वर्ष का फलाफल अच्छा या बुरा
शनि हो या मंगल अच्छा या बुरा !!
बिहू , पुथांडू , नवरेह , उगादी, पड़वा
कैलेण्डर लो बदल , अच्छा या बुरा !!
नववर्ष की शुभकामना, हैप्पी न्यू ईयर ,
असल या नक़ल , अच्छा या बुरा !!
कर्म में लिप्त संसार का नियम
सेवा का फल , अच्छा या बुरा !!
हर शब्द का हमारा आपका अनुभव अलग है . शब्द के अर्थ हमारे अनुभव के अनुसार हमें सुख-दुःख संताप पीड़ा आह्लाद आनंद शांति द्वेष घृणा प्रेम जैसे उदगार देते हैं - शब्द और अर्थ .मेरे अनुभव और अर्थ का विहंगम . मेरे शब्दों का सफर .
29 दिसंबर 2010
28 दिसंबर 2010
घर
घर का सपना
मिट्टी और माटी
जमीन और दरख़्त
आँगन , द्वार, खिड़कियाँ
दालान और छत
अच्छी मीठी नींद .
टूटते हुए सपनों की जमीन
दरकती हुई ईंट
भरभराती दीवारें
टपकती छत
उखड़ता प्लास्टर
और पस्त हो गया हमारा मास्टर !!
वास्तु का विशारद
बाजार में नारद
ब्रह्मा विष्णु महेश
आदमकद गणेश
सबके परास्त हौसले
कोई किससे क्या बोले ?
ईश्वर की दी हुई अमूल्य धरा
अब इसमें कब इंसान पढ़ा - बला
धरा का मूल्य
आकाश से ऊपर
गगन चुम्बी अट्टालिकाएं
और आदमी का आकार बौना
जर जोरू जमीन
रोटी कपड़ा मकान
सब मुहावरे
सब किम्वदंतियां
सब भूतों की कहानियाँ !!
अब सबके सर मकान नहीं
बस एक मुठ्ठी आसमान !!
हम सब करोड़पतियों के बीच
बचे हुए झुग्गियों का सामान
अपने अस्तित्व को बचाते हुए !!
लड़ रहे हैं महाभारत
आर्यावर्त में !!
मिट्टी और माटी
जमीन और दरख़्त
आँगन , द्वार, खिड़कियाँ
दालान और छत
अच्छी मीठी नींद .
टूटते हुए सपनों की जमीन
दरकती हुई ईंट
भरभराती दीवारें
टपकती छत
उखड़ता प्लास्टर
और पस्त हो गया हमारा मास्टर !!
वास्तु का विशारद
बाजार में नारद
ब्रह्मा विष्णु महेश
आदमकद गणेश
सबके परास्त हौसले
कोई किससे क्या बोले ?
ईश्वर की दी हुई अमूल्य धरा
अब इसमें कब इंसान पढ़ा - बला
धरा का मूल्य
आकाश से ऊपर
गगन चुम्बी अट्टालिकाएं
और आदमी का आकार बौना
जर जोरू जमीन
रोटी कपड़ा मकान
सब मुहावरे
सब किम्वदंतियां
सब भूतों की कहानियाँ !!
अब सबके सर मकान नहीं
बस एक मुठ्ठी आसमान !!
हम सब करोड़पतियों के बीच
बचे हुए झुग्गियों का सामान
अपने अस्तित्व को बचाते हुए !!
लड़ रहे हैं महाभारत
आर्यावर्त में !!
अवश्यम्भावी
स्वयंसिद्ध हो गए स्थापित
स्वयं के अन्तः युद्ध में पराजित |
जीवन भर सत्य की खोज में लगे
और कितनी दुविधाओं में पले |
हम से अनाड़ी को जग भाया नहीं
और हमें कंदराओं ने पाया नहीं
हम नियती के आश्वासनों पर जीते रहे
कर्मपुरुष थे , निस्पृह रहे,
जीवन में जहाँ उतार-चढाव आया नहीं-
आँखें बंद रखीं और हाथ भींचे रहे|
उदार चरित के थे अनुदार सपने
विश्वास रहित और बेमने,
रंगहीन , बेतरतीब , अबूझ
कृष्णा सा श्यामवर्ण अन्धकार में असूझ
इस वातावरण में काल -खंड काल-जयी हो गया
जीवन अनुरागी था वीतरागी हो गया |
अवश्यम्भावी प्रेरणा के उदक , वायु , धरा , अग्नि , आकाश !
पंचतत्वों में विलीन हो गए सारे उच्छास !!
