30 जुलाई 2010

शिक्षा एक वस्तु – ग्राहक या खरीदार (अंश ३)

पिछले अंश में हमने देखा की किस प्रकार उच्चशिक्षा में प्रवेश महज एक औपचारिकता रह गयी है. या दूसरे शब्दों में यह परिणति है उस युद्ध की जो स्कूली शिक्षा के वयस् में हमारे छात्र लड़ते हैं . ऐसा नहीं की यहाँ कोई युद्ध नहीं लड़ा जाता . असल में इस चक्रव्यूह से निकलने का अंजाम तो इस चक्रव्यूह में प्रवेश के पहले ही तय हो जाता है . और मैं देख रहा हूँ की इसमें सफलता के निहितार्थ भारतीय माता –पिता चक्रव्यूह में सफलता के लिए इस युद्ध को वर्ष दर वर्ष आगे की ओर धकेलते जा रहे हैं . पहले इसकी तैय्यारी स्कूली शिक्षा के अंतिम वर्ष में होती थी . फिर यह सरककर नौवी – दसवीं कक्षा पर खिसक गयी . फिर आठवीं .

क्या पता हमारे काल में जन्मे अभिमन्यु को इस कला का ज्ञान गर्भ में  रहने के दौरान ही देने का दौर भी आ जाये . अभी २२ वर्षीय एक नौजवान जो किसी भारतीय तकनीकी संस्थान में प्राध्यापक के तौर पर नियुक्त हुआ है – अच्छा नाम है तथागत अवतार तुलसी . किसी साक्षात्कार में उनके सन्दर्भ में पढ़ा की – वह योजनाबद्ध रूप से महान हैं . अतिशयोक्ति हो सकता है पर समाचार नज़रों में आ ही जातें हैं की जन्म के साथ साथ अच्छे स्कूल में दाखिले के लिए माता –पिता नाम लिखा आये .घुटनों के बल चलते शिशु को स्कूल जाते देखने का प्रयास करें तो निराश नहीं हों शायद .



मैं जानता हूँ पिछले अंश के कुछ पाठकों को लगा होगा की यह कह रहा है की हम शिक्षा एक वस्तु के बारे में अपने आप को उच्चशिक्षा तक सीमित रखेंगे और फिर पूरी किश्त स्कूली शिक्षा के बारे में बहस करते समाप्त कर दी. असल में स्वामी विवेकानंद का संकलन ज्ञानयोग पढ़ा था . उसमे वह समझाते हैं. बीज में ही वृक्ष के आकार , पत्तों , कलियों , फलों , फलों के स्वाद , फूलों की गंध , तने का आकार सब कुछ निहित है . वृक्ष बीज में ही समाया हुआ है . यह बात स्वामीजी ने ब्रह्माण्ड के क्रमिक विकास को समझाने हेतु कही थी . तात्पर्य यह था की जिस महाविस्फोट से ब्रह्मांड की उत्पति हुई है . क्रमिक विकास से उसके गर्भ से आकाशगंगा , निहारिकायें , सैकड़ों सूर्य , तारों का जन्म हो रहा है तब किसी अवस्था में ठीक इसके विपरीत क्रिया महासंकुचन से यह सब उसमे समाये होंगे . जैसे ब्लैक-होल या तिमिरछिद्र सब लील लेता है . स्वामी जी कहते हैं हर क्रमिक विकास की परिणति क्रमिक संकुचन ही होगा . अगर एक न हो दूसरा हो ही नहीं सकता . इसलिए सोचा विकास (इवोल्यूशन) से पहले इन्वोल्यूशन को समझना उचित होगा . 
 
