9 दिसंबर 2010

परछाईयाँ

आदमी के साथ होती हैं परछाइयाँ ,
जिंदगी बस धूप - छावं नहीं ,
जिंदगी सिर्फ नदी - नाव नहीं ,
जिंदगी है बहुत कुछ फलसफे के अलावा ,
जिंदगी सिर्फ सुविधा - अभाव नहीं .
आइये देखे हजारों रंग यहाँ ,
आदमी के है कितने ढंग यहाँ ,
घर द्वार बहुत बड़े , दिल तंग यहाँ ,
नहीं अब नहीं कोई मलंग यहाँ .
अब नहीं बाकि नदी की गहराइयाँ ,
बाँधों में सब पानी बंद यहाँ ,
रह गयी है बस उसकी परछाइयाँ .
आदमी की उम्र बढ़ गयी तो क्या हुआ ?
बढ़ गया आकार खिलौनों का यहाँ ,
अब सीता को नहीं चाहिए सिर्फ मृग  स्वर्ण समान,
अब नीता को मिलेगा पुष्पक - विमान ,
क्यों रहे कोई किसी टप्पर - टीला ?
अब बनेगे सबके घर अट्टिला,
यह होड़ खिलौनों की कब रुकेगी ?
यह दौड़ बौनों की कब रुकेगी ?
किस उम्र  तक चलता रहेगा यह खेल सारा ?
विश्व कहाँ  रक्खे  टूटे  खिलौनों का ढेर सारा ?
और नहीं अच्छी  बचकानी बचपन की,
कुछ उम्रदराज हरकत हो पचपन की,
टूटते और पिघलते जा रहे हिमनाद ,
और कितने करवट बदले शेषनाग ?
क्या हमारी विरासत रहेंगी सिर्फ कहानियाँ ?
क्या मिलेगा नापने से परछाइयां ?

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