स्वयं के अन्तः युद्ध में पराजित |
जीवन भर सत्य की खोज में लगे
और कितनी दुविधाओं में पले |
हम से अनाड़ी को जग भाया नहीं
और हमें कंदराओं ने पाया नहीं
हम नियती के आश्वासनों पर जीते रहे
कर्मपुरुष थे , निस्पृह रहे,
जीवन में जहाँ उतार-चढाव आया नहीं-
आँखें बंद रखीं और हाथ भींचे रहे|
उदार चरित के थे अनुदार सपने
विश्वास रहित और बेमने,
रंगहीन , बेतरतीब , अबूझ
कृष्णा सा श्यामवर्ण अन्धकार में असूझ
इस वातावरण में काल -खंड काल-जयी हो गया
जीवन अनुरागी था वीतरागी हो गया |
अवश्यम्भावी प्रेरणा के उदक , वायु , धरा , अग्नि , आकाश !
पंचतत्वों में विलीन हो गए सारे उच्छास !!
24 दिसंबर 2010
वर्ष की सीमायें लांघ
चिर परिचित गतिशील
घूमती रही घड़ी की कील ||
नश्वर वर्ष का प्रलाप
किसका कैसा माप;
बाकी कितनी घड़ियाँ?
बाकी कितना जाप ?
जीवन कँवल - करील
घूमती रही घड़ी की कील ||
वह एक नीरव संवाद
उसका नहीं अपवाद
आओ मिलकर पूछें
किसे ले जायेगा निषाद ?
फिर इतना नहीं जटिल
घूमती रही घड़ी की कील ||
काल चक्र वैराग्य काल
किसको कर दे मालामाल ?
उसकी डफली उसका राग
अब कौन मिलाये ताल ?
वो अमर ज्योत कंदील
घूमती रही घड़ी की कील ||
अनंत नभ में जैसे विहंग
अनंत सागर में फ़ैली तरंग
प्रकृत धरा पर अविराम
प्रस्फुटित होते अनंत रंग
सबसे मोहक रहे कपिल
घूमती रही घड़ी की कील ||
22 दिसंबर 2010
जीवन को देखना इतने समीप से
स्वर्णिम व्योम को प्रातः निहारना ,
उड़ते पंछियों का कलरव पुकारना;
उष्ण सलील का देह पुचकारना ,
मंद समीर की चुटीली प्रताड़ना ;
जीवन को देखना इतने समीप से ,
पुलकित-दृश्य नयन-प्रदीप से |
डकैत सा मुंह ढांपे झुलसाती दोपहरी ,
शहर की बाला नापे घर-द्वार-देहरी;
सर पै डोले तपती उलटी तश्तरी ,
लू की धौंकनी झेले कमसिन प्रहरी;
मौसम का मिज़ाज मापे तरकीब से ,
जीवन को देखना इतने करीब से |
टिमटिमाते दीपों से थाल सजाये ,
कई कई समवेत स्वर आरती गाएँ ;
बाजे मृदंग,झांझ ,स्तोत्र गुनगुनाएं,
हाथों को उलट पलट घंटा बजाएं ;
तन्मय हो बावरी अविरल-संगीत से ,
जीवन हो अनुभूत एकाकार मीत से |
कालरात्रि महाकाल शरणागत त्रिपुरारी,
रात्रि में भस्मीभूत मणिकर्णिका चिंगारी ;
धू-धू जले सब विकृति,विकार,अभिचारी,
श्मशान वैराग्य अनुभूति करता है संसारी ;
दिवस के सोपान सारे अपने अतीत से ,
जीवन पथिक आक्लांत व्यतीत से |
उड़ते पंछियों का कलरव पुकारना;
उष्ण सलील का देह पुचकारना ,
मंद समीर की चुटीली प्रताड़ना ;
जीवन को देखना इतने समीप से ,
पुलकित-दृश्य नयन-प्रदीप से |
डकैत सा मुंह ढांपे झुलसाती दोपहरी ,
शहर की बाला नापे घर-द्वार-देहरी;
सर पै डोले तपती उलटी तश्तरी ,
लू की धौंकनी झेले कमसिन प्रहरी;
मौसम का मिज़ाज मापे तरकीब से ,
जीवन को देखना इतने करीब से |
टिमटिमाते दीपों से थाल सजाये ,
कई कई समवेत स्वर आरती गाएँ ;
बाजे मृदंग,झांझ ,स्तोत्र गुनगुनाएं,
हाथों को उलट पलट घंटा बजाएं ;
तन्मय हो बावरी अविरल-संगीत से ,
जीवन हो अनुभूत एकाकार मीत से |
कालरात्रि महाकाल शरणागत त्रिपुरारी,
रात्रि में भस्मीभूत मणिकर्णिका चिंगारी ;
धू-धू जले सब विकृति,विकार,अभिचारी,
श्मशान वैराग्य अनुभूति करता है संसारी ;
दिवस के सोपान सारे अपने अतीत से ,
जीवन पथिक आक्लांत व्यतीत से |
लेखा जोखा
बही- खाता, हिसाब ,
लेखा जोखा ,
प्यार - धोखा .
