6 अगस्त 2010

शिक्षा एक वस्तु – ग्राहक या खरीदार (अंश ३ क्रमशः)


असल में शिक्षा का मूल है हर व्यक्ति की अपने व्यक्तित्व से पहचान . अपनी संभावनाओं को पहचानने , परखने और उसे निखारने की प्रक्रिया . वो हर शिशु जो जन्मता है एक सन्देश लेकर आता है . शिक्षा उस सन्देश को ग्रहण करने उससे साक्षात्कार का औचित्य है . यह किसी के जैसा बनने का मंत्र नहीं . यह खुद के बनने का साधन है . यह मानव के द्वारा बड़ी बड़ी चीजों के करने का साधन नहीं है . यह छोटी छोटी चीजें वृहत्तम करने का यज्ञ है . एक बार शरीर के विभिन्न अंगों में अपनी महत्ता को लेकर विवाद हो गया . आँख, हाथ, पैर, जिह्वा, मस्तिष्क, पेट, मुख सबने अपनी-अपनी महत्ता जताने के लिए कार्य करना बंद कर दिया. फलस्वरूप शरीर ने कार्य बंद कर दिया. इस विशाल सृष्टि की काया के हम सब अलग-अलग अंग है. हर अंग अपनी-अपनी जगह अपना-अपना कार्य करेगा. मस्तिष्क का जो आकार और कार्य है वह-वही करेगा. वह हाथ का आकार नहीं ग्रहण कर सकता न ही उसका कार्य कर सकता है. अगर हर मनुष्य औषधि की खोज करने लग गए जाये तो उसका उत्पादन कौन करेगा. उसे एक स्थान से दूसरे पर कौन ले जायेगा? कौन उसे वितरित करेगा? कौन उसे खायेगा? कौन उसके आय व्यय का हिसाब रखेगा? हमें संगीतकार भी चाहिए और चिकित्सक भी. मनोवैज्ञानिक भी और मसखरा भी. कलाकार भी और सैनिक भी. हमें हर कार्य के लिए होनहार की जरुरत है. हमें हर हुनर के लिए होनहार की जरुरत है. हमें नए हुनर की जरुरत है. अगर सब अभियंता बन गए. तो हमें संगीत, चित्र, औषधि, वनस्पति, धातु, अंक सबमें अभियांत्रिकी ही मिलेगी. गेंदा, जुही, कमल, गुलाब, रात-रानी, गुलमोहर, चंपा , चमेली हर उद्यान में हर फूल खिलने दें . गेंदा को गुलाब और गुलाब को गेंदा बनाने की जिद छोड़नी होगी.
एक बार नागपुर से हावड़ा ट्रेन यात्रा में एक जर्मन युवती जो अपनी माँ के साथ भारत भ्रमण पर थी मुलाकात हुई . चर्चा के दौरान बातों-बातों में पता चला वहाँ ज्यादातर युवक-युवती स्कूल तक ही शिक्षा ग्रहण करते है. हां स्कूल शिक्षा में वर्ष सबके लिए अलग-अलग होते है. यह इसपर निर्भर करता है कि उन्होंने क्या पेशा चुना है. वह युवती वस्त्र डिजाइन का पाठ्यक्रम कर रही है/ थी . उसके अनुसार वहाँ छात्र आधा समय कक्षा में और आधा समय अपने चुने हुए पेशे के अनुसार उद्योग में व्यतीत करते है. पेशे के अनुसार स्कूली शिक्षा १५-१६ वर्षों तक जारी रहती है. उसने बताया कि विश्वविद्यालय में वही पढने जाते है जिनकी दिलचस्पी शोध में है. और जो समझते है वे इसके काबिल या योग्य है. बाकि लोग स्कूल में रहकर अपने चुने हुए पेशे का हुनर सीख कर उद्योग में लग जाते है. मालूम नहीं जर्मन युवती सच कह रही थी या नहीं. क्या सचमुच जर्मनी में ऐसी शिक्षा प्रणाली थी या है पता नहीं. पर उसके झूठ बोलने की कोई वजह भी तो नहीं थी. पर लगा जर्मनी में शिक्षा का बाज़ार अपने ग्राहक कि जरुरत के अनुसार ठीक-ठाक कार्य कर रहा है. ग्राहक की बातचीत में कोइ द्वेष या मलाल नहीं था. कोई असंतोष भी उसके स्वर में नहीं पाया. जो जर्मनी की शिक्षा के बारे में जानते है वे इस बात कि तस्दीक करेंगे तो ठीक रहेगा.
