अब भी ऊँची बहुत है ये बारादरी,
जबकि नीचे नदी की बाढ़ नहीं उतरी |
फूलों की पाँखुरी पै अंगारे रखे थे ,
फिर भी तेरी कही बात नहीं अखरी|
जिन हवाओं में नहीं थी तेरी खुशबू ,
जिंदगी वहाँ कब कहाँ थी ठहरी |
सामने जब भी आये मेरे पैमाने ,
याद आयीं तेरी आँखें भरी- भरी |
दरवाजा यूँ ही खुला रखा है,
पता है कोई ना आएगा इस दुपहरी|
हर शब्द का हमारा आपका अनुभव अलग है . शब्द के अर्थ हमारे अनुभव के अनुसार हमें सुख-दुःख संताप पीड़ा आह्लाद आनंद शांति द्वेष घृणा प्रेम जैसे उदगार देते हैं - शब्द और अर्थ .मेरे अनुभव और अर्थ का विहंगम . मेरे शब्दों का सफर .
23 नवंबर 2010
आईना
मुमकिन है तुम खुदा नहीं हो
इसका तुम्हे कुछ पता नहीं हो |
तुम भी हो एक चेहरा फकत ,
तुम कोई आईना नहीं हो |
क्यों दोहराते हो पिछली बातें ?
जैसे हमने सुना नहीं हो |
यादों के संग कैसे गुजरे ?
जब कोई अपना नहीं हो |
वो घर जल खाक हो जाये ,
जिसमे कोई रहता नहीं हो |
मैंने भी एक ख़त डाला है ,
जो तुम तक पहुंचा नहीं हो |
इसका तुम्हे कुछ पता नहीं हो |
तुम भी हो एक चेहरा फकत ,
तुम कोई आईना नहीं हो |
क्यों दोहराते हो पिछली बातें ?
जैसे हमने सुना नहीं हो |
यादों के संग कैसे गुजरे ?
जब कोई अपना नहीं हो |
वो घर जल खाक हो जाये ,
जिसमे कोई रहता नहीं हो |
मैंने भी एक ख़त डाला है ,
जो तुम तक पहुंचा नहीं हो |
14 नवंबर 2010
घर पास बहुत है
उसके सीने में आग बहुत है ,
उसका इरादा खतरनाक बहुत है |
उस मोड़ पर कबसे खड़ा मैं ,
सोचता हूँ घर पास बहुत है |
जिन किताबों को मैंने पढ़ा है ,
उनमे जिक्र तेरा खास बहुत है |
चाँद निकला नहीं तो कह दो ,
के मौसम के खिलाफ बहुत है |
मेरे रूबरू नहीं थी तो क्या ?
बात अपने में साफ बहुत है |
मैं तुम्हारा दोस्त हूँ, चेहरा नहीं
नहीं , अभी नहीं , तो कब ? उम्र अब बारहा नहीं ,
अब तेरे दिल पर तेरी उम्र का पहरा नहीं |
उम्र के सोलह बरस में क्या -क्या हुआ है तुझे ,
दिल क्या कहेगा ये दिल भी अब तेरा नहीं |
क्या हुआ कश्तियों को , औ ' कहाँ माझी तमाम
और इस चढ़ती नदी में क्यों कोई उतरा नहीं ?
मिलने को जब दो घड़ी है , तो मिल बैठ ले
उम्र की बंदिश से ज्यादा यहाँ कोई ठहरा नहीं |
ये अढाई घर की चालें अब कब तक चलोगे ?