हम सब बनिए की दुकान या
साहूकार की ड्योढ़ी ?
यह जीवन है या
किसी की तिजोरी ?
बीते हुए वर्ष की ओर तकती निगाहें ?
या जीवन को बटोर लेने को आतुर बाहें .
हम सब गुणा, जोड़ , भाग , घटा ,
रह गए हैं क्यों मात्र एक अंक ?
ईश्वर द्वारा प्रदत्त राजा सा जीवन
शून्य -शून्य हो बन गया रंक .
क्यों नहीं अब हमारे विश्वास में कोई सांता-क्लॉस ?
क्यों नहीं हमारे मिलने में निश्छल उल्लास ?
हमारी उंगलियाँ क्यों नहीं यूँ ही किसी के हाथों से हैं खेलतीं ?
क्यों हर वक्त सिर्फ अंगूठे को हिसाब से धकेलती ?
क्यों हर मनुष्य हमारे लिए मात्र एक प्रतिशत ?
क्यों हम मात्र घड़ी की सरकती रेत ?
क्यों रह गया बचपन का मित्र , बस एक केक का हिस्सा ?
यह किस खेल का हम बन गए किस्सा ?
किसने क्या पा लिया ? उसने मुझको क्या दिया ?
किसने क्या की अनुकम्पा ? किससे क्या हुआ पचड़ा ?
आदमी आदमी ना हुआ , बस रह गया तराजू का पलड़ा .
वर्ष का आरम्भ कितनी आकांछाओं और उल्लास से हुआ ,
जीवन का प्रारंभ कितने निष्काम से हुआ
और अंत ?
वही लेखा जोखा , वही नाउम्मीद , वही विषाद !
कैसे कैसे लेखाकार ?
क्या हो गया हमारा आकार ?
सजिल्द पासबुक .
लेखा जोखा ,
प्यार - धोखा .
हम सब बनिए की दुकान या
साहूकार की ड्योढ़ी ?
यह जीवन है या
किसी की तिजोरी ?
बीते हुए वर्ष की ओर तकती निगाहें ?
या जीवन को बटोर लेने को आतुर बाहें .
हम सब गुणा, जोड़ , भाग , घटा ,
रह गए हैं क्यों मात्र एक अंक ?
ईश्वर द्वारा प्रदत्त राजा सा जीवन
शून्य -शून्य हो बन गया रंक .
क्यों नहीं अब हमारे विश्वास में कोई सांता-क्लॉस ?
क्यों नहीं हमारे मिलने में निश्छल उल्लास ?
हमारी उंगलियाँ क्यों नहीं यूँ ही किसी के हाथों से हैं खेलतीं ?
क्यों हर वक्त सिर्फ अंगूठे को हिसाब से धकेलती ?
क्यों हर मनुष्य हमारे लिए मात्र एक प्रतिशत ?
क्यों हम मात्र घड़ी की सरकती रेत ?
क्यों रह गया बचपन का मित्र , बस एक केक का हिस्सा ?
यह किस खेल का हम बन गए किस्सा ?
किसने क्या पा लिया ? उसने मुझको क्या दिया ?
किसने क्या की अनुकम्पा ? किससे क्या हुआ पचड़ा ?
आदमी आदमी ना हुआ , बस रह गया तराजू का पलड़ा .
वर्ष का आरम्भ कितनी आकांछाओं और उल्लास से हुआ ,
जीवन का प्रारंभ कितने निष्काम से हुआ
और अंत ?
वही लेखा जोखा , वही नाउम्मीद , वही विषाद !
कैसे कैसे लेखाकार ?
क्या हो गया हमारा आकार ?
सजिल्द पासबुक .
15 दिसंबर 2010
मेरे हमसफ़र
मेरे हमसफ़र
तेरे साथ जो सफ़र हुआ
उसका मुझपे ये असर हुआ
की तमाम उम्र रहा जुदा जुदा
कहीं छुट गया मेरा खुदा
की जिनको मुझपे नाज था
की जिनका मैं हमराज था
की जिनको मुझसे था राबता
वो ही ढूंढते हैं अब मेरा पता .
तुझे ईल्म नहीं पर मैं हूँ जानता
तेरी कायनात बड़ी अजीब है
मेरे दोस्त ही मेरे रकीब है
ये जो तेरे रस्मो-रिवाज हैं
और मेरे ख्वाबों के परवाज हैं
यहाँ धूप नहीं , कोई छावं नहीं
ये मेरे सपनों का गाँव नहीं
यहाँ कोई दरख़्त नहीं जो मुझे बाँध ले .
ना आँख में कोई नूर है
ना जिसे अपना कहूँ दस्तूर है
यहाँ सोच में है बड़ा फासला
मुझे क्या मिला ? तुझे क्या मिला ?