दूसरे देश के शिक्षा जगत से मेरा साबका न के बराबर है. बस सुनी-सुनी बाते है. मेरे पिता के मामाजी श्री श्याम सुन्दर जोशी. लोग उन्हें श्यामू सन्यासी के नाम से जानते है. आजसे लगभग तीन दशक पूर्व , वो शायद सिर्फ इंटर पास थे, टोक्यो विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक नियुक्त हुए. उस समय उनकी उम्र ६०-६५ वर्ष रही होगी. उस उम्र में वहाँ रहते हुए उन्होंने ऐक्युप्रेशर की डाक्टरी पढाई में प्रवेश लिया था. और कालांतर में नागासाकी में एक चिकित्सक के रुप में कार्य भी किया. अन्य देशो की शिक्षा प्रणाली के ऐसे स्पर्श मुझे अचंभित जरुर करते है. हमारे देश की शिक्षा प्रणाली भी अचंभित करती है पर अपनी तरह से.
हमारे यहाँ बाज़ार में ग्राहक ने अपने को बाज़ार के अनुरूप ढाल लिया है आज़ादी के बाद पनपी समाजवादी सोच ने जीवन के हर पहलू पर अपना शिकंजा कसा . सरकार के बाहर कुछ भी नहीं था . नौकरियाँ सरकारी थीं . कला सरकारी थी . शिक्षा सरकारी थी . खेल सरकारी थे . संस्कृति सरकारी थी . सरकारी तंत्र में कौशल या हुनर की जरूरत सतही ज्ञान तक ही सीमित है. इनकी आवश्यकता न के बराबर थी . प्रजातंत्र में बहुमत की बात ही की जा रही है . कक्षा १२ वीं में इतिहास का विद्यार्थी था . पढ़ा था . दिल्ली के सुल्तान सूबों में सूबेदार नियुक्त करते थे . और सूबेदार ज़मींदार . आप लगान पहुंचाते रहिये और अपनी ज़मींदारी आप कैसे चलाते हैं इससे न सूबेदार को कुछ लेना देना था न सुल्तान को . न ही इससे की दिल्ली का लगान जुटाने के ऐवज में आप अपने लिए कितना लगान वसूलते हैं . आपकी जवाबदेही कहीं नहीं थी . हाँ आपकी वफ़ादारी की पूरी परख जरूर की जाती थी . निजी उद्योग भी इसी कसौटी पर जीते या मरते थे . हुनर , कौशल , काबीलियत अतिरेक पूर्ण बातें थी . न ये साधन थे ना साध्य . कमजोर राजा को कभी भी काबिल मंत्री नहीं भाये . वे खतरे की घंटी थे . उन्हें सुल्तान सल्तनत से , सूबेदार सूबेदारी से , और ज़मींदार अपनी ज़मींदारी से पहले मौके पर दूर खदेड़ देते . स्वयं की सुरक्षा पुख्ता करने के लिए . दरबारों में वैसे भी विदूषक , भांड , स्वांगी , विरदावली या प्रशस्ति गायकों के पनपने की परंपरा रही है . अन्य बिरले योग्यता - तंत्रों में लोगों को हुनर के साथ ओहदे प्रदत्त किये जाते हैं . पर ज़मींदारी प्रथा में ओहदा हुनर का पर्याय मान लिया जाता है .मसलन साधारण तौर पर जो विज्ञान में शोध या अनुसंधान का कार्य करता है उसे वैज्ञानिक कहते हैं . पर यहाँ वैज्ञानिक एक ओहदा होकर रह गया है . आप सारा जीवन इस ओहदे के साथ विज्ञान से कोसों दूर रहकर वैज्ञानिक की तरह हाव-भाव दिखाकर या उसके जैसा अभिनय करके सफलता पूर्वक गुज़ार सकते हैं . हाँ जी-हुजूरी , चापलूसी से गुरेज महंगा पड़ सकता है . वैसे भी हमारे प्रजातंत्र में टंकण या आशुलिपि के अलावा अन्य किसी कौशल परीक्षा का चयन करते वक्त आयोजन नहीं होता . सब मौखिक आचरण हैं . और टंकण और / या आशुलिपि जानने वाले सुल्तान , सूबेदार , या ज़मींदार के निजी सचिवों की अगाध शक्तिसम्पन्नता और प्रभावशीलता पर आज़ादी से अब तक पर एक पूरा महाकाव्य लिखा जा सकता है . अगर आपका ओहदा लेखा –परीक्षक का है तो अगर न आप लेखा जानते हैं न परीक्षण . कुछ व्यवधान नहीं होगा . प्रवेश के लिए चाहिए उपाधि . जिसे आप हासिल कर अपनी योग्यता प्रमाणित कर चुके हैं . ओहदा पाकर आप में हुनर भी आ ही जायेगा .
