यह शीर्षक उपयोग करना एक यातना से गुजरने जैसा है . बनारस की अनेक स्मृतियाँ हैं . कक्षा एक से पांच तक यहीं अध्ययन किया है . सुबह सुबह जब शहर अपनी उनींदी आँखों से जागता तब मैं स्कूल बैग लिए काशी विश्वनाथ की गली से , हनुमान मंदिर से होता हुआ , औरंगजेब मस्जिद को निहारता , सीढियाँ चढ़ , चौक होता हुआ , तक़रीबन एक - दो किलोमीटर चल कर विद्यालय पहुंचता . वर्ष में कभी कभी स्कूल के बाहर मेढकों को चीरफाड़ के बाद देखता . बड़े हो समझा - जीव विज्ञान की कक्षा का परिणाम था . कभी कभी रास्ते में तांगे के पीछे बंधे मुर्दा शरीरों से उतरे ग्रामवासियों द्वारा घाट तक की यात्रा से पूर्व जलपान करते हुए मुलाकात हो जाती . नाग पंचमी से पूर्व चौक के बाजार से नागों के चित्र वाले कागज खरीदते हुए गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तकों से परिचय हुआ . और उन्ही से आदर्श बालक , आदर्श पूर्वज , आदर्श स्त्रियाँ आदि पढ़ा और गार्गेयी, मैत्रेयी ,प्रह्लाद , ध्रुव , भरत आदि पात्रों से परिचय हुआ .
बनारस में ही होली की स्मृतियाँ हैं . वहाँ होली पर स्वांग की परंपरा है . और इसके साथ ही होली पर आलू काटकर स्टेंसिल द्वारा छापा लगाने की स्मृति . श्री ४२० इत्यादि के स्टेंसिल के छापे अक्सर घर लौटने पर कपड़ों पर लगे मिल जाते थे .
बनारस में रहना गंगा स्नान और उसमे पानी से डर लगने पर उसमे जबरदस्ती लगवाई गयी डुबकियाँ या कहूँ गोते . और फिर बहुत देर तक नाक से बहने वाला पानी अब तक याद है . ये बात और है की अपने मिरजापुर निवास के दौरान ना सिर्फ उसी गंगा में तैरना सीखा पर घंटों तैरना और गर्मियों में उसी गंगा को तैर कर पार भी किया .
बनारस की स्मृतियों में कबूतर बाज़ी , पतंग उड़ाना, गिल्ली डंडा खेलना , और दुर्गाकुण्ड का मेला , भरत मिलाप , चेतगंज की नककटीईया याद है . वैसे ही याद है कचोडी गली की कचोड़ियाँ, छोले , और बनारस की चाट . बनारस की मिठाई , गरम जलेबी , तेल की पकोड़ियाँ, और आलू की टिक्की का स्वाद भी .
बनारस के रंगों में मण्डी में घूमना, हम हैं बनारसी बाबू का गाना , या शन्नो नाम मेरा . यह गाना इसलिए क्योंकि विश्वनाथ मंदिर के ठीक सामने सातों चौक जहाँ हम रहते थे वहाँ एक लड़की को सब शन्नो बुलाया करते थे .
बनारस की एक और स्मृति है . पिताजी नवरात्री में पूरे परिवार को लेकर एक बार पूरे नौ दिन नव दुर्गों के अलग अलग मंदिर में दर्शन के लिए ले गए थे . तब साइकिल ही साधन था . बनारस में पहले हम जहाँ रहते थे वह स्थान काल भैरव मंदिर के समीप था . और उस मंदिर के पास से गुजरने पर डर लगता था . एक बार स्कूल से लौटते हुए घाटों के मार्ग से घर पहुंचा था . बनारस में रहकर उस उम्र में भी मस्ती - बनारसी मस्ती आ ही गयी थी . बनारस संस्कृति का शहर है . इस संस्कृति में सारनाथ की यात्रा , सावन में मानस मंदिर , भारतमाता मंदिर , कजरी , और चैती सुनना . एक परिचित थे जिनके घर जाने पर बांसुरी की तरंगे सुनाईं पड़ती थीं . यह निवास आदिविश्वनाथ मंदिर बांसफाटक स्थित है . वहाँ पर रात्रि में शिव आरती पर नगाड़ा और विश्वनाथ के आरती गान के स्वर अब भी कानों में गूंजते हैं .
बनारस में पान और भांग खाने की परंपरा है . और एक परंपरा है घाटों पर अखाड़ों की . जहाँ पर पहलवान वर्जिश करते दिख जाते थे .
उन्ही दिनों में विश्वविद्यालय के छात्रों के आन्दोलन पर शहर में कर्फु भी देखा था .
बनारस की स्मृतियों का वर्णन वहाँ शाम को दल बांधे बंदरों के समूह के पूर्ण नहीं होता . ये बन्दर कुछ मंदिरों में जैसे दुर्गा कुण्ड के लंगूर और संकट मोचन के हनुमान मंदिर में भी दिख जातें है . बनारस छोड़ने के बाद भी कई बार बनारस गया हूँ . और बचपन की स्मृतियों के धुंधला होने के बावजूद वहाँ की गलियाँ परिचित ही लगती हैं . हाँ जहाँ हम स्वछंद खेला करते थे वह विश्वनाथ गली अब सब तरफ से पुलिसिया इन्तेजाम में अपरिचित सी लगती है . सब कुछ चाक चौबंद होने के बावजूद घटनाएँ हो जाती हैं . आम आदमी की तलाशी तो बहुत होती है . पर प्रश्न उठता है क्या जो बम रखने आते हैं वो उन्ही मार्गों से जायेंगे जहाँ तलाशी हो रही है . हमारे सुरक्षा इंतजामों में लगे लोगों को आतंकियों की तरह सोचना चाहिए की ऐसी जगहों पर जो निशाने पर हैं वहाँ कोई बम रखना चाहे तो कहाँ और कैसे रखेगा ?
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