जिंदगी है ये कोई शतरंज का मोहरा नहीं |
तुमको सोने की परख हो , सोने सा परखो नहीं ,
हर कसौटी पर यहाँ कोई भी खरा नहीं |
शायर हो गया हूँ , कोई सिरफिरा नहीं ,
और तेरा नाम लेना इतना बुरा नहीं |
ग़र तेरी हाँ ना के बीच मौसम यूँ अटका रहा ,
मुझको वो मौसम बहुत धुंध हो कोहरा नहीं |
मैं तुमसे अलग हूँ, बिलकुल अलग ,
मैं तुम्हारा दोस्त हूँ, चेहरा नहीं |
सामने
खंजर धरा है जैसे कोई नज़र के सामने
मेरा मकां है कातिल के घर के सामने |
गिर के उठेंगी कब तक सागर से पूछिए ,
ग़र साहिल नहीं हो कोई लहर के सामने |
मसीहा नहीं , देवता है अब पता चला ,
फिर ठीक झुका शीश पत्थर के सामने |
मुझको गिला नहीं उसका जमीर है ,
वादा था उसका वैसे शहर के सामने |
आईने को चेहरे की पहचान नहीं थी वर्ना ,
यूँ ही नहीं चला आता पत्थर के सामने |
जाँ भी नहीं जाती किसका जहर लूँ मैं बेअसर हैं सब उसके असर के सामने |
वो तुझसे नहीं मिला वर्ना नहीं कहता
शाम नहीं देखी कभी दोपहर के सामने |
12 नवंबर 2010
थोड़ा
मुझसे कहते हैं वो करो गरूर थोड़ा,
सीखना है आपको झुकना हूजुर थोड़ा |
किसी अंधे से टकराए तो , मान लो ,
सिखाने आयेंगे लोग उसे शऊर थोड़ा |
शेर से मेमने ने कुछ यूँ कहा होगा ,
मुझे ख़ुशी होगी जो रहें दूर थोड़ा |
उसके गुस्से का कहर ना टूटे ,
बस वो नाराज हो जरूर थोड़ा |
एक परिंदा परकटा उड़ान को तैयार,
पर पालतू कबूतर आदत से मजबूर थोड़ा |
10 नवंबर 2010
शिव , काशी , और मैं
(१)
सोचता हूँ
काशी चला जाऊं
मैं और काशी
बहुत दिनों से नहीं मिले |
मुझे मालूम है
काशी
मुझे बहुत याद करती है |
मुझ पर और शिव पर
बहुत कृपा है काशी की |
(२)
मेरे और शिव के बिना काशी
क्या होती ?
शायद वैसे ही
जैसे काशी के बिना
मैं और शिव |
फिर लोग काशी क्यों छोड़ जाते हैं ?
(३)
शिव कौन है ?
मैं नहीं जानता |
शिव क्या है ?
शायद जानता हूँ |
(४)
जिसने संसार में रह कर इसे छोड़ दिया
जो इसमें है भी और नहीं भी |
जिसको मालूम था
अमृत भी निकलेगा
ऐरावत भी ,
लक्ष्मी भी |
मंथन जब भी होगा
जब भी
वासुकी , कश्यप , और मदरांचल
ये तीनो मिल मथेंगे
निकलेगा विष
नहीं हलाहल |
जब भी अपनाना होगा
काशी शिव मांगेगी |
जो - संसार में रहकर भी इसे छोड़ दे
जो इसमें है भी , और नहीं भी
हलाहल जब भी पीना होगा
शिव पिएगा
काशी ने शिव माँगा |
(५)
किसको होना है शिव ?
मेरे पास है एक हलाहल |
मैं काशी भी हो आया |
किसको होना है शिव ?
मेरे पास है एक हलाहल
पिएगा शिव ही |
शिव को ही पीना होगा |
हलाहल जब भी पीना होगा
शिव ही पिएगा |
(६)
ज्वाला
विष की
प्रचंड हो जाती है
हाहाकार मचाती है |
जब मन मंथन होता है
द्वन्द होता है
रात्रि के नीरव में मैं
औघड़ होता हूँ
जब होता है - श्मशान मन |
रोज निकलता है विष
रोज मनमंथन होता है
मेरे पास है एक हलाहल
किसको होना है शिव ?
(७)
काशी बुला रही है |
एक ही होगा -
अकेला , अनूठा
शिव|
एक ही है - हलाहल |
(८)
जिसको जीवन ने ठुकराया
दर्शन ने विछिन्न किया
सबको समेट लिया शिव ने
अंत में - वही बचा
जिसको शिव ने सहेजा
काशी शिव की है
काशी शिवमय है |
वृद्धों , अपाहिजों , विधवाओं , रोगी ,
और मृतक शरीरों ,
जिस-जिस को जीवन ने ठुकराया
सबको ,सहज समेटा काशी ने |
विष को सबने लौटाया
काशी ने सहेजा
इसे शिव ही समेट सकता है |
संसार का हलाहल - शिव ही पिएगा |
(९)
लोग - काशी क्यों छोड़ जाते हैं ?