ऐसे वातावरण में मित्रों की माने तो – किस किस को सोचिये , किस किस को रोइए , आराम बड़ी चीज है , मुंह ढँक कर सोइए . पर ग्राहक के लिए इस वातावरण में बाजार जो लाया वह सार –संक्षेप में इस प्रकार है .
  1. ज्यादातर उच्च शिक्षा सरकारी क्षेत्र में रही.
  2. ज्यादातर उच्च शिक्षा संस्थानों के लाइसेंस, परमिट, कोटा राजनीतिज्ञों , नौकरशाहो या छोटे मोटे कारोबारीयों ने हस्तगित कर लिए.
  3. इनके लिए यह करना अज्ञात स्रोतों के अर्जित आय को जायज करने का उपक्रम भी था.
  4. इस क्षेत्र में अभियांत्रिकी की लालसा ग्राहक में ज्यादा थी और इसके साथ प्रबंधशास्त्र का आकर्षण. अतएव इन की ज्यादातर दुकाने बाज़ार में आई.
  5. चिकित्साशास्त्र की भी मांग कम नहीं है. पर इसमे निवेश भी ज्यादा है.
  6. AICTE और MCI यूँ ही कुख्यात नहीं हुए.
  7. बहुत से शिक्षाविद् और शिक्षाशास्त्री या शिक्षा जगत से जुड़े लोग भी इस बाज़ार में आ गए.
  8. शोध कर देखें ज्यादातर संस्थानों के प्रवर्ता कौन हैं.
  9. बाज़ार, संस्थान, उपाधि सब पर नियंत्रण की पहचान बना 'मान्यता प्राप्त'.
  10. हमारे यहाँ नकली वह भी नवाजा गया जो असली से कहीं बेहतर होने पर भी 'मान्यता प्राप्त' नहीं की श्रेणी में था.
  11. डिग्रियाँ, हर तरह की डिग्रियाँ, डिग्रियाँ ही डिग्रियाँ उपलब्ध की गईं.
  12. मान्यता प्राप्त डिग्रियों के लिए मान्यता प्राप्त संस्थान जरुरी थे.
  13. मान्यता लेना देना एक व्यावसायिक गतिविधी हो गयी .
  14. मान्यता प्राप्त संस्थान मान्यता प्राप्त डिग्री के साथ गैर मान्य भी खपाने लगे.भोले-भाले ग्राहकों को .
  15. एक राज्य ने एक वर्ष में सैकड़ों विश्वविद्यालय बनाने की शीर्षक पंक्ति भी बनाई.
  16. इसमे भी कुछ अग्रणी और फिसड्डी राज्य साबित हुए. पांच राज्यों (महाराष्ट्र और चार दक्षिण के ) में ६३% अभियांत्रिकी महाविद्यालय हैं .
  17. मान्यता प्राप्त संस्थानों ने मान्यता प्राप्त उपाधि वितरण के लिए देश-विदेश में एजेंट नियुक्त कर दिए.
  18. सैकड़ो प्रवेश परीक्षा, सैकड़ो प्रवेश के आवेदन पत्र, सैकड़ो परीक्षाओ के सैकड़ो केंद्र, सभी परीक्षाओं के लिए सैकड़ो प्रश्न पत्र, प्रश्न पत्र बनाने वाले , उनके मूल्यांकनकर्ता, परीक्षा की प्रक्रिया संपन्न करने वाले, फार्म बेचने वाले केंद्र, रिज़ल्ट भेजने वाले वेबसाइट और टेलिकॉम कंपनिया. सब अपने-अपने हिस्से का पैसा बटोर रहे हैं.
