरत है . यह उन्हें औसत या सामान्य से परे ढकेलनेवाला आयोजन नहीं है . यह सामान्य से हटकर विशेष प्रबंध की जरूरत की ओर इंगित है . यह उनके लिए भी आवश्यक है . बाध्यता कदापि नहीं .
ग्राहक पर बहस इतनी ही . आगे शिक्षा के उत्पादकों , उनकी संरचना , अधोरचना, उद्देश्यों , गतिविधियों , प्रबंधन पर नज़र दौड़ाएंगे . ग्राहक अब स्वतंत्र है .
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