बही- खाता, हिसाब ,
लेखा जोखा ,
प्यार - धोखा .
हम सब बनिए की दुकान या
साहूकार की ड्योढ़ी ?
यह जीवन है या
किसी की तिजोरी ?
बीते हुए वर्ष की ओर तकती निगाहें ?
या जीवन को बटोर लेने को आतुर बाहें .
हम सब गुणा, जोड़ , भाग , घटा ,
रह गए हैं क्यों मात्र एक अंक ?
ईश्वर द्वारा प्रदत्त राजा सा जीवन
शून्य -शून्य हो बन गया रंक .
क्यों नहीं अब हमारे विश्वास में कोई सांता-क्लॉस ?
क्यों नहीं हमारे मिलने में निश्छल उल्लास ?
हमारी उंगलियाँ क्यों नहीं यूँ ही किसी के हाथों से हैं खेलतीं ?
क्यों हर वक्त सिर्फ अंगूठे को हिसाब से धकेलती ?
क्यों हर मनुष्य हमारे लिए मात्र एक प्रतिशत ?
क्यों हम मात्र घड़ी की सरकती रेत ?
क्यों रह गया बचपन का मित्र , बस एक केक का हिस्सा ?
यह किस खेल का हम बन गए किस्सा ?
किसने क्या पा लिया ? उसने मुझको क्या दिया ?
किसने क्या की अनुकम्पा ? किससे क्या हुआ पचड़ा ?
आदमी आदमी ना हुआ , बस रह गया तराजू का पलड़ा .
वर्ष का आरम्भ कितनी आकांछाओं और उल्लास से हुआ ,
जीवन का प्रारंभ कितने निष्काम से हुआ
और अंत ?
वही लेखा जोखा , वही नाउम्मीद , वही विषाद !
कैसे कैसे लेखाकार ?
क्या हो गया हमारा आकार ?
सजिल्द पासबुक .
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