21 मई 2010

तुम , मैं , और कविता

तुम , मैं , और कविता 
यह कैसा रिश्ता ?
हमारे बीच गुजरे मौन के पल ,
या गरमा गरम संवाद ,
पत्रों का लेनदेन ,
या चौपाटी की साँझे की भेल,
नहीं यह सब नहीं कविता  .
मैं , मै था ,
तुम, तुम थी ,
अनायास और बेवजह थी कविता .
एक हँसता हुआ चेहरा ,
एक दर्द भरी हंसी ,
एक टूटा हुआ रिश्ता ,
एक बेबाक किस्सा ,
एक नन्ही  परी,
एक छोटी घड़ी ,
एक सुरम्य दृश्य ,
एक भावना अदृश्य .
यह थी कविता .
इसमें ना तुम थी ,
ना मै था .
कविता कोई घाव ,
या मलहम नहीं ,
कविता कोई गाँव या शहर नहीं ,
कविता - नदी है ,
जो गदराये बदन वाली युवती की तरह 
बाढ़ में उफनती है , बहती है .
कविता - आंधी  है ,
जो धरती , आकाश , और समुद्र 
को झकझोर कर चली जाती है .
कविता हजारों  शंखों  , घंटियों , नगाड़ों 
का समिल्लित शोर है ,
जो मन को डूबा देता है .
कविता एक स्वप्न है ,
सुन्दर है , साकार है , मूर्त है .
कविता औघड़  है , अवधूत है .
कविता मथुरा  है, काशी है ,
कविता ब्रह्म है , अविनाशी है .
हम है मंदराचल पर्वत से लिपटे हुए ,
शेषनाग की तरह ,
जिसे खिंचा जायेगा ,
समुद्र मंथन के लिए ,
ताकि निकले अमृत या हलाहल विष .
और खोजा जाये 
एक शिव 
जिसके गले में डालकर उसे ,
बना दे ,
नाम दे ,
एक सुन्दर पक्षी का ,
नील कंठ .
लो मिल गया शीर्षक .
हो गयी कविता .
जब भी तुम्हारी याद आई ,
या आया बसंत ,
या दिखा एक चेहरा खिलखिलाता ,
मैं क्या करता ?
तुम क्या करती ?
क्या करती कविता ?
बन ही जाता रिश्ता .

2 टिप्‍पणियां:

आपके समय के लिए धन्यवाद !!

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