6 जुलाई 2010

सृजन का अंत - प्रत्याहार

सुना है
एक दिन
आएगी प्रलय , होगी क़यामत
अंत होगा जीवन .
अभी तो विस्तारमय है  ब्रह्मांड
फैलता ही जा रहा है
नए नए सूर्य , ग्रह , नक्षत्र , निहारिकायें
ले रहे हैं जन्म
और एक शिशु .
और कहीं
तिमिर छिद्र
तमस गर्भ
लील रहा है सब कुछ .
एक असीम विस्फोट से शुरू हुई सृष्टी
वैज्ञानिक की मानें तो
अंततः
समा जाएगी फिर उस परमाणु में
की जिससे व्युतपत्ति हुए 

आकाशगंगा
और उसमे समाहित असंख्य तारे ,
उनके अनगिनत सौरमंडल
और उनके अनेकानेक ग्रह , उपग्रह .  

जिनमे सैकड़ों पर हो सकता है जीवन
जिसमे शामिल है धरा
और उस पर विस्थापित
हजारों लाखों योनियों में जीवन
जिसकी एक प्रजाति मानव
और उन करोड़ों मानवों में मैं
साठ-सत्तर वर्ष का लेकर समय .
जो कालगति में शायद
पल का है सहस्त्रवाँ हिस्सा .
अगर यह सच है
तो मेरी रचनाएँ
मेरा परिवार
मेरा संसार
मेरे शत्रु , मेरे मित्र
सब कालजयी हैं .
मेरे काल से परे
हमारे काल से परे
असीम विस्फोट के उस परमाणु
जिसका हूँ अंश मैं
और मेरे हिस्से का ये आसमान .
और तब लगता है
विस्फोट के उस पल से शुरू हुई यह यात्रा
यह विस्तार
होगा जिसका महाप्रयाण
फिर उसी परमाणु में.

और मैं मूरख सोचता था
अपने अहंकार में
मैं उस अणु से अलग हूँ
उस परमाणु से अभिन्न .

जबकि मैं कभी उससे बाहर था ही नहीं
शून्य में था
पर उसके ही विस्तार में
निस्तार मैं.
जब नहीं रही संज्ञा
जब हुई प्रतिपादित हर क्रिया
और मैं स्वयंभू हो गया सर्वनाम , विशेषण .
तब भी मेरा व्याकरण
प्रत्यय उपसर्ग समास
उससे अलग नहीं था
तब भी नहीं
जब समस्त संधियों के साथ
मैं विलोम में लटका था .
मेरे सारे छंद  , मुहावरे , अलंकार
और मेरी व्युत्पन्नमति
रचनाएँ
और मेरे हिस्से का वो आसमान
जितने मेरे हैं
उतने ही तुम्हारे हैं .
क्योंकि हम नहीं जुड़े
किसी नियोग से
या संयोग से
हम जुड़े हैं उत्पत्ति से
अनादि से  
अनंत से
और जुड़े रहेंगे -
प्रारंभ से
अंत से .

यही है प्रत्याहार .

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