नहीं मुझे नहीं है कोई गिला ,
अपना अपना नसीब है
मेरे हमसफ़र
तेरे साथ जो ये सफ़र हुआ
मैं कहाँ कहाँ से गुजर गया
एक उम्र हुई मैं सोया नहीं
कोई रात नहीं जो रोया नहीं
बड़े तंज सहे , हर रंज सहे
हर रंग से पड़ा साबका
तुझे क्या कहूँ , तुझे क्या पता ?
मेरे हमसफ़र
तू मेरे साथ था या कहीं दूर था
ना मेरा ना तेरा कसूर था
ये सफ़र जो हुआ हमारे दरमियाँ
हमें नापती रही दो किश्तियाँ
हम नदी के दो किनारे रहे
जो साथ रहे दो किनारे रहे
मेरे हमसफ़र
ये था बड़ा अजब वाकिया
इसे जिसने पढ़ा , इसे जिसने सुना
वो पूछते है - इसे कैसे जिया ?
उन्हें क्या कहूँ ? मुझे नहीं पता .
मेरे हमसफ़र - अब अलविदा .
तेरे साथ जो सफ़र हुआ
उसका मुझपे ये असर हुआ
की तमाम उम्र रहा जुदा जुदा
कहीं छुट गया मेरा खुदा
की जिनको मुझपे नाज था
की जिनका मैं हमराज था
की जिनको मुझसे था राबता
वो ही ढूंढते हैं अब मेरा पता .
तुझे ईल्म नहीं पर मैं हूँ जानता
तेरी कायनात बड़ी अजीब है
मेरे दोस्त ही मेरे रकीब है
ये जो तेरे रस्मो-रिवाज हैं
और मेरे ख्वाबों के परवाज हैं
यहाँ धूप नहीं , कोई छावं नहीं
ये मेरे सपनों का गाँव नहीं
यहाँ कोई दरख़्त नहीं जो मुझे बाँध ले .
ना आँख में कोई नूर है
ना जिसे अपना कहूँ दस्तूर है
यहाँ सोच में है बड़ा फासला
मुझे क्या मिला ? तुझे क्या मिला ?
नहीं मुझे नहीं है कोई गिला ,
अपना अपना नसीब है
मेरे हमसफ़र
तेरे साथ जो ये सफ़र हुआ
मैं कहाँ कहाँ से गुजर गया
एक उम्र हुई मैं सोया नहीं
कोई रात नहीं जो रोया नहीं
बड़े तंज सहे , हर रंज सहे
हर रंग से पड़ा साबका
तुझे क्या कहूँ , तुझे क्या पता ?
मेरे हमसफ़र
तू मेरे साथ था या कहीं दूर था
ना मेरा ना तेरा कसूर था
ये सफ़र जो हुआ हमारे दरमियाँ
हमें नापती रही दो किश्तियाँ
हम नदी के दो किनारे रहे
जो साथ रहे दो किनारे रहे
मेरे हमसफ़र
ये था बड़ा अजब वाकिया
इसे जिसने पढ़ा , इसे जिसने सुना
वो पूछते है - इसे कैसे जिया ?
उन्हें क्या कहूँ ? मुझे नहीं पता .
मेरे हमसफ़र - अब अलविदा .
14 दिसंबर 2010
हमनवां
काश तू मुझसे हमनवां होता,
ये दिल बहुत आशना होता .
जिंदगी और कामयाब होती ,
जो तू मुझपे मेहरबां होता .
तमाम उम्र जिसकी जुस्तजू की ,
वो काश हमारे दर्मयाँ होता .
जिस दरख़्त की आरज़ू की ,
वो उन जंगलों में कहाँ होता .
अगर मोहब्बत नहीं होती ,
मैं बहुत बद्जुबां होता .
तुमसे अच्छी शायरी नहीं होती ,
और न मैं ग़ज़लदां होता .
तमाम उम्र का हासिल है तू ,
बस खुदा इतना मेहरबां होता .
मेरे जिक्रे हयात के लिए ,
तेरा हँसना, कहकशां होता.
9 दिसंबर 2010
परछाईयाँ
आदमी के साथ होती हैं परछाइयाँ ,
जिंदगी बस धूप - छावं नहीं ,
जिंदगी सिर्फ नदी - नाव नहीं ,
जिंदगी है बहुत कुछ फलसफे के अलावा ,
जिंदगी सिर्फ सुविधा - अभाव नहीं .
आइये देखे हजारों रंग यहाँ ,
आदमी के है कितने ढंग यहाँ ,
घर द्वार बहुत बड़े , दिल तंग यहाँ ,
नहीं अब नहीं कोई मलंग यहाँ .
अब नहीं बाकि नदी की गहराइयाँ ,
बाँधों में सब पानी बंद यहाँ ,
रह गयी है बस उसकी परछाइयाँ .
