20 जनवरी 2011

बातचीत बंद है

बहुत दिनों से
या फिर महीनों से
गुमसुम सी नदी से
उस संकरी गली से
बिछड़े शहर से
अपने घर से
बातचीत बंद है |
परचून की दुकान से
मंदिर के भगवान से
छत की मुंडेर से
कचनार - कनेर से
मस्जिद की मीनारों से
कबूतरबाज़ यारों से
बातचीत बंद है |
भावनाओं के अतिरेक में
आवेश में, आवेग में
अपनी बोली से
तानों - ठिठोली से
कर्कशा उदगारों से
संकीर्ण उच्चारों से
बातचीत बंद है |
हम दो मुल्कों में 
कसी हुई मुश्कों में 
मन में बंधी गाठों की 
घातों-प्रतिघातों की 
कपट चतुराई से 
ढोंगी लुनाई से
बातचीत बंद है |
वैसे भी लड़ने झगड़ने से
खांमखां अकड़ने से
फर्जी मुस्कान से
दिखावे के सम्मान से
खोखले निर्बंध से
अच्छा है - खत्म संबंध है
बातचीत बंद है |

18 जनवरी 2011

शब्द टूटे बिखरे

लड़खड़ाती आवाज़ 
गले  में अटके 
शब्द टूटे बिखरे
शुष्क हो चला गला .
तोड़े मरोड़े 
रास्तों पर नहीं 
अक्सर कालीन पर खड़े  
होकर पसीजती अंगुलियाँ 
माथे पर आता पसीना .
कुछ लम्हे मौसम को मुतासिर नहीं 
जैसे सर पै खिली गर्मियों की धूप 
या पलकों में बारिशों का मौसम 
भींगी  अलकों सी सावन की घटा 
सलोनी सूरत ,काले नैनों की छटा  
क्यों पोछें भींगी आँखों का कोना .
किसी की गुलाबों से खिली मुस्कराहट 
से महकी - महकी सी लगती फिजा 
किसी माथे पै सजा सिन्दूरी चाँद 
मेहन्दी रची हथेली से झांकता उसका अक्श
या मरमरी त्वचा से सूर्य की रक्ताभ लालिमा .
मैंने उन आँखों में पढ़ा 
कुछ सकुचाया सा लिखा
रेत पर बिखरी लकीरों सा लफ्ज़ 
जंगल में बिखरे पत्तों की पाती 
पेड़ों के झुरमुठों से छुपछुपाती चांदनी की कथा .
यूँ ही नहीं उतरे 
शब्द टूटे बिखरे .
कुरेद - कुरेद कर वृक्ष की त्वचा पर उकेरे 
मिलने की तिथी
भग्न अवशेषों में 
जीवन वृतांत की वीथी
अग्निकुण्ड में स्वाहा हो गए 
मंत्रोच्चार के सप्तपदों के साथ 
स्वप्न सुनहरे 
शब्द टूटे बिखरे. 
कुछ सुनना 
कुछ कहना 
फिर गढ़ना 
जैसे तोड़कर 
पुराना गहना
ऐसी  थी ये रचना .
गहरी नींद से अचानक जाग उठना
फिर सोते ही 
चल पड़े वोही पुराना सपना 
तो विलक्षण है 
इस विशाल सृष्टी के रंगमंच का 
जीवन बिम्ब है , कण है .
अंतरिक्ष में ग्रह, नक्षत्र , और सितारे हैं 
शब्द टूटे - बिखरे हमारे हैं
इस नाटक का यहीं पटाक्षेप
नहीं कोई
अगली किश्त , अगली खेप .

10 जनवरी 2011

यात्रा

किसी घुमक्कड़ की
सारी संपूर्ण 
निरर्थक यात्रा |
अंतिम पड़ाव  पर किसी 
ने  नहीं  कहा  
फिर मिलेंगे |
जैसे यात्रा के प्रारंभ 
में कोई नहीं बोला 
किसी ने शब्दों को नहीं तौला 
और कहा 
आपकी यात्रा मंगलमय हो |
जीवन की यात्रा बड़ी अनमोल है 
इसका कोई प्रारंभ नहीं
कोई प्रारब्ध नहीं 
यह पथ नहीं संरचना है 
इससे सिर्फ गुजरना है 
यह यात्रा नहीं अनुभव है 
इसका वही खिलाड़ी है 
जो अनाड़ी है 
यह यात्रा है अनंत 
इसका लो आनंद 
यह प्रहसन है 
नाटक है 
कविता है 
है महाकाव्य 
कोई है शब्द
कोई है पंक्ती 
कोई कोई अध्याय |
कुछ बेतरतीब बंधे पृष्ठ  
कुछ कोरे , कुछ रिक्त 
कुछ भाव , कुछ अर्थ में बंधे 
कुछ संधि , कुछ अलंकार में सधे
राग रागिनियों की परम्पराएँ 
ऋषियों की ऋचाएं 
वेद के स्वर 
अनादि अनश्वर 
ध्वनि की तरह चारों दिशाओं में व्याप्त 
कोई नहीं पर्याय !
इस यात्रा की यह है सहज अनुभूती 
इसकी यही है व्युत्पति 
इसकी तलाश यूँ ही चलती
चरैवेति चरैवेति !!