इसी तरह उच्च शिक्षा के विकास को समझाने से पूर्व हमें स्कूली शिक्षा पर समय व्यतीत करना पड़ा. उच्चशिक्षा के ग्राहक भारत में उच्चशिक्षा के बाज़ार में क्यों आते हैं ? और उच्चशिक्षा के किस माल पर उनकी नज़र है . यह तो हमने देख लिया की उच्चशिक्षा के अलग अलग उत्पाद का वर्गीकरण सीधे सीधे आर्थिक सरोकारों से जुड़ा है . और इन सरोकारों से ही भारतीय मध्यमवर्ग ने उत्पादों का चयन कर लिया . और अपने सारे प्रयत्न ऊँचे से ऊँचे उत्पाद को पाने में लगा डाला . सारी कवायद सारे सरअंजाम सही – गलत किसी भी तरीके से ऊँचे से ऊँचे उत्पाद को पाने की होड़ में झोंक दिए जातें हैं . यह धर्मयुद्ध है . और युद्ध में सब जायज है . इसमें तीन वर्ष के बच्चे को शिशु विद्यालय/ नर्सरी में भर्ती करना . अपनी आँखों के तारों / कोख के जने को अपनी आँखों से दूर हैदराबाद या कोटा भेजने के लिए तैयार होना शामिल है . यहाँ हम भारतीय समाज की चर्चा कर रहे हैं .अमरीकी नहीं जहाँ मजाक में पिता ने प्री-स्कूल ग्रेजुएटिंग सेरेमनी से लौटकर आशा व्यक्त की शायद पुत्री  शीघ्र घर छोड़ दे .

पर जिस समाज में जहाँ जिस उत्पाद की इतनी मांग है वहाँ बाज़ार में इतनी मारकाट क्यों ? यह हमारी आज़ादी के बाद हमारे तंत्र पर छायी समाजवादी चिंतन प्रणाली की देन है . जिस चिंतन में माई-बाप सरकार ही सब कुछ है . और संयुक्त रूप से समाज का पुरुषार्थ माई-बाप सरकार और इस माध्यम से राजनीतिज्ञों , नौकरशाहों , चापलूसों , सुविधाभोगी , लगान – अभिलाषी , लाइसेन्स-परमिट-कोटा राज के भोग चढ़ गया . यह नहीं की इस दौर में सिर्फ सरकारी तंत्र ही उसका फायदा उठा रहा था . बाज़ार तो वैसे ही लाभ की ओर भागता है . और बहती गंगा में हाथ धोने की कहावत तो भारतीय समाज में वैसे ही बहु-परिचित और बहु-प्रचलित है . उस समय जब हर चीज सरकारी नियंत्रण में थी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से शायद इस पीढ़ी को ज्ञात न हो . चलिए एक झलक देख लें चलते – चलते . बजाज स्कूटर , जी हाँ "हमारा बजाज " . तब इसके लिए वेटिंग लिस्ट ( प्रतीक्षा – सूची) होती थी . लोग विवाह में दहेज के लिए स्कूटर की मांग पूरा करने के लिए इसे सिनेमा की टिकिट की तरह ब्लैक दे कर खरीदते थे . इस प्रतीक्षा सूची को आप छोटा कर सकते थे अगर आपका कोई परिचित विदेश में रहता हो और वो आपके लिए विदेशी मुद्रा का आयोजन कर दे . ऐसा ही पर्याय उस अदद चीज के लिए था जिसे हम हिंदी वाले दूरभाष और आम भारतीय टेलिफोन कहता है . वही प्रतीक्षा सूची . या फिर मंत्री-संत्री कोटा . या ओन – योर- टेलिफोन ( ओ.वाई.टी.) के अंतर्गत हज़ारों की रकम . वह टेलिफोन जिसके खराब होने पर आपको ठीक कराने के लिए हथेली गर्म करनी पड़ जाती थी . तीज – त्योहारों पर मान-मनौव्वल का व्यवहार रखना पडता था सो अलग . दो अलग उदाहरण . दोनों एक जैसे . नहीं फर्क है . एक नितांत निजी क्षेत्र की कंपनी और एक सरकारी संस्थान. और ग्राहक की एक सी नियति . यह तो बड़ी – बड़ी चीजों की बड़ी – बड़ी बातें हैं . छोटी चीजों की तरफ देखें तो शादी – ब्याह में पानी के अतिरिक्त टैंकरों या चीनी के लिए लोग मंत्री – मुख्यमंत्री तक के द्वार हो आते थे . नयी पीढ़ी के तो वारे-न्यारे हैं . दो-पहिया वाहन वाले निर्माता तरह – तरह की छूट देंगे , बीमा मुफ्त , पेट्रोल मुफ्त , रोड-टैक्स मुफ्त , अग्रिम राशि भी नहीं , बिना ब्याज के ऋण , किस्तों में भुगतान . और न जाने क्या – क्या . काश हम एक पीढ़ी बाद जन्म लेते . फोन भी इसी तरह . वह भी मोबाइल . घर घर में , बच्चे – बच्चे के पास . और सबसे कम दाम पर देने के बावजूद लोग दूरसंचार विभाग से दूर – ही – दूर जा रहे हैं . क्यों यह न आपकी चिंता है न हमारी . सोचिये अगर नहाने के साबुन पर समाजवादी विचारधारा का अंकुश होता तो आप कई – कई हफ्ते बिना नहाये रह जाते . या फिर मंत्री – मुख्यमंत्री या सांसद – विधायक के सिफारिशी पत्र के लिए भागते फिरते . और मेहमान को लिखते साबुन ले कर आयें कृपया . और बेटी की शादी होती तो शायद पुरे मोहल्ले से कहना पडता . कृपा कर एक –एक साबुन अपने अपने कोटे से दें. इससे ज्यादा आँखों में शर्म वाले मांग भी कैसे सकते थे . चीज ही ऐसी है . चोर साबुन की चोरी करते . और आप रपट लिखाते और कुछ मिले न मिले दारोगा जी पर यह साबुन आपको बरामद करना ही पड़ेगा . यह तो मज़ाक की बात हो गयी . पर कुछ बातें मजाक – मजाक में जल्दी समझ आ जाती हैं कभी – कभी .

