मेरे अंदर छुपा बैठा है
एक शरारती बच्चा
अब भी भोला भाला है
अब भी थोड़ा कच्चा
थोड़ा सीधा सादा है
और बहुत कुछ अच्छा .
अब जब लोग बुलाते हैं
जाने क्या क्या कह जाते हैं
कुछ बातें दुनियादारी की
कुछ जीने की, कुछ तैय्यारी की
यानी , जीवन खेल नहीं है
यह एक संग्राम प्रबल है
सूरज एक आग का गोला है
चाँद नहीं तेरा मामा है
यहाँ सब प्रतिद्वंदी हैं
सबकी तलवारें नंगी हैं
और नही रहना भोला है
ले पहन बख्तर का जामा
मैं जैसे एक रणबांकुरा हूँ
अभिमन्यु की परम्परा हूँ
मुझको क्यों ढकेला जाता ?
चक्रव्यूह से क्या है नाता ?
मैं किसके सपनो की बलिवेदी हूँ ?
मैं किस यज्ञ की आहुति हूँ ?
मैं क्या एक खिलौना हूँ ?
बचपन है , बारिशें हैं
कुछ चूती दीवारें , थोड़े गीले कपड़े,
थोड़ी भीगी मिट्टी , थोड़ा बहता पानी
ऐसे भीगे रिश्ते हैं
क्या मूरख , क्या ज्ञानी
उड़ती चिड़िया , जलते जुगनू
रंगबिरंगी तितलियाँ छू लूँ
सूखे पत्ते , लाल कोंपलें
और हवा में अमराई
कुछ कोयल सी इठलाई
गुलमोहर सा सजा हुआ
इन्द्रधनुषी सपनों का वन
बादलों की अठखेलियों में
भालू बन्दर खरगोश रहे बन
निर्झर बहते झरनों में नहीं नहाया
खेतों में गन्नों से मुंह भी नहीं लगाया
नहीं चढ़ा शिवालों पर , नहीं दौड़ मस्ज़िदों में
दीप जला लूँ दिवाली के , गलबहियाँ ईदों में
थोड़ी कजरी सुनने दो, और जरा कव्वाली भी
थोड़ी पतंग उड़ाने दो , कुछ तो पेंच लड़ाने दो
रंगबिरंगी तस्वीरों वाली किताबें ला दो
मुझको काले पीले अक्षर से निजात दिला तो
नहीं रटना मुझे अभी कोई पहाडा
गर्म रजाई में रहने दो , लगता है जाड़ा
सुबह सुबह स्कूल की बातें क्यों करते हो
देखो मुंह से निकल रहा धुंआ क्या प्यारा
रात जलाकर बोरसी के सिरहाने चल बैठ चले
दादी की सुननी है बातें पसरे ठोर निट्ठले
जीवन जानूँ हूँ , न खेल तमाशा है
थोड़ा गणित और थोड़ी भाषा है
अभी बहुत कुछ देखा और कुछ बाकी है
जीवन क्या कोई सनीमा या बस एक झाँकी है
पर बच्चों को बूढ़ा होने से बचा लो
दादा को देखो बचपन की बातें करते हैं
अपने सारे संगी साथी बोले अच्छें हैं
कैसा खिल खिल जाते हैं
जब भी उनके किस्से हमें बताते हैं
जैसे कल की ही बातें करते हैं
याद हमें उनके सारे चर्चे हैं
लगता सिर्फ शरीर ही बूढ़ा होता है
मन की उम्र न घटती बढ़ती है
बचपन तो बचपन रहता है
शरीर ही शायद पचपन करता है
और बरस एक बीत रहा है आज कल में
एक बरस का तर्पण होगा समय जल में
आज का जवांन कल बूढ़ा होगा
छोरा छोरी बढ़ जायेंगे , छोरी छोरा ढूढा होगा
सब की प्रेम कहानी होगी , फिर वही मुई जवानी होगी
ऐसे ही कविता लंबी होती जायेगी
फिर इसकी चिंता हमें सतायेगी
ये सब पचड़े होते हैं, होते आये हैं
हम कहाँ नया महाकाव्य ले आये हैं
चलो थोड़ी चाट बटोरें , कुछ चूरन का चटकारा लें
थोड़ी अमिया बीने , थोड़े जामुन उतारा लें
थोड़ी होरी गा लें, थोड़े कन्चे चटका ले
थोड़े लट्टू फिरनी हों , कुछ डंडा- गिल्ली हो .
थोड़ी गुझिया , थोड़ी भांग छनाई हो
और हाथों में थोड़ी ठण्डाई हो
और मेरे बच्चे भी ऐसा लिख पायें
उनकी कविता फेसबुक , टवीटर , विडियो वाली हों
जैसी चाहे ईद हो उनकी या दबी दबी दिवाली हो
संक्षिप्त सन्देशो वाले इस युग में
बकबक फिर भी जारी हो
कुछ अब भी झगड़े हों
थोड़ी मान मनौव्वल हो
बच्चे आँख के तारें हों बचपन ना आँखों से ओझल हो !!