8 जनवरी 2011

चन्द तस्वीरें

(१)  
सिर्फ एक   नाम  या 
लिफाफे पर लिखा पता 
तुमसे क्या छिपा ?
डाला हुआ बैरंग ख़त 
उस पते ने लौटा दिया .
(२) 
बहुत कोशिशों के बाद 
याद नहीं आया 
पहचान  नहीं पाया 
स्मृतियों के जंगल में भटकता चेहरा 
जंगल से गुजरती कोई भी पगडंडी 
वापिस नहीं ले जा सकी 
उस मोड़ तक .
(३)
ये शहर 
वो मकान 
बहुत अपरिचित लगे 
बच्चे जो हो गए थे अब बूढ़े .
(४)
कोई नहीं खेलता 
टूटे खिलौनो  से
किसी दोस्त का उपहार हैं 
बचपन का प्यार है 
कोई नहीं फेंकता 
टूटे खिलौने .
(५)  
शहर फ़ैल गया है 
विस्थापित हो गए हैं 
दोस्तों के मकान 
तालाब के किनारे शाम 
अकेले ही रात में ढल गयी .

5 जनवरी 2011

अ से अनार

अ से अनार 
हिंदी की पहली कक्षा 
और पहला पाठ 
यही है इतिहास .
अक्षर ज्ञान हो गया 
बचपन खो गया 
पाठ पर पाठ 
पाठ दर पाठ    
यही है इतिहास .
छोटी अंगुलिओं से पकड़ी लेखनी 
सजिल्द हो गयी मोटी मोटी किताब 
समय भागता रहा 
किताब के पन्ने पलटते गए 
और भरते गए 
थरथराते हाथों से खाली पृष्ठ 
अब की - बोर्ड से उलझती हैं अंगुलियाँ 
अब भी नहीं समझ आती लम्बी लम्बी पंक्तियाँ 
और भारी भरकम शब्द 
कम हो चली है आँखों की रोशनी 
अक्षर बड़े बड़े लिखता हूँ 
खुद को कम दिखता हूँ 
बहुत कुछ कहना है अबाध 
अ से अनार 
से शुरू हुआ सफ़र 
लगता है ख़त्म होने को है 
ककहरे का ज्ञान !
हर वाक्य को लगाना पूर्ण विराम !
और उसी की तलाश में कहाँ आ गया 
लेकर 
अ से अनार !!

2 जनवरी 2011

बहुत दिनों के बाद

बहुत दिनों के बाद 
कितने प्रयत्नों और
कोशिशों के पश्चात 
सुना मैंने 
एकांत का स्वर 
मौन की भाषा 
सीख रहा हूँ  
चुप्पी की परिभाषा |
निर्मिमेष आँखों का व्याकरण 
पढ़ पाया 
अनकहे शब्दों को 
गढ़ पाया 
देखा टूटते 
मध्य रात्रि के नीरव में पसरा सन्नाटा 
भूंकते श्वान की 
गुंजायमान शब्दावलियों से  ढहराता |
चांदनी में नहाया शहर 
ओढ़कर रात्रि में 
अँधेरे की चादर 
सो गया थक हार कर |
फिर बियाबान में 
चिर मकान में 
स्वप्न सोपान में |
शब्दों का कोलाहल 
गायन  का शोर
जीवन का कलरव 
रेला चहुँओर 
कर्णभेदी संवाद 
गरजती कर्कशा 
किसी ने नहीं सुना 
कड़कती दामिनी 
खनकती वर्षा
कलकल बहती नदी 
सरसर डोलती हवा का प्रलाप 
टूटे सूखे पर्ण पत्तों पर 
धराशायी पैरों की पदचाप |
बहुत दिनों के बाद 
सुना मैंने 
एकांत का स्वर 
सीख रहा हूँ 
चुप्पी की परिभाषा 
कुछ कुछ सुनायी देने लगी  है 
अब 
प्रकृति की अभिलाषा |
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