आदमी की उम्र बढ़ गयी तो क्या हुआ ?
बढ़ गया आकार खिलौनों का यहाँ ,
अब सीता को नहीं चाहिए सिर्फ मृग स्वर्ण समान,
अब नीता को मिलेगा पुष्पक - विमान ,
क्यों रहे कोई किसी टप्पर - टीला ?
अब बनेगे सबके घर अट्टिला,
यह होड़ खिलौनों की कब रुकेगी ?
यह दौड़ बौनों की कब रुकेगी ?
किस उम्र तक चलता रहेगा यह खेल सारा ?
विश्व कहाँ रक्खे टूटे खिलौनों का ढेर सारा ?
और नहीं अच्छी बचकानी बचपन की,
कुछ उम्रदराज हरकत हो पचपन की,
टूटते और पिघलते जा रहे हिमनाद ,
और कितने करवट बदले शेषनाग ?
क्या हमारी विरासत रहेंगी सिर्फ कहानियाँ ?
क्या मिलेगा नापने से परछाइयां ?
जिंदगी बस धूप - छावं नहीं ,
जिंदगी सिर्फ नदी - नाव नहीं ,
जिंदगी है बहुत कुछ फलसफे के अलावा ,
जिंदगी सिर्फ सुविधा - अभाव नहीं .
आइये देखे हजारों रंग यहाँ ,
आदमी के है कितने ढंग यहाँ ,
घर द्वार बहुत बड़े , दिल तंग यहाँ ,
नहीं अब नहीं कोई मलंग यहाँ .
अब नहीं बाकि नदी की गहराइयाँ ,
बाँधों में सब पानी बंद यहाँ ,
रह गयी है बस उसकी परछाइयाँ .
आदमी की उम्र बढ़ गयी तो क्या हुआ ?
बढ़ गया आकार खिलौनों का यहाँ ,
अब सीता को नहीं चाहिए सिर्फ मृग स्वर्ण समान,
अब नीता को मिलेगा पुष्पक - विमान ,
क्यों रहे कोई किसी टप्पर - टीला ?
अब बनेगे सबके घर अट्टिला,
यह होड़ खिलौनों की कब रुकेगी ?
यह दौड़ बौनों की कब रुकेगी ?
किस उम्र तक चलता रहेगा यह खेल सारा ?
विश्व कहाँ रक्खे टूटे खिलौनों का ढेर सारा ?
और नहीं अच्छी बचकानी बचपन की,
कुछ उम्रदराज हरकत हो पचपन की,
टूटते और पिघलते जा रहे हिमनाद ,
और कितने करवट बदले शेषनाग ?
क्या हमारी विरासत रहेंगी सिर्फ कहानियाँ ?
क्या मिलेगा नापने से परछाइयां ?
8 दिसंबर 2010
बनारस में बम विस्फोट
यह शीर्षक उपयोग करना एक यातना से गुजरने जैसा है . बनारस की अनेक स्मृतियाँ हैं . कक्षा एक से पांच तक यहीं अध्ययन किया है . सुबह सुबह जब शहर अपनी उनींदी आँखों से जागता तब मैं स्कूल बैग लिए काशी विश्वनाथ की गली से , हनुमान मंदिर से होता हुआ , औरंगजेब मस्जिद को निहारता , सीढियाँ चढ़ , चौक होता हुआ , तक़रीबन एक - दो किलोमीटर चल कर विद्यालय पहुंचता . वर्ष में कभी कभी स्कूल के बाहर मेढकों को चीरफाड़ के बाद देखता . बड़े हो समझा - जीव विज्ञान की कक्षा का परिणाम था . कभी कभी रास्ते में तांगे के पीछे बंधे मुर्दा शरीरों से उतरे ग्रामवासियों द्वारा घाट तक की यात्रा से पूर्व जलपान करते हुए मुलाकात हो जाती . नाग पंचमी से पूर्व चौक के बाजार से नागों के चित्र वाले कागज खरीदते हुए गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तकों से परिचय हुआ . और उन्ही से आदर्श बालक , आदर्श पूर्वज , आदर्श स्त्रियाँ आदि पढ़ा और गार्गेयी, मैत्रेयी ,प्रह्लाद , ध्रुव , भरत आदि पात्रों से परिचय हुआ .
बनारस में ही होली की स्मृतियाँ हैं . वहाँ होली पर स्वांग की परंपरा है . और इसके साथ ही होली पर आलू काटकर स्टेंसिल द्वारा छापा लगाने की स्मृति . श्री ४२० इत्यादि के स्टेंसिल के छापे अक्सर घर लौटने पर कपड़ों पर लगे मिल जाते थे .