शिव को उसने जाना है
जो काशी से मगहर जाता है |
काशी से मगहर जाना
शायद शिव हो जाना है |
(१०)
जंगल के फूल ,
बिल्व के पत्ते ,
धतुरा |
किसने सोचा ये मान पाएंगे ?
शिव के सब
इनके जैसे हैं |
जिसने शिव को जाना
वो ही ये जान पाएंगे
क्यों मान दिया शिव ने
जंगल के फूल ,
बिल्व के पत्ते ,
धतूरे को |
जब भी प्रतिष्ठा पानी होगी पांडित्य को
वह काशी जाएगी |
(११)
पांडव में प्रवीण
भोला है ,
होता है ना आश्चर्य ?
त्रिनेत्रधारी
भोला है |
होता है ना आश्चर्य ?
ऐसा ही है शिव
तांडव में प्रवीण त्रिनेत्रधारी
और भोला |
सहजता का पर्याय |
(१२)
शिव होना
सहज होना है
हलाहल के बीच
हलाहल के साथ
हलाहल में |
(१३)
शिव कौन है ?
मैं कौन हूँ ?
काशी कौन है ?
काशी है परंपरा - अविराम
अपना कहने की
उसे जो पी सके - हलाहल |
काशी उस जगह का नाम नहीं
जहाँ मरने पर स्वर्ग मिलता है |
काशी उनको स्वर्ग है
जो हलाहल पीने की सहजता रखते हैं |
चूँकि वे हैं
इसलिए काशी है |
परम्परा तब तक रहती है
जब तक उसका निर्वाह होगा |
मैं कौन हूँ ?
मैं किसी व्यक्ति का संबोधन
या
सर्वनाम नहीं हूँ |
मैं हूँ प्रेरणा
जिसे लगता है काशी बुला रही है
मैं जिसे लगता है
मैं काशी का हूँ |
मैं जिसे लगता है
सारा हलाहल मेरा हिस्सा है
मैं जिसे लगता है
काशी उसकी है |
मैं हूँ प्रेरणा
जो उद्वेलित करती है
परंपरा निर्वाह को |
शिव कौन है ?
परंपरा और प्रेरणा के बीच अगर सेतु है
निर्वाह है
शिव है |
प्रतिष्ठा है - तो शिव है |
मैं और काशी तो इस संसार के हैं
शिव है
जिसने संसार में रह कर इसे छोड़ दिया
जो इसमें है और नहीं भी
मैं और काशी तो फिर भी बंधे हैं शिव से |
शिव कहीं भी हो
उसकी वह काशी है
पर "वह कहीं " शिव का न होगा |
होगा तो - काशी होगा |
इससे शिव को अंतर कुछ नहीं
शिव होना
कहीं भी रहकर उसे छोड़ना है |
पुनश्च :
मैं काशी जाऊँगा -
और फिर काशी से मगहर |
9 नवंबर 2010
अपने नाम में
एक शीशा बचा है इस घर की दीवार में ,
और एक पत्थर धरा है तुम्हारे हाथ में |
जैसे घी जला करता है होमो-हवन के साथ में ,
वो बराबर साथ जला है मेरी इस आग में |
कल आँखों से उसने इतना कुछ कह डाला ,
उतना लिखने बैठूं तो दिन ढल जायेगा रात में |
सारी किताबें पढ़ कर भी मैं अधूरा ही रहा ,
तुमको अब भी पढ़ रहा हूँ मैं हर किताब में |
बरसों पहले मिटाया था तुमने दिल से नाम मेराजख्म यूँ तो भर गया है दर्द अभी है घाव में |
जिंदगी , जाँ, जिस्म तीनो ले लीजिये, शर्त है ,
मेरा नाम लिखा करोगे तुम अपने नाम में |
बातें
जब भी करता हूँ मैं याद पुरानी बातें ,
लोग कहतें हैं की होती हैं तुम्हारी बातें |
बयानों की तरह सहेजें तो मैं क्या करूँ ?
मैंने ख़त में कब लिखी थीं सारी बातें |
तुमसे उम्मीद नहीं कौन याद रखता है ?
सैकड़ों लोगों में किसी की सारी बातें |
रेत के घरौंदे को घर भला किसने कहा ?