  19. जहाँ प्रवेश परीक्षा नहीं अंक . वहाँ हर कोई ज्यादा से ज्यादा अंक देने और अंक पाने की जुगत में लगा रहता है और पकड़े जाने पर भोले माता पिता कहते है वो नहीं जानते थे. 'अंक तालिका नकली है'. प्रतिशत बढ़ता गया. सत्तर, अस्सी, नब्बे और फिर सौ में सौ. और वह भी खुदरा नहीं थोक में. सैकड़ो , जो सौ में सौ पा रहे हैं. यह होड़ एक राज्य से दूसरे राज्य में फ़ैल गई. मेरी कमीज तुम्हारी कमीज से सफ़ेद कैसे. अब ग्राहक में क्षोभ/ कुंठा इस बात से है की ९८-९९ प्रतिशत पाकर भी वह पायदान में काफी नीचे है.
  20. अब कुछ संस्थान जो मान्यता नहीं प्राप्त कर सके वो विदेशी संस्थानों का नाम अपने से जोडने लगे है. स्थानापन्न के तौर पर.
  21. कुछ जो उपाधि के कारोबार में नहीं आ सके वो प्रमाणन में उतर गए. और कुछ विदेशी प्रमाणन की तर्ज पर हमनाम या मिलते जुलते नाम के प्रमाणन आरंभ करके.
  22. और फिर बॉम्बे क्लब की तर्ज पर विदेशी संस्थाओं के आने पर विरोध के स्वर मुखरित हुए. भारतीय उद्योग के संरक्षण के नाम पर.
  23. उच्च शिक्षा में शिक्षा पर ध्यान कम था. परीक्षा मुख्य हो गयी. अतएव जाहिर था प्रश्नपत्र गुपचुप तौर पर और खुलेआम बिकने का कारोबार भी हुआ.
  24. उच्च शिक्षा में नियुक्ति के लिए डाक्टर की उपाधि की अनिवार्यता के साथ इसे देने-दिलाने का व्यवसाय भी फला फूला.
  25. जो वास्तव में उच्च शिक्षा चाहते थे वे उन बाजारों का रुख कर गए जहाँ यह उपलब्ध थी.
  26. तकनीकी शिक्षा के उच्चतम शिखर भारतीय तकनीकी संस्थान का कोई बिरला स्नातक ही वहाँ स्नातकोत्तर / डाक्टरेट उपाधि का प्रयास करता है. क्यों ? उस शिखर में चार-पांच साल बिताकर उससे रूबरू होने के बावजूद. जबकि देश का यह गौरव है. जहाँ करोड़ो की पूंजी लगती है. जहा ऊँची-ऊँची उपाधि वाले ऊँची तनख्वाहो और सहूलियतो से नियोग होते है. जिन्हें सरकारी शोध का बड़ा हिस्सा भी बाँटा जाता है. प्राप्य है .
  27. इस उच्च शिक्षा नियुक्ति में जातीय, क्षेत्रीय, और खेमाबंदी जिसे कुछ लोग माफ़िया तक कह डालते है शामिल होते है. पुत्र, दामाद नियुक्ति का भाई-भतीजावाद . जिसमे नियुक्ति के मानकों में शिथिलता का अपवाद भी शामिल है. प्रो. सी. एन. आर. राव जो यू. पी. ए. सरकार में प्रधानमंत्री की वैज्ञानिक सलाह परिषद के अध्यक्ष है उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया की एक विश्वविद्यालय के एक विभाग में विभागाध्यक्ष से लेकर सब प्राध्यापक सिंह उपनाम के है. या किसी राज्य में कुलपति नियुक्ति कुल के उपनाम पर निर्धारित होती है .
  28. देश में लंबे काल तक कांग्रेस का शासन रहा है. और साम्यवादी देशों के खेमे से नजदीकी रही है. साम्यवादी पार्टियों से सहयोगिता / भागीदारी रही है. अतएव आश्चर्य क्या कि उच्च शिक्षा के अनेक संस्थानों में साम्यवादी विचारधारा के प्राध्यापक, कुलपति, इतिहासकार, छात्र राजनीती कि राजनैतिक पार्टिया बहुतायत से विराजमान हों. कांग्रेसी राजनीतिज्ञ तो वैसे भी स्टीफन , दून स्कूलों, कैम्ब्रिज, ऑक्सफोर्ड की परंपरा के रहे हैं. सहयोगियों में शांतिपूर्ण सहअस्तित्व इस भांति भी तो विद्यमान हो सकता है.