बनारस में रहना गंगा स्नान और उसमे पानी से डर लगने पर उसमे जबरदस्ती लगवाई गयी डुबकियाँ या कहूँ गोते . और फिर बहुत देर तक नाक से बहने वाला पानी अब तक याद है . ये बात और है की अपने मिरजापुर निवास के दौरान ना सिर्फ उसी गंगा में तैरना सीखा पर घंटों तैरना और गर्मियों में उसी गंगा को तैर कर पार भी किया .
बनारस की स्मृतियों में कबूतर बाज़ी , पतंग उड़ाना, गिल्ली डंडा खेलना , और दुर्गाकुण्ड का मेला , भरत मिलाप , चेतगंज की नककटीईया याद है . वैसे ही याद है कचोडी गली की कचोड़ियाँ, छोले , और बनारस की चाट . बनारस की मिठाई , गरम जलेबी , तेल की पकोड़ियाँ, और आलू की टिक्की का स्वाद भी .
बनारस के रंगों में मण्डी में घूमना, हम हैं बनारसी बाबू का गाना , या शन्नो नाम मेरा . यह गाना इसलिए क्योंकि विश्वनाथ मंदिर के ठीक सामने सातों चौक जहाँ हम रहते थे वहाँ एक लड़की को सब शन्नो बुलाया करते थे .
बनारस की एक और स्मृति है . पिताजी नवरात्री में पूरे परिवार को लेकर एक बार पूरे नौ दिन नव दुर्गों के अलग अलग मंदिर में दर्शन के लिए ले गए थे . तब साइकिल ही साधन था . बनारस में पहले हम जहाँ रहते थे वह स्थान काल भैरव मंदिर के समीप था . और उस मंदिर के पास से गुजरने पर डर लगता था . एक बार स्कूल से लौटते हुए घाटों के मार्ग से घर पहुंचा था . बनारस में रहकर उस उम्र में भी मस्ती - बनारसी मस्ती आ ही गयी थी . बनारस संस्कृति का शहर है . इस संस्कृति में सारनाथ की यात्रा , सावन में मानस मंदिर , भारतमाता मंदिर , कजरी , और चैती सुनना . एक परिचित थे जिनके घर जाने पर बांसुरी की तरंगे सुनाईं पड़ती थीं . यह निवास आदिविश्वनाथ मंदिर बांसफाटक स्थित है . वहाँ पर रात्रि में शिव आरती पर नगाड़ा और विश्वनाथ के आरती गान के स्वर अब भी कानों में गूंजते हैं .
बनारस में पान और भांग खाने की परंपरा है . और एक परंपरा है घाटों पर अखाड़ों की . जहाँ पर पहलवान वर्जिश करते दिख जाते थे .
उन्ही दिनों में विश्वविद्यालय के छात्रों के आन्दोलन पर शहर में कर्फु भी देखा था .
बनारस की स्मृतियों का वर्णन वहाँ शाम को दल बांधे बंदरों के समूह के पूर्ण नहीं होता . ये बन्दर कुछ मंदिरों में जैसे दुर्गा कुण्ड के लंगूर और संकट मोचन के हनुमान मंदिर में भी दिख जातें है . बनारस छोड़ने के बाद भी कई बार बनारस गया हूँ . और बचपन की स्मृतियों के धुंधला होने के बावजूद वहाँ की गलियाँ परिचित ही लगती हैं . हाँ जहाँ हम स्वछंद खेला करते थे वह विश्वनाथ गली अब सब तरफ से पुलिसिया इन्तेजाम में अपरिचित सी लगती है . सब कुछ चाक चौबंद होने के बावजूद घटनाएँ हो जाती हैं . आम आदमी की तलाशी तो बहुत होती है . पर प्रश्न उठता है क्या जो बम रखने आते हैं वो उन्ही मार्गों से जायेंगे जहाँ तलाशी हो रही है . हमारे सुरक्षा इंतजामों में लगे लोगों को आतंकियों की तरह सोचना चाहिए की ऐसी जगहों पर जो निशाने पर हैं वहाँ कोई बम रखना चाहे तो कहाँ और कैसे रखेगा ?
बनारस में ही होली की स्मृतियाँ हैं . वहाँ होली पर स्वांग की परंपरा है . और इसके साथ ही होली पर आलू काटकर स्टेंसिल द्वारा छापा लगाने की स्मृति . श्री ४२० इत्यादि के स्टेंसिल के छापे अक्सर घर लौटने पर कपड़ों पर लगे मिल जाते थे .
बनारस में रहना गंगा स्नान और उसमे पानी से डर लगने पर उसमे जबरदस्ती लगवाई गयी डुबकियाँ या कहूँ गोते . और फिर बहुत देर तक नाक से बहने वाला पानी अब तक याद है . ये बात और है की अपने मिरजापुर निवास के दौरान ना सिर्फ उसी गंगा में तैरना सीखा पर घंटों तैरना और गर्मियों में उसी गंगा को तैर कर पार भी किया .