इस उम्र में होती हैं सब कवारीं बातें |
उम्र गुजर जाए फिर ना कहना की
मेरे कानों में कह दो प्यारी-प्यारी बातें |
मुझको इनके सहारे ही जीना होगा ,
मुझको याद हैं सब जुबानी बातें |
आजकल चुप हूँ मुझे शक तो था ,
उसे ढूँढ रहा हूँ जिसने मेरी चुरा ली बातें|
तुमने ही भूले से लिया होगा नाम मेरा ,
मैंने कब दी थीं किसी को गवाही बातें |
लोग कहतें हैं की होती हैं तुम्हारी बातें |
बयानों की तरह सहेजें तो मैं क्या करूँ ?
मैंने ख़त में कब लिखी थीं सारी बातें |
तुमसे उम्मीद नहीं कौन याद रखता है ?
सैकड़ों लोगों में किसी की सारी बातें |
रेत के घरौंदे को घर भला किसने कहा ?
इस उम्र में होती हैं सब कवारीं बातें |
उम्र गुजर जाए फिर ना कहना की
मेरे कानों में कह दो प्यारी-प्यारी बातें |
मुझको इनके सहारे ही जीना होगा ,
मुझको याद हैं सब जुबानी बातें |
आजकल चुप हूँ मुझे शक तो था ,
उसे ढूँढ रहा हूँ जिसने मेरी चुरा ली बातें|
तुमने ही भूले से लिया होगा नाम मेरा ,
मैंने कब दी थीं किसी को गवाही बातें |
किस्सागो
सुनता है औरों की दास्ताँ किस्सागो !
कहता है बस अपनी जुबां किस्सागो !!
अफसाने में , खुदा भी है ,
आशिक भी है , सिजदा भी है ,
बस्ती भी है , वीरान भी है ,
आदम भी है , शैतान भी है ,
लेता है सबके बयां किस्सागो !
अफसाने में , अफसाना भी है ,
मस्जिद भी , मयखाना भी है ,
महफ़िल भी , तन्हाई भी ,
शैदाई भी , रुसवाई भी ,
लेता है सबको आजमां किस्सागो !
वो शब्दों का सौदागर है ,
वो जाल बुनेगा अफसाने से ,
ना कहने वाली बातें भी ,
वो कह देगा ज़माने से ,
क्यों रक्खे फतवों का गुमां किस्सागो !
देखा भी , और देखा भी नहीं ,
वो लाख निगाहें रखता है ,
तुम दो होठों से कहते हो ,
वो सौ कानों से सुनता है ,
देखता है हर उठता धुआं किस्सागो !
तुम सौ पर्दों में रखते थे जिसे ,
वो पर्दा आज जला डाला ,
माज़ी तेरा , यादें तेरी ,
सोच के कैसे खुला ताला ?
रखता नहीं कुछ दरमियाँ किस्सागो !
हर मुमकिन आँखों से उसने
एक- एक चेहरा देख लिया ,
उसने हर मंजर देख लिया ,
हर शख्श को गहरा देख लिया,
ले लेता है हर इम्तहां किस्सागो !
तुम शीशे में उतरे जैसे ,
वो वैसा ही अक्श बनाता है ,
हाथ उसी का जलता है ,
फिर भी वो आग लगाता है ,
जला लेता है अपना मकां किस्सागो !
सैकड़ों थी जुबां , बयां एक ,
सैकड़ों थे नश्तर, चुभा एक,
सैकड़ों थे हाथ, उरयां एक ,
अब सैकड़ों पत्थर , निशां एक ,
चलता है दोधारी कजां किस्सागो !
अफसाना बस अफसाना है ,
ये अक्श तुम्हारा ही है तो गलत ,
ये उम्र तो बस फ़साना है ,
ये वक्त तुम्हारा ही है तो गलत ,
ख्यालों को छेड़ गया बेइंतहा किस्सागो !
अफसाना बस अफसाना है ,
ये अक्श तुम्हारा ही है तो गलत ,
ये उम्र तो बस फ़साना है ,
ये वक्त तुम्हारा ही है तो गलत ,
ख्यालों को छेड़ गया बेइंतहा किस्सागो !