पर इतना परिवर्तन आया कैसे ? निजी क्षेत्र वही है . बजाज भी वही है . सारा खेल मेरी कमबुद्धि की समझ में प्रतियोगिता का है . प्रतियोगिता ने , आर्थिक सुधारों ने टेलिफोन , उपभोक्ता सामग्री के बाज़ार में आमूलचूल परिवर्तन ला दिया है . ग्राहक की पौ-बारह हो गयी . दो पहिया वाहनों का सामग्री - बाजार या टेलिफोन का सेवा – बाज़ार . इसके ग्राहक की मांग के अनुरूप बाज़ार ने अपने को ढाल लिया . अब देखें शिक्षा का ग्राहक कैसा है ? और इसका बाजार क्या अपने को ढाल पायेगा ? और इस क्षेत्र को सुधार की बयार क्यों छोड़ गयी ? इन प्रश्नों से भी दो-चार होंगे पर पहले अपने ग्राहक को तो समझें . कहतें हैं "ग्राहक बाजार का राजा है ".

पर यह ग्राहक कितने किस्म का है ? बाजार के विशेषज्ञ अपने ग्राहकों का खण्ड-विन्यास चाहते हैं . इससे सुविधा होती है ग्राहकों का वर्गीकरण करना और उनका लक्ष्य साधन . कुछ ग्राहक शिक्षा चाहते हैं आजीविका या पेशे के लिए . कुछ शिक्षा जगत में आते हैं ज्ञान के लिए . कुछ समय व्यतीत करने के उद्देश्य से . कुछ ग्राहक आते हैं कुछ कौशल या हुनर सीखने के लिए . हमारे एक मित्र एक शैक्षिक उपाधि को लक्ष्य कर बोलते थे जमाई होने के लिए उपाधि . परिवर्तन कर उसे पुत्र-वधु उपाधि से भी नवाज़ा जा सकता है . वैसे भी विज्ञापनों में पढ़ने में आता ही है – पढ़ी – लिखी लड़की चाहिए . और वर के लिए विज्ञापन देने वाले लिखते ही हैं – कान्वेंट एजूकेटेड. उद्देश्य स्पष्ट है . और जब ये ग्राहक बाजार में दिख जाएँ तो उन्हें उनके हाव-भाव या व्यवहार से पहचाना भी आसानी से जा सकता है . अभी किसी समाचार में पढ़ा था भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान के एक छात्र ने शिक्षा पाने के पुरे पांच वर्षों में मात्र सत्रह कक्षाओं में उपस्थिती दर्ज कराई. पेशेवर छात्र जो छात्र – राजनीती में भाग लेने के लिए पूर्णकालिक तौर पर उच्चशिक्षा संस्थानों में भर्ती होते हैं उनसे भी हम परिचित ही हैं . कुछ जो पिता या परिवार का व्यवसाय संभालेंगे युवा अवस्था में समय बिताने के लिए दाखिला लेते हैं . कुछ विवाह की तैयारियों के लिए उपाधि ग्रहण करने के लिए इस में शामिल होते हैं . और इसके पूर्ण होने की प्रतीक्षा में काल व्यतीत करते हैं . कुछ लोग जो जीविका –साधन के लिए आतें हैं वह शिक्षा के हर सोपान के बाद इसके लिए प्रयास करते हैं . कुछ लोग तो दिल्ली जैसे शहरों