बनारस की स्मृतियों में कबूतर बाज़ी , पतंग उड़ाना, गिल्ली डंडा खेलना , और दुर्गाकुण्ड का मेला , भरत मिलाप , चेतगंज की नककटीईया याद है . वैसे ही याद है कचोडी गली की कचोड़ियाँ, छोले , और बनारस की चाट . बनारस की मिठाई , गरम जलेबी , तेल की पकोड़ियाँ, और आलू की टिक्की का स्वाद भी .
बनारस के रंगों में मण्डी में घूमना, हम हैं बनारसी बाबू का गाना , या शन्नो नाम मेरा . यह गाना इसलिए क्योंकि विश्वनाथ मंदिर के ठीक सामने सातों चौक जहाँ हम रहते थे वहाँ एक लड़की को सब शन्नो बुलाया करते थे .
बनारस की एक और स्मृति है . पिताजी नवरात्री में पूरे परिवार को लेकर एक बार पूरे नौ दिन नव दुर्गों के अलग अलग मंदिर में दर्शन के लिए ले गए थे . तब साइकिल ही साधन था . बनारस में पहले हम जहाँ रहते थे वह स्थान काल भैरव मंदिर के समीप था . और उस मंदिर के पास से गुजरने पर डर लगता था . एक बार स्कूल से लौटते हुए घाटों के मार्ग से घर पहुंचा था . बनारस में रहकर उस उम्र में भी मस्ती - बनारसी मस्ती आ ही गयी थी . बनारस संस्कृति का शहर है . इस संस्कृति में सारनाथ की यात्रा , सावन में मानस मंदिर , भारतमाता मंदिर , कजरी , और चैती सुनना . एक परिचित थे जिनके घर जाने पर बांसुरी की तरंगे सुनाईं पड़ती थीं . यह निवास आदिविश्वनाथ मंदिर बांसफाटक स्थित है . वहाँ पर रात्रि में शिव आरती पर नगाड़ा और विश्वनाथ के आरती गान के स्वर अब भी कानों में गूंजते हैं .
बनारस में पान और भांग खाने की परंपरा है . और एक परंपरा है घाटों पर अखाड़ों की . जहाँ पर पहलवान वर्जिश करते दिख जाते थे .
उन्ही दिनों में विश्वविद्यालय के छात्रों के आन्दोलन पर शहर में कर्फु भी देखा था .
बनारस की स्मृतियों का वर्णन वहाँ शाम को दल बांधे बंदरों के समूह के पूर्ण नहीं होता . ये बन्दर कुछ मंदिरों में जैसे दुर्गा कुण्ड के लंगूर और संकट मोचन के हनुमान मंदिर में भी दिख जातें है . बनारस छोड़ने के बाद भी कई बार बनारस गया हूँ . और बचपन की स्मृतियों के धुंधला होने के बावजूद वहाँ की गलियाँ परिचित ही लगती हैं . हाँ जहाँ हम स्वछंद खेला करते थे वह विश्वनाथ गली अब सब तरफ से पुलिसिया इन्तेजाम में अपरिचित सी लगती है . सब कुछ चाक चौबंद होने के बावजूद घटनाएँ हो जाती हैं . आम आदमी की तलाशी तो बहुत होती है . पर प्रश्न उठता है क्या जो बम रखने आते हैं वो उन्ही मार्गों से जायेंगे जहाँ तलाशी हो रही है . हमारे सुरक्षा इंतजामों में लगे लोगों को आतंकियों की तरह सोचना चाहिए की ऐसी जगहों पर जो निशाने पर हैं वहाँ कोई बम रखना चाहे तो कहाँ और कैसे रखेगा ?
7 दिसंबर 2010
नवम्बर की कहानी
बहुत दिनों बाद भोपाल - घर जाना हुआ . दीपावली पर चारों भाई बहन शायद वर्षों बाद एक साथ घर पर थे . पिछले एक वर्ष से एक और उपक्रम चल रहा था . बी एस एस एस कालेज और केंद्रीय विद्यालय में साथ पढ़े मित्रों को इस नए तकनीकी युग में खोजना . बहुत से मित्रों को खोजा और उनसे संपर्क भी हो गया . पर इन दशकों में , हमसब जीवन के बहुत से सोपानों से गुजर गए हैं .
फिर भी , ढूँढने का रोमांच अपनी जगह कायम था . और कुछ स्वरों में आश्चर्य भी था . क्यों ? और कैसे ? उत्साह बहुत दिनों तक शायद कायम नहीं रहता . पर अभी भी जो नहीं मिले उन्हें खोजने की उत्सुकता कायम है . और उत्साह भी . मानव स्वभाव बहुत विचित्र है . कुछ जानने का कौतुहल हमें भीतर तक बैचैन कर देता है . और जानकर मस्तिष्क कहता है - अच्छा ! और फिर नए कौतुहल के पीछे दौड़ने लगता है .