8 नवंबर 2010
मुझे पूछते जाओ
शिल्पी नहीं हूँ -
इसलिए आकार नहीं हूँ
रंग नहीं हूँ -
बल्कि चित्रकार नहीं हूँ |
सूक्ष्म नहीं हूँ -
इसलिए न कोमलता
न भावनाएं
न अनुभूति
न प्यार |
स्थूल नहीं हूँ -
इसलिए न मांसलता
न स्निग्धता
न देह-यष्टी
न एकाकार |
मैं , मैं हूँ , जैसा हूँ
तुम , तुम हो , जैसे हो |
शब्द हूँ -
इसलिए ,
बल्कि इसीलिए
हालात हूँ
स्थिति हूँ
दृष्टी हूँ
हूँ मनोदशा |
पंक्तियाँ नहीं बन सका -
चूँकि व्याकरण नहीं था |
वाक्य हूँ -
इसलिए विक्षिप्त हूँ |
अर्थ था -
माना नहीं गया |
इसलिए रहा -
अजाना ,
अबूझा ,
अकेला ,
और त्याज्य |
छपा नहीं -
चूँकि ढल नहीं सका |
पढ़ा नहीं गया ,
गाया नहीं गया ,
कर्कश हूँ
कठोर निकला
लयहीन रहा |
चला नहीं -
चूँकि खड़ा रहा
न प्रवाह में बह सका ,
न फिसल सका |
देखा नहीं गया
पलटा नहीं गया
चूँकि -
मुखपृष्ठ आकर्षक नहीं था ,
आवरण था सामान्य , रंगहीन
पृष्ठ बेतरतीब बंधे थे
सज्जा अनुरूप नहीं थी
और स्वयं को प्रचलन के अनुरूप नहीं ढाला |
चर्चा का -
न कुपात्र , न सुपात्र |
न व्यवहार निकला
न गर्मजोशी
न प्रतीक्षा
न प्रशस्ति
और न चमड़े की जुबान ही चलती |
स्वयं को स्वयं प्रचारित होना आया नहीं
भाया नहीं |
कोई आया तो बांछे खिली नहीं
किसी को
चेहरे पर सदा मुस्कराहट मिली नहीं
याचक का भाव आँखों में आया नहीं
किसी के द्वार पर यशोगान गाया नहीं
प्रशस्ति उन्हें मिली , जो पढ़ सके
बहाने उनको दिए गए , जो गढ़ सके
उनको बुलाया गया, जो बिन बुलाये गए
उनके हाथ गर्म हुए , जो गर्मजोशी से मिले
दाम उनके लगे , जो बोली बोल सके |
बह नहीं सका , बहा नहीं सका
न नदी हूँ , न समुद्र
की अपने अन्दर फेंका गया सारा कूड़ा -करकट
ज्वार उठा अपने अंतस
किनारे तक ले चलूँ , फेंक दूं |
मैं
रास्ता हूँ
नहीं |
जमीन हूँ , मुझ पर चलो |
मैं सूर्य हूँ |
नहीं उष्मा हूँ ,
मुझ में नहीं
मेरे साथ जलो
मैं तुम्हारे साथ हूँ
तुम्हारे बराबर |
मैं तुम्हारा कद हूँ
काठी हूँ
दिल हूँ
दिमाग हूँ |
और भी हूँ सब कुछ तुम्हारा | तुम्हारे जैसा |
मैं बंधन नहीं -
मुझे बाँहों में घेरो मत|
मैं आनंद नहीं -
मुझे भोगकर प्राप्त मत करो |
मैं तृष्णा नहीं
मेरी कामना करो मत |
मैं संतोष नहीं
जिसको तुम पा लोगे |
मैं बीतता हुआ पल हूँ
मुझे चुक जाने दो , रोको मत |
आगे देखो , मैं फिर आऊंगा |
मैं अनंत हूँ - मुझको
कहाँ तक खोजोगे ?
कब तक भोग करोगे ?
कितना संचित करोगे ?
मुझको - क्या बाँधोगे ?
मुझको , लक्ष्य मत मानो|
"क्यों ?", "क्यों ?" , "क्यों ?"एक प्रश्न हूँ | उत्तर नहीं |
मुझे पूछते जाओ ,
मुझे पूछते जाओ ,
मुझे पूछते जाओ |
"मैं " - देखना , निकलूँगा एक दिन - "तुम " ही |
पूछो -
"क्यों ?", "क्यों ?" , "क्यों ?"
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