सुबह बहुत ऊमस थी
दोपहर तल्ख़ धूप
शाम सराबोर बारीश मुंह चिढ़ा रही विद्रूप
मौसम के सामने खड़ा ठगा हुआ
इतना तेजी से क्या बदलना हुआ ?
जब हम तैयार नहीं होते
हाथों में हथियार नहीं होते
हाथों से उड़ जाते तोते
जब कोई परिचित नहीं पहचानता
अपना - अपना नहीं मानता
तब लगता है ठगा सा
जैसे कोई दगा सा
बिना किसी ठौर -ठिकाने के
आदमी खड़ा होता है ठगा हुआ
बदले हुए मौसम का फलसफा हुआ
बहुत बेचारगी सा , वो लम्हा
कितना दिल-फरेब , कितना तन्हा
किसी घर की खड़खड़ाई साँकल
उधर से आयी आवाज़ "कौन"
"कमलेश जी घर पर हैं?"
फिर एक लम्बा मौन
नहीं वो तो नहीं हैं , कुछ कहना था ?
"नहीं यूँ ही , कुछ खास नहीं ,बस मिलना था ,
एक स्वर दबा हुआ ,
शब्द लगता है - ठगा हुआ !!
बहुत गहरे भाव सुन्दर, सटीक रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत गहरी रचना।
जवाब देंहटाएंआदमी खड़ा होता है ठगा हुआ
जवाब देंहटाएंबदले हुए मौसम का फलसफा हुआ
बहुत बेचारगी सा , वो लम्हा
कितना दिल-फरेब , कितना तन्हा
किसी घर की खड़खड़ाई साँकल
उधर से आयी आवाज़ "कौन"
"कमलेश जी घर पर हैं?"
फिर एक लम्बा मौन
नहीं वो तो नहीं हैं , कुछ कहना था ?
"नहीं यूँ ही , कुछ खास नहीं ,बस मिलना था ,
एक स्वर दबा हुआ ,... ek thage dard ko aapne bhawon me baandh diya
बहुत दर्द भरी कविता ..!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना.
The change in the colour of ur blog is looking very nice.
गहन अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
जवाब देंहटाएंपरखना मत ,परखने से कोई अपना नहीं रहता ,कुछ चुने चिट्ठे आपकी नज़र
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ठगे हुए एहसास को बखूबी लिखा है ..आभार
जवाब देंहटाएंआदमी खड़ा होता है ठगा हुआ
जवाब देंहटाएंबदले हुए मौसम का फलसफा हुआ
मुझे तो लगता है इन दो लाइनों में सब कुछ कह दिया आपने। जिसे जिस संदर्भ में लेना हो.. ले सकता है। क्या बात है। बहुत सुंदर
umda ...lajawab
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