में स्थित कुछ नामी-गिरामी विश्वविद्यालयों में महज इसलिए दाखिला लेते हैं की वहाँ छात्रावासों में रहना आर्थिक रूप से ज्यादा कारगर नुस्खा है . और ऐसी परंपरा भी विकसित हो गयी है . अपने इस कौशल को विज्ञापित करने के लिए संस्थान भी विज्ञापन देते हैं - की कितने छात्र कितनी मोटी तनख्वाहों पर परिसर पर साक्षात्कार द्वारा स्थान-नियोजन में सफल हुए . अब तो छात्र संस्था का चयन इसी बात से प्रभावित होकर करने लगे हैं . हमारे समाचार माध्यम भी हर वर्ष नौकरी आयोजन पर्व में ऐसे समाचारों को प्रमुखता से उछालते व्यस्त नजर आते हैं . और कुछ तो ऐसे मेलों का आयोजन करते हैं या इसमें सहभागिता करते हैं . अब तो बहुत से संस्थान अपने द्वारा प्रदान शिक्षा से जो हासिल नहीं कर पाए इस प्रयास में सफलता के लिए सुसज्ज्ति करने की कवायद करते हैं . इसमें कुछ सरकारी संस्थान निजी संस्थानों की मदद भी लेते हैं . जो छात्र सरकारी नौकरी के लिए लालायित रहते हैं या थे वो सब आई. ए. ऐस., से शुरू करके बैंक अधिकारी , मैनेजमेंट प्रशिक्षु , बैंक लिपिक , सरकारी लिपिक और चयन आयोग द्वारा सारे आयोजनों के अभ्यर्थी हो जाते हैं और निष्ठापूर्वक इनके फ़ार्म भरते हैं और इसमें शामिल होते हैं . इन में शामिल होना एक मेले में शामिल होने जैसा होता है . वैसा ही उत्साह , पूरा का पूरा परिवार , वैसी ही चहल पहल . मेले में जाने के लिए जैसी भीड़ बसों या रेलों में दिखती है वैसा ही समझ आता है जब किसी संस्थान के बाहर छुट्टी वाले दिन मेला सा देखें . या रेलवेस्टेशन पर एक उम्र-विशेष लोगों का हुजूम तो समझ लें किसी प्रतियोगी – परीक्षा में भाग लेने वाली सेना कूच में है .

पहले कुछ नौकरियों के लिए टाइपिंग सीखना या शार्ट-हैण्ड सीखना भी कुछ लोगों के लिए शिक्षा से इतर एक अग्नि-परीक्षा या मजहबी रस्म थी . बाद में यह संगणक या कम्पयूटर सीखने के संस्कार का रूप ले चुकी .

कुछ लोग जो सक्षम थे खेल कूद में भाग लेते थे . क्योंकि कुछ नौकरियों में ऐसे लोगों के लिए आरक्षण था .ऐसे लोग प्रतियोगिताओं में भाग लेते और उसके प्रमाणपत्र इकठ्ठा करते . आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर शोध से यह साबित हो जाये की हमारे देश में कुछ खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन महज इसलिए किया जाता है जिससे उसमे भाग लेने वालों को इस तरह के प्रमाणपत्र जुटाने का मौका मिल सके .