एक शरारती बच्चा
अब भी भोला भाला है
अब भी थोड़ा कच्चा
थोड़ा सीधा सादा है
और बहुत कुछ अच्छा .
अब जब लोग बुलाते हैं
जाने क्या क्या कह जाते हैं
कुछ बातें दुनियादारी की
कुछ जीने की, कुछ तैय्यारी की
यानी , जीवन खेल नहीं है
यह एक संग्राम प्रबल है
सूरज एक आग का गोला है
चाँद नहीं तेरा मामा है
यहाँ सब प्रतिद्वंदी हैं
सबकी तलवारें नंगी हैं
और नही रहना भोला है
ले पहन बख्तर का जामा
मैं जैसे एक रणबांकुरा हूँ
अभिमन्यु की परम्परा हूँ
मुझको क्यों ढकेला जाता ?
चक्रव्यूह से क्या है नाता ?
मैं किसके सपनो की बलिवेदी हूँ ?
मैं किस यज्ञ की आहुति हूँ ?
मैं क्या एक खिलौना हूँ ?
बचपन है , बारिशें हैं
कुछ चूती दीवारें , थोड़े गीले कपड़े,
थोड़ी भीगी मिट्टी , थोड़ा बहता पानी
ऐसे भीगे रिश्ते हैं
क्या मूरख , क्या ज्ञानी
उड़ती चिड़िया , जलते जुगनू
रंगबिरंगी तितलियाँ छू लूँ
सूखे पत्ते , लाल कोंपलें
और हवा में अमराई
कुछ कोयल सी इठलाई
गुलमोहर सा सजा हुआ
इन्द्रधनुषी सपनों का वन
बादलों की अठखेलियों में
भालू बन्दर खरगोश रहे बन
निर्झर बहते झरनों में नहीं नहाया
खेतों में गन्नों से मुंह भी नहीं लगाया
नहीं चढ़ा शिवालों पर , नहीं दौड़ मस्ज़िदों में
दीप जला लूँ दिवाली के , गलबहियाँ ईदों में
थोड़ी कजरी सुनने दो, और जरा कव्वाली भी
थोड़ी पतंग उड़ाने दो , कुछ तो पेंच लड़ाने दो
रंगबिरंगी तस्वीरों वाली किताबें ला दो
मुझको काले पीले अक्षर से निजात दिला तो
नहीं रटना मुझे अभी कोई पहाडा
गर्म रजाई में रहने दो , लगता है जाड़ा
सुबह सुबह स्कूल की बातें क्यों करते हो
देखो मुंह से निकल रहा धुंआ क्या प्यारा
रात जलाकर बोरसी के सिरहाने चल बैठ चले
दादी की सुननी है बातें पसरे ठोर निट्ठले
जीवन जानूँ हूँ , न खेल तमाशा है
थोड़ा गणित और थोड़ी भाषा है
अभी बहुत कुछ देखा और कुछ बाकी है
जीवन क्या कोई सनीमा या बस एक झाँकी है
पर बच्चों को बूढ़ा होने से बचा लो
दादा को देखो बचपन की बातें करते हैं
अपने सारे संगी साथी बोले अच्छें हैं
कैसा खिल खिल जाते हैं
जब भी उनके किस्से हमें बताते हैं
जैसे कल की ही बातें करते हैं
याद हमें उनके सारे चर्चे हैं
लगता सिर्फ शरीर ही बूढ़ा होता है
मन की उम्र न घटती बढ़ती है
बचपन तो बचपन रहता है
शरीर ही शायद पचपन करता है
और बरस एक बीत रहा है आज कल में
एक बरस का तर्पण होगा समय जल में
आज का जवांन कल बूढ़ा होगा
छोरा छोरी बढ़ जायेंगे , छोरी छोरा ढूढा होगा
सब की प्रेम कहानी होगी , फिर वही मुई जवानी होगी
ऐसे ही कविता लंबी होती जायेगी
फिर इसकी चिंता हमें सतायेगी
ये सब पचड़े होते हैं, होते आये हैं
हम कहाँ नया महाकाव्य ले आये हैं
चलो थोड़ी चाट बटोरें , कुछ चूरन का चटकारा लें
थोड़ी अमिया बीने , थोड़े जामुन उतारा लें
थोड़ी होरी गा लें, थोड़े कन्चे चटका ले
थोड़े लट्टू फिरनी हों , कुछ डंडा- गिल्ली हो .
थोड़ी गुझिया , थोड़ी भांग छनाई हो
और हाथों में थोड़ी ठण्डाई हो
और मेरे बच्चे भी ऐसा लिख पायें
उनकी कविता फेसबुक , टवीटर , विडियो वाली हों
जैसी चाहे ईद हो उनकी या दबी दबी दिवाली हो
संक्षिप्त सन्देशो वाले इस युग में
बकबक फिर भी जारी हो
कुछ अब भी झगड़े हों
थोड़ी मान मनौव्वल हो
बच्चे आँख के तारें हों बचपन ना आँखों से ओझल हो !!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपके समय के लिए धन्यवाद !!