मेरे बचपन में
अमरुद , बेर , जामुन , खीरा.
फालसा , केला , ककड़ी, शहतूत
और करोंदे की चटनी
आम थे .
और फलों का राजा था आम .
जब गुजरती थी ट्रेन इलाहाबाद से
भर जाती महक
मीठे खरबूजों की
नासिकाओं में
और लुभाता मीठा चहकता
लाल अमरुद .
याद है लखनऊ के बेगम की उँगलियों सी ककड़ी
तब भी फलों का राजा था आम .
चूसकर खाते और फेंकते
गुठलियाँ मंदिर के बाग़
की जब निकलेगी कोपलें
उनके सीपियों से खुले मुख में
फूँक कर बजायेंगे सीटियाँ .
अब ब्रांडेड हो गया सेव
बिकता है पैबंद
दशहरी , लंगड़ा , तोतापरी , चौसा आम
चाक चौबंद
अल्फ़ान्सो होकर .
और दे रहा चुनौती अमरुद
चालीस पचास किलो .
और मैं सोचता हूँ
छोटे क्या खायेगा ?
जो अब भी वहीँ रह गया है
उसी भूगोल में .
जबकि लड़झगड़ अमरुद ने अपनी जगह बना ली है
बिकता है " बरुईपुर का पेयारा "
अपनी पहचान के साथ
चालीस पचास किलो
छोटे की पहुँच के बाहर
आम के समकक्ष .
और कौन कहेगा
आम अब भी फलों का राजा है .
(बरुईपुर का पेयारा - कलकत्ते में बिकने वाला बरुइपुर नाम की जगह का अमरुद जिसे बंगाल में पेयारा कहते हैं )
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