ऐसी ही प्रव्रृत्ति देखी है उच्च पद के अभ्यर्थियों में . वहाँ सम्मान – उपाधि या गौरव –उपाधि या श्रेष्ठ – उपाधि या पुरस्कार जुगत का सामान बन जाते हैं . इसके लिए कुछ संस्थाएं पेशेवर तौर पर कार्य करती हैं . कुछ महानुभाव इसके लिए मूल्य भी देते हैं . और कुछ पुरस्कारों के बारे में तो यहाँ तक कहा जाता है की वो जान – पहचान या सिफारिश या चापलूसी या संजाल ( नेटवर्किंग) के मिलते ही नहीं . अभी कुछ दिनों से यह उन्माद अंतर-राष्ट्रीय प्रशस्तिपत्र या कौन क्या है पाने के रूप में सामने आया है . इसके लिए भी शुल्क है . यह सब हासिल कैसे ही न किया जाए पर यह आवेदन पत्र में बड़ी शान से दर्शाया जाता है .

शिक्षा के सन्दर्भ में हमारे और एक अभिन्न मित्र कहा करते थे की वो जीवन में बहुत से ऐसे लोगों से मिले जो बहुत साक्षर थे पर शिक्षित नहीं थे . और इसके विपरीत अनेक ऐसे थे जो साक्षर बिलकुल नहीं थे पर शिक्षित बहुत थे . कभी कभी लोग बहुत गूढ़ बात बहुत सामान्य तौर पर कह जाते हैं . और मैं भी छात्र जीवन में सोचता था कबीर , तुलसी , मीराबाई , सूरदास सब के सब बिना किसी उपाधि वाले पर इनपर शोध कर कर के न जाने कितने अनगिनत लोग डॉक्टर की उपाधि पा चुके . इस वर्ष भारतीय प्रौद्योगिक संस्थान द्वारा आयोजित प्रवेश परीक्षा बहुत से कारणों से प्रचार माध्यमों में लगातार चर्चा में है और उसमे एक खबर यह भी की घर में शिक्षित १४ वर्षीय एक किशोर ने दिल्ली क्षेत्र से इस परीक्षा में बैठ कर सर्व-भारतीय तालिका सूची में ३४ वां स्थान प्राप्त किया . नाम है सहल . यह तो विषयान्तर हो गया . चलिए लौटते हैं अपने ग्राहक की तरफ . पर साक्षरता अभियान और शिक्षा अभियान में फर्क को रेखांकित करके चलते हैं .

जब ग्राहक ने उपाधि को शिक्षा का प्रतिदान मान लिया . वह उपाधि जो कार्यरत होने के लिए आवश्यक हथियार है . उन्नति या प्रोन्नति का उपादान है . नौकरी में प्रवेश के लिए पार-पत्र या पासपोर्ट के समान हो गयी . तब उच्चशिक्षा धीरे – धीरे इस ओर विमुखित हो गयी . या भटक गयी . या दिशाहीन हो गयी . या शिक्षा का इस तरफ मतिभ्रम हो गया . लोग येनकेनप्रकारेण इसे पाने के लिए यत्नप्रद हो गए . और बाजार में इस मांग को पूरा करने के लिए बड़े आयोजन होने लगे . इस पिपासा को शांत करने के लिए बहुत उपक्रम हुए . कुंजियाँ आ गयीं , अपेक्षित प्रश्नावलियाँ बिकने लगीं , प्रश्न – बैंक इस कड़ी में आगे आये . परीक्षा में बैठने य पास कराने के ठेके लिए और दिए जाने लगे , नक़ल करने और करने वालों का एक उद्योग शुरू हो गया . जहाँ ऐसी सुविधाएँ थी ऐसे प्रदेशों में लोग जाकर परीक्षा देने लगे . छद्मनाम या छद्मवेशी होकर परीक्षा दी जाने लगी . नक़ल करना जन्मसिद्ध अधिकार हो गया . और अगर गूगल में "मास कॉपिंग" देकर भारतीय पृष्ठ तलाशा तो कुल ४३८० पृष्ठ मिल गए . अध्यापक , एक राज्य के डी.आई.जी., एक स्कूल , पूरा शहर , एक शहर, एक राज्य , माफिया, परिस्थति भयावह नहीं तो विषम जरूर है . यह परीक्षा में नक़ल का कारोबार स्कूल बोर्ड तक सीमित नहीं है . इसका विकास हुआ है . आखिर हम विकासशील देश हैं . यह अब विश्वविद्यालय और उससे आगे प्रवेश परीक्षाओं , और दिल थाम लें प्रतिभा-खोज परीक्षा में भी प्रतिभाशाली अपने जौहर दिखा रहे हैं . यह किसी एक राज्य या क्षेत्र का मामला नहीं है . यह विविधता में एकता का देश है . कश्मीर से केरल, गुजरात , राजस्थान , महाराष्ट्र, बंगाल कोई भी अछुता नहीं है . इस हमाम में सब नंगे हैं .

