13 जून 2011

ठगा हुआ

सुबह बहुत ऊमस थी 
दोपहर  तल्ख़ धूप
शाम सराबोर बारीश मुंह चिढ़ा रही विद्रूप 
मौसम के सामने खड़ा ठगा हुआ 
इतना तेजी से क्या बदलना हुआ ?
जब हम तैयार नहीं होते 
हाथों में हथियार नहीं होते 
हाथों से उड़ जाते तोते 
जब कोई परिचित नहीं पहचानता 
अपना - अपना नहीं मानता
तब लगता है ठगा सा 
जैसे कोई दगा सा 
बिना किसी ठौर -ठिकाने के 
आदमी खड़ा होता है ठगा हुआ 
बदले हुए मौसम का फलसफा हुआ 
बहुत बेचारगी सा , वो लम्हा 
कितना दिल-फरेब , कितना तन्हा
किसी घर की खड़खड़ाई साँकल
उधर से आयी आवाज़ "कौन"
"कमलेश  जी घर पर हैं?"
फिर एक लम्बा मौन 
नहीं वो तो नहीं हैं , कुछ कहना था ?
"नहीं यूँ ही , कुछ खास नहीं ,बस मिलना था ,
एक स्वर दबा हुआ ,
शब्द लगता है - ठगा हुआ !!     

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत गहरे भाव सुन्दर, सटीक रचना।

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  2. आदमी खड़ा होता है ठगा हुआ
    बदले हुए मौसम का फलसफा हुआ
    बहुत बेचारगी सा , वो लम्हा
    कितना दिल-फरेब , कितना तन्हा
    किसी घर की खड़खड़ाई साँकल
    उधर से आयी आवाज़ "कौन"
    "कमलेश जी घर पर हैं?"
    फिर एक लम्बा मौन
    नहीं वो तो नहीं हैं , कुछ कहना था ?
    "नहीं यूँ ही , कुछ खास नहीं ,बस मिलना था ,
    एक स्वर दबा हुआ ,... ek thage dard ko aapne bhawon me baandh diya

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत दर्द भरी कविता ..!!
    बहुत सुंदर रचना.
    The change in the colour of ur blog is looking very nice.

    जवाब देंहटाएं
  4. ठगे हुए एहसास को बखूबी लिखा है ..आभार

    जवाब देंहटाएं
  5. आदमी खड़ा होता है ठगा हुआ
    बदले हुए मौसम का फलसफा हुआ

    मुझे तो लगता है इन दो लाइनों में सब कुछ कह दिया आपने। जिसे जिस संदर्भ में लेना हो.. ले सकता है। क्या बात है। बहुत सुंदर

    जवाब देंहटाएं

आपके समय के लिए धन्यवाद !!

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