कालेज और स्कूल के मित्रों से मिलना हुआ . समय की कमी से सबसे मिलना नहीं हो पाया . सब अपने - अपने जीवन के चक्र से बंधे हैं . और किसी चक्र से मुक्ति कितनी कठिन है यह मशीन का पुर्जा ही जानता है .
नवम्बर पर ब्लॉग में बहुत सी प्रविष्टीयां हुईं हैं . पर सब एक पुरानी डायरी जो भोपाल प्रवास में मिल गयी थी , से हैं . यह सब तब लिखा था जब पढता था . लगभग दो दशक पुराना है. ब्लॉग पर देकर खुद पढना चाहता था . महसूस करना चाहता था . लिखने के उस दौर की मानसिकता से स्वयं का साक्षात्कार . उम्र के उस दौर में लिखना स्मृतियों और अनुभवों , और भावनाओं को समेटने जैसा था . आप को कैसा लगा ? १९८२-१९९० के वर्षों में क्या सब युवा वैसा ही महसूस करते थे ? हमारे अनुभव भी तो हमारे आसपास के वातावरण और हमारे स्वयं के जीवन द्वारा निर्धारित होते हैं . और हम जहाँ भी हैं . वह इनसे हुए हमारे स्वयं के आदान -प्रदान का निष्कर्ष ही तो है .
अपने मित्रों को तो खोजा ही . और इस प्रक्रिया में अपने मित्रों के मित्र को खोजने का आमंत्रण मिला . और उन्हें खोजने और उनको मिलाने का सुख जो मित्रों को मिला , वह भी महसूस किया . पर इस अनुभव पर एक टिपण्णी से खुद को नहीं रोक पा रहा - कुछ मित्रों को खोजकर पाना , ऐसा लगता है , उनका पता पाने जैसा है . जैसे हम सब जानते हैं , 7 , रेसकोर्स रोड , दिल्ली पर कौन रहता है . पर यह सिर्फ पता जानने जैसा है . वहाँ रहने वाले से सब कहाँ मिल पाते हैं .
फिर भी , ढूँढने का रोमांच अपनी जगह कायम था . और कुछ स्वरों में आश्चर्य भी था . क्यों ? और कैसे ? उत्साह बहुत दिनों तक शायद कायम नहीं रहता . पर अभी भी जो नहीं मिले उन्हें खोजने की उत्सुकता कायम है . और उत्साह भी . मानव स्वभाव बहुत विचित्र है . कुछ जानने का कौतुहल हमें भीतर तक बैचैन कर देता है . और जानकर मस्तिष्क कहता है - अच्छा ! और फिर नए कौतुहल के पीछे दौड़ने लगता है .
कालेज और स्कूल के मित्रों से मिलना हुआ . समय की कमी से सबसे मिलना नहीं हो पाया . सब अपने - अपने जीवन के चक्र से बंधे हैं . और किसी चक्र से मुक्ति कितनी कठिन है यह मशीन का पुर्जा ही जानता है .
नवम्बर पर ब्लॉग में बहुत सी प्रविष्टीयां हुईं हैं . पर सब एक पुरानी डायरी जो भोपाल प्रवास में मिल गयी थी , से हैं . यह सब तब लिखा था जब पढता था . लगभग दो दशक पुराना है. ब्लॉग पर देकर खुद पढना चाहता था . महसूस करना चाहता था . लिखने के उस दौर की मानसिकता से स्वयं का साक्षात्कार . उम्र के उस दौर में लिखना स्मृतियों और अनुभवों , और भावनाओं को समेटने जैसा था . आप को कैसा लगा ? १९८२-१९९० के वर्षों में क्या सब युवा वैसा ही महसूस करते थे ? हमारे अनुभव भी तो हमारे आसपास के वातावरण और हमारे स्वयं के जीवन द्वारा निर्धारित होते हैं . और हम जहाँ भी हैं . वह इनसे हुए हमारे स्वयं के आदान -प्रदान का निष्कर्ष ही तो है .
अपने मित्रों को तो खोजा ही . और इस प्रक्रिया में अपने मित्रों के मित्र को खोजने का आमंत्रण मिला . और उन्हें खोजने और उनको मिलाने का सुख जो मित्रों को मिला , वह भी महसूस किया . पर इस अनुभव पर एक टिपण्णी से खुद को नहीं रोक पा रहा - कुछ मित्रों को खोजकर पाना , ऐसा लगता है , उनका पता पाने जैसा है . जैसे हम सब जानते हैं , 7 , रेसकोर्स रोड , दिल्ली पर कौन रहता है . पर यह सिर्फ पता जानने जैसा है . वहाँ रहने वाले से सब कहाँ मिल पाते हैं .
सदस्यता लें
संदेश (Atom)