6 जुलाई 2010

इसका कोई शीर्षक नहीं है

मेरे बचपन में 
अमरुद , बेर , जामुन , खीरा.
फालसा , केला , ककड़ी, शहतूत 
और करोंदे की चटनी 
आम थे .
और फलों का राजा था आम .
जब गुजरती थी ट्रेन इलाहाबाद से 
भर जाती महक 
मीठे खरबूजों की 
नासिकाओं में 
और लुभाता मीठा चहकता 
लाल अमरुद .
याद है लखनऊ के बेगम की उँगलियों सी ककड़ी 
तब भी फलों का राजा था आम .
चूसकर खाते और फेंकते 
गुठलियाँ मंदिर के बाग़
की जब निकलेगी कोपलें 
उनके सीपियों से खुले मुख में   
फूँक कर बजायेंगे सीटियाँ .
अब ब्रांडेड हो गया सेव 
बिकता है पैबंद 
दशहरी , लंगड़ा , तोतापरी , चौसा आम   
चाक चौबंद 
अल्फ़ान्सो होकर .
और दे रहा चुनौती अमरुद 
चालीस पचास किलो .
और मैं सोचता हूँ 
छोटे क्या खायेगा ?
जो अब भी वहीँ रह गया है 
उसी भूगोल में .
जबकि लड़झगड़ अमरुद ने अपनी जगह बना ली है 
बिकता है " बरुईपुर का पेयारा  "
अपनी पहचान के साथ 
चालीस पचास किलो 
छोटे की पहुँच के बाहर 
आम के समकक्ष .
और कौन कहेगा 
आम अब भी फलों का राजा है .
(बरुईपुर का पेयारा - कलकत्ते में बिकने वाला बरुइपुर नाम की जगह का अमरुद जिसे बंगाल में पेयारा कहते हैं )

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