बहुत दिनों बाद भोपाल - घर जाना हुआ . दीपावली पर चारों भाई बहन शायद वर्षों बाद एक साथ घर पर थे . पिछले एक वर्ष से एक और उपक्रम चल रहा था . बी एस एस एस कालेज और केंद्रीय विद्यालय में साथ पढ़े मित्रों को इस नए तकनीकी युग में खोजना . बहुत से मित्रों को खोजा और उनसे संपर्क भी हो गया . पर इन दशकों में , हमसब जीवन के बहुत से सोपानों से गुजर गए हैं .
फिर भी , ढूँढने का रोमांच अपनी जगह कायम था . और कुछ स्वरों में आश्चर्य भी था . क्यों ? और कैसे ? उत्साह बहुत दिनों तक शायद कायम नहीं रहता . पर अभी भी जो नहीं मिले उन्हें खोजने की उत्सुकता कायम है . और उत्साह भी . मानव स्वभाव बहुत विचित्र है . कुछ जानने का कौतुहल हमें भीतर तक बैचैन कर देता है . और जानकर मस्तिष्क कहता है - अच्छा ! और फिर नए कौतुहल के पीछे दौड़ने लगता है .
कालेज और स्कूल के मित्रों से मिलना हुआ . समय की कमी से सबसे मिलना नहीं हो पाया . सब अपने - अपने जीवन के चक्र से बंधे हैं . और किसी चक्र से मुक्ति कितनी कठिन है यह मशीन का पुर्जा ही जानता है .
नवम्बर पर ब्लॉग में बहुत सी प्रविष्टीयां हुईं हैं . पर सब एक पुरानी डायरी जो भोपाल प्रवास में मिल गयी थी , से हैं . यह सब तब लिखा था जब पढता था . लगभग दो दशक पुराना है. ब्लॉग पर देकर खुद पढना चाहता था . महसूस करना चाहता था . लिखने के उस दौर की मानसिकता से स्वयं का साक्षात्कार . उम्र के उस दौर में लिखना स्मृतियों और अनुभवों , और भावनाओं को समेटने जैसा था . आप को कैसा लगा ? १९८२-१९९० के वर्षों में क्या सब युवा वैसा ही महसूस करते थे ? हमारे अनुभव भी तो हमारे आसपास के वातावरण और हमारे स्वयं के जीवन द्वारा निर्धारित होते हैं . और हम जहाँ भी हैं . वह इनसे हुए हमारे स्वयं के आदान -प्रदान का निष्कर्ष ही तो है .
अपने मित्रों को तो खोजा ही . और इस प्रक्रिया में अपने मित्रों के मित्र को खोजने का आमंत्रण मिला . और उन्हें खोजने और उनको मिलाने का सुख जो मित्रों को मिला , वह भी महसूस किया . पर इस अनुभव पर एक टिपण्णी से खुद को नहीं रोक पा रहा - कुछ मित्रों को खोजकर पाना , ऐसा लगता है , उनका पता पाने जैसा है . जैसे हम सब जानते हैं , 7 , रेसकोर्स रोड , दिल्ली पर कौन रहता है . पर यह सिर्फ पता जानने जैसा है . वहाँ रहने वाले से सब कहाँ मिल पाते हैं .
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