17 फ़रवरी 2012

प्रेम

देह है 
दैहिक है 
दहकता है 
मस्तिष्क से पैर 
शिराओं में तरल 
बहता लावा
देह वन में दावानल 
देहयष्टि 
पोर-पोर अंगारा
एक टुकड़ा  
होंठों पै 
अब भी दग्ध है 
एक टुकड़ा 
कनपटी से चिपका 
आसपास गालों तक 
रोम-रोम 
तप्त है 
सुर्ख हैं  
रक्ताभ कपोल 
जिस्म का ज्वार !
बहती है स्वेद की क्षीण धार !!
यह क्या है ह्रदय का उदगार !!!
प्रेम है 
लौकिक है 
ललकता है 
आँखों में 
थिरता है 
बैचेन एकलता है
रीझना , रूठना , मनाना
सजना , संवरना, इठलाना 
समझना , समझाना 
वृथा बहलाना 
खेल , खिलौना , खेलना 
उम्र का बचपना 
सृष्टी की रचना 
ऐसी ही है संरचना 
पिहु-पिहु पुकारना 
चकोर का ताकना 
मन की सरलता 
मन का जोड़ना 
विश्व क्या द्वैत है ?
शाश्वत द्वन्द 
ये नश्वर काया 
जो पाया   
क्या माया   
यह कैसा भोग ?
प्रेम क्यों रोग ??
क्या कहते ज्ञानी 
प्रेम की क्या बानी  
एक ही वचन बोल 
प्रिये ! सिर्फ तुमसे है प्यार !
ले कोई प्रियतम पुकार !!
ढाई आखर आखिरकार !!!


(१४ फरवरी का बुखार उतरने के बाद )

2 टिप्‍पणियां:

आपके समय के लिए धन्यवाद !!

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