जो परीक्षा में नक़ल करके भी लक्ष्य को नहीं पा सके . उन्होंने इससे एक कदम आगे जाकर नक़ल उपाधि या नकली अंक सूची पर ही नजर गड़ा ली . अब इसके उदाहरण आप खुद गूगल द्वारा खोजने की जहमत कर लें . मैं इसमें आपकी मदद नहीं करूँगा . इसमें विश्वविद्यालय के कुलपति , कालेज के प्रधानाध्यापक , माता-पिता , राजनेता सब शामिल हैं . पड़ोसी देश से भी ऐसी खबरें आयीं . और उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया उपाधि तो उपाधि है उसमे नकली क्या असली क्या ? और जिस देश में विदेशी चीजों के प्रति विशेष लालसा हो वहाँ लोग नकली विदेशी उपाधियों के प्रति विशेष दुराग्रह रखें तो स्वाभाविक ही है . एक राज्य के उच्चन्यायालय ने केंद्र को नकली उपाधियों के खिलाफ जाँच करने को कहा है . और इससे भी आगे जाँच कर केंद्रीय जाँच विभाग ( सी.बी.आई ) ने गहन छान बीन के बाद अनुशंषा की है की सरकार ई-प्रमाणपत्र जारी करे . बात अगर यहीं तक सीमित रहती तो ठीक था . यह बीमारी तो चिकित्सा की नकली उपाधि तक आ पहुंची है . यह भी मांग है बाजार की . एक समाचार आया – नकली स्नातक – क्या आप उसे पहचान लेंगे ? पर इससे आगे एक दौड़ है . प्रवेश परीक्षा में सफलता पाने की महत्वाकांक्षा ने लोगों को वहाँ पहुंचा दिया जहाँ शून्य पाकर भी लोग सफल हैं ? और २४००० छात्र प्रवेश परीक्षा में तो सफल हो गए पर बोर्ड की परीक्षा में असफल . हर मंडल या बोर्ड ज्यादा से ज्यादा अंक देने की होड़ में शामिल है . और यह गुब्बारा भी शीघ्र फटने वाला है ऐसी शंकाएं व्यक्त की जा रही हैं . और बहुत ज्यादा अंक पाने वालों की अभिज्ञता भी पतली निकलती है . ग्राहक क्या करे ? बाज़ार उसे जो देता है वो उसे वैसे ही लपक लेता है . मैं ये उदाहरण सिर्फ एक उद्देश्य से दे रहा हूँ . आपको डराना मेरा मकसद कतई नहीं है . जिसके जीवन में ये रोज़मर्रा की घटनाएँ हो वो इन सब से क्या डरेगा और क्यों डरेगा ? मैं तो सिर्फ यह निष्कर्ष निकालना चाहता हूँ की अगर असल माल की प्राप्ति न हो और जरूरत हो तो लोग नकली माल भी किसी भी कीमत पे लेने को तैय्यार होते हैं . और लोग बेवजह शोर करते हैं ग्राहक को माल मुफ्त में चाहिए . या वह उसकी कीमत नहीं चुकाना चाहता . अब यह न कहियेगा ऊपर उल्लेखित ये सारे कारोबार बिना लेनदेन के संपन्न हो जाते हैं .

( आज इतना ही अगले हफ्ते इस चर्चा को आगे ले जायेंगे )

2 टिप्‍पणियां:

  1. आज दिनांक 7 अगस्‍त 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में आपकी यह पोस्‍ट यह युद्ध है शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्‍कैनबिम्‍ब देखने के लिए जनसत्‍ता पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें।

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  2. आज दिनांक 7 अगस्‍त 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में आपकी यह पोस्‍ट यह युद्ध है शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्‍कैनबिम्‍ब देखने के लिए जनसत्‍ता पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें।

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