  29. इसके विपरीत दक्षिण पंथी ज्योतिष शास्त्र, सरस्वती वंदना , वन्देमातरम, सूर्य नमस्कार, और ताजमहल हिंदू परंपरा का निर्माण था. पर शोध करते व्यस्त रहे.
  30. शिक्षा में एक झगड़ा भाषा का रहा. कुछ प्रदेशो में यह उर्दू विरोधी, अंग्रेजी विरोधी के रूप में सामने आया. और कही-कही हिंदी विरोधी के रूप में. बंगाल में अभी हाल में ऐतिहासिक भूल को सुधार कर किश्तों में अंग्रेजी माध्यम को वापिस लाया जा रहा है.
  31. विज्ञान में पढ़ाई और शोध, पदार्थो, प्रक्रियाओं, विचारों, यंत्रों, औजारों और बुद्धि के चिंतन द्वारा संपन्न होता है या यह इस बात पर निर्भर होता है कि हम उसे किस भाषा में पुकारते या व्यक्त करते है? जर्मनी, जापान, फ़्रांस इसमें भाषायी औचित्य को अंगूठा दिखा चुके है. और चीन को हमारे उद्योगपति, नौकरशाह , शिक्षाविद, अंग्रेजी ज्ञान में हमसे काफी पिछड़ा बताकर गौरवान्वित ही होते है.
  32. भारत कि सौ करोड़ जनता को साक्षर बनाने में इतने पापड़ बेलने पड़ रहे है. इन्हें अंग्रेजी साक्षर बनाने में तो शायद सदियाँ लग जाएँ.
  33. शिक्षा विशेषज्ञ स्कूली शिक्षा जहाँ पाठ्यपुस्तको का खरीद वितरण एक दुधारी गाय कि तरह पूजी जाती है. उसी तरह उच्च शिक्षा संस्थान जहाँ करोड़ो की शोधग्रंथो और किताबो की आपूर्ति शोध का विषय है.
  34. पिछले दशकों में उच्च शिक्षा संस्थानों और कतिपय विद्यालयों में संगणक शिक्षा, संगणक खरीद, स्थानीय क्षेत्र जालक्रम, ब्रॉड-बैंड खरीद, नेटवर्क बिछाना और उसकी देख रेख संस्थान, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर एक और दुधारी गाय की नई नस्ल के रूप में उभरी है.
  35. निचले स्तरों पर यह आपरेशन ब्लैक-बोर्ड, साक्षरता मिशन, प्रौढ़- शिक्षा, मिड-डे-मील की दुधारी गायों की नयी नस्लो के रूप में उभरी है.

    हो सकता है बाज़ार के बहुत से पहलू जो ग्राहक की मांग को रखकर सामने आए हैं छूट गए हों . पर जब हम उत्पादकों की बात करेंगे. और बाज़ार के नियंत्रक और संचालक की बात करेंगे तो इन पर गौर होगा. अब ग्राहक को लेकर स्वस्थ / प्रतियोगी बाज़ार हेतु कुछ मूल प्रस्तावना रखूँगा.
  1. स्कूली शिक्षा में पूरा समाज सहभागिता करे .
  2. स्कूल निवास स्थलों के पास हों . जिससे स्थानीय समाज उसमे भागीदारी कर सके . सबके बच्चों के लिए एक ही विद्यालय हों . नौकरशाह , गरीब , उद्योगपति , व्यापारी , श्रमिक , मध्यमवर्ग , राजनेता सबके .
  3. सबके शामिल होने से उसमे शिक्षा की तिलांजलि के अवसर कम होंगे .
  4. स्कूली शिक्षा मातृ भाषा में हो . शोधकर्ताओं के अनुसार शिशु भाषा तेजी से सीखता है . अतेव उन्हें कई कई देशी विदेशी भाषा सीखने के अवसर उपलब्ध कराएँ जाएँ .
  5. शिक्षा उम्र के लिहाज से नहीं बुद्धि विकास की गति से हो .
  6. शिक्षा छात्र के ग्रहण करने की गति से हो .
  7. ज्यादा तेज ग्रहण करने वालों को आगे बढ़ा दिया जाये .
  8. जिज्ञासा और प्रश्न करने और उत्तर खोजने की प्रवृत्ती को बढ़ावा दिया जाये .
  9. शिक्षा किसी भी स्तर पर वजनी न लगे .
  10. हर स्कूल जाने वाली वयस् का शिशु विद्यालय में हो .
  11. शिक्षा का खर्च माता –पिता उठायें . उनकी सामर्थ्य न होने पर समाज . और स्वयंसेवी संस्थाएं . और बाकि सबका सरकार . खर्च विद्यार्थी को दिया जाये . या उसकी तरफ से विद्यालय को .
  12. उच्च शिक्षा का पूर्ण लाभ व्यक्ति उठाता है . या उसके परिजन . आर्थिक लाभ . ज्ञान संवर्धन वापस समाज को अवश्य जाता है . अतैव व्यय व्यक्ति पर हो .
  13. ऋण उपलब्ध हो .
  14. जिन संकायों की मांग कम है उन्हें बढ़ावा देने को संस्थाएं या सरकार यह ऋण मेधाव्रृति के रूप में दे सकती है . बाज़ार भी विशेष कालखण्ड या स्थापित क्षमता के उपयोग या किसी उत्पाद के न सरकने पर ग्राहकों को प्रलोभन या छूट देता ही है . इससे मांग और आपूर्ति में संतुलन लाया जाता है .
  15. उच्च शिक्षा और शोध के लिए रुचि और क्षमता ही अनिवार्यता हो . हमारे सबसे उर्वर मस्तिष्कों को ज्ञान – संवर्धन के लिए आकर्षित करना ही होगा . सारी बंदिशें हटानी होंगी . सारे बहानों की गुंजाईश खत्म करनी होगी . यह आगे की पीढ़ी और सभ्यता के विकास के लिए सबसे महत्वपूर्ण तत्त्व और कदम है .
  16. शोध और ज्ञान या शिक्षा के विभाजन को खत्म करना होगा . शोध को संस्थागत सहूलियतें देते हुए भी ज्ञान की पिपासा और ज्वाला से जूझते एकल व्यक्ति को सौंप देना होगा .
  17. उपाधि की अनिवार्यता समाप्त की जाये . कौशल या हुनर की ओर जाया जाये . शिक्षा ही नहीं पूरे समाज को योग्यता मुखी बनाना होगा .
  18. छात्र संस्थाओं के जीवन से राजनीती को समाप्त किया जाये .
  19. छात्र उच्च शिक्षा के छात्र वयस्क मस्तिष्क के प्रतिभाशाली काफी जिम्मेदार व्यक्तिव हैं . उन्हें प्रबंधन , समागमों , आयोजनों का भार सौंप देना चाहिए .
  20. प्रवेश परीक्षा एक ही हो . और वह भी योग्यता – रुझान की परख के लिए .
  21. ज्ञान - प्रतिभा के अलावा प्रतिभा और व्यक्तित्व के अन्य पक्षों को भी तरजीह दी जाये .
  22. उपाधि की अनिवार्यता के बदले कौशल की अनिवार्यता हेतु व्यावसायिक शिक्षण पर ध्यान दे . स्कूली और व्यावसायिक शिक्षा को एकीकृत करना होगा . स्कूली शिक्षा का सैद्धांतिक पक्ष विद्यालय में और प्रायोगिक पक्ष संबद्ध उद्योग में हो .
  23. इससे शिक्षा और उद्योग की जरूरतों में सामंजस्य हो पायेगा . उनमे अंतर भी पट जायेगा .
  24. हर पेशे के लिए विद्यालय हो . संगीत के गुरुकुल , नाट्य ग्राम , हस्तशिल्प के गुरु इन सब अनौपचारिक शिक्षा समूलों को लोकाचार शिक्षण में संकल करना होगा .
  25. हर पेशे के लिए प्रमाणन का प्रबंध हो . ताकि विद्यालयों द्वारा प्रदत्त शिक्षा का स्वतंत्र प्रमाणन हो सके .
  26. मूल्य देने वाला स्वयं लागत-लाभ का विश्लेषण कर लेता है . और बाज़ार को उत्पाद सही कीमत पर , उचित गुणवत्ता का देने पर मजबूर करता है . यह उसके उत्पादकों को निपुण और दक्ष भी बनाता है .
  27. मूल्य देने वाला जवाबदेही भी लाता है अपने प्रति . वह इसकी मांग भी करता है . यह स्वायत्तता को स्वछंदता में परिवर्तित होने को भी स्वयमेव नियंत्रित करता है .
  28. उच्च गुणवत्ता वाले अपनी गुणवत्ता के संवर्धन के लिए और उसे निरंतर प्रश्रित करने के लिए उच्च गुणवत्ता की चाह वाले ग्राहकों को किसी भी कीमत पर अपने प्रतिद्वंदियों के पास नहीं जाने देते . शिक्षा के बाज़ार में शिक्षा का ग्राहक (छात्र ) उत्पाद का हिस्सा भी जो ठहरा . वह उत्पाद का सृजक , स्वयं उत्पाद , और उसका उपभोक्ता भी है .
  29. इसी लिए विश्वविद्यालय ऐसी प्रयोगशालाएं ज्यादा हैं जहाँ प्रशिक्षु और शिक्षक मिलकर नए सृजन का प्रयोग करते हैं . न की ऐसे कारखाने जहाँ मशीन में एक ओर कच्चा माल डाला जाये और और दूसरी तरफ से तैयार माल निकल आये .
  30. ऐसे संस्थान ऐसी प्रतिभा की खोज भी करेंगे . और संभावनों की पहचान भी . ताकि पारस के उपयोग से धातु सोना हो जाये .
  31. शिक्षा धीरे सीखने वालों को दौड़ा कर उनके आत्मबोध को न तोड़े . और उन्हें कुंठा के सागर में गोते लगाने के लिए न छोड़े. और शिक्षा अतिमेधावी विरलों को उनके पाँव बांधकर उनकी उड़ान के पर न काटे .शिष्यों को तदनुसार गुरुओं को सौंपकर ही समाज वृहत्तर उद्देश्यों को प्राप्त कर सकेगा .
  32. कक्षा वैसे भी औसत के पैमाने पर संगोष्ठीत है . यह औसत विद्यार्थियों के समूह से ही न्याय कर पाती है . औसत से कुछ ज्यादा नीचे या औसत से कही ऊपर के विद्यार्थीयों के लिए विशेषज्ञ शिक्षक और विशेष शिक्षा प्रबंध की जरूरत है . यह उन्हें औसत या सामान्य से परे ढकेलनेवाला आयोजन नहीं है . यह सामान्य से हटकर विशेष प्रबंध की जरूरत की ओर इंगित है . यह उनके लिए भी आवश्यक है . बाध्यता कदापि नहीं .  
जानता हूँ मेरी प्रस्तावना में ज्यादातर विचार आदर्शवादी हैं . कपोल-कल्पित समाज का दिवा-स्वप्न . पर इधर आर्थिक क्रांति की तर्ज पर शैक्षणिक जगत में भी शैक्षणिक सुधारों की हलचल है . सब अपनी पतंग उड़ा रहे हैं . मैं अकिंचन क्यों पीछे रहूँ ? आखिर १८-१९ वर्ष छात्र रहा हूँ . पांच वर्ष शिक्षण किया है . और विगत सत्रह वर्षों से शोध संस्थानों और उच्च शिक्षा जगत में विचरण कर रहा हूँ . शिक्षा , मनोविज्ञान , दर्शन , संस्कृति , साहित्य , अर्थव्यवस्था पसंदीदा विषय रहे हैं . इनसे संबंधित बहस आकर्षित करती है . वाक्-विवाद करता हूँ . टिपण्णी करता हूँ . घटनाओं , धारा , और प्रव्रृत्ति पर नज़र रखता हूँ . सम्बंधित समाचारों पर दृष्टिपात है . पत्रों , परिपत्रों , शोधपत्रों , संगोष्ठियों , वार्तालापों , साक्षात्कारों , लेखों, प्रतिवेदनों का संग्रह करता हूँ , पढता और सुनता भी हूँ . देश – विदेश सब जगहों के .
ग्राहक पर बहस इतनी ही . आगे शिक्षा के उत्पादकों , उनकी संरचना , अधोरचना, उद्देश्यों , गतिविधियों , प्रबंधन पर नज़र दौड़ाएंगे . ग्राहक अब स्वतंत्र है .

1 टिप्पणी:

  1. Education in India is supposed to be old fashioned and teaches by rote but India's children find jobs everywhere and are much sought to run the IT in many nations...I heard that Japan's IT is run by 22,000 Indians!

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