9 नवंबर 2010

किस्सागो

सुनता है औरों की दास्ताँ किस्सागो !
कहता है बस अपनी जुबां किस्सागो !!
        अफसाने में  , खुदा  भी है ,
        आशिक भी है , सिजदा भी है ,
        बस्ती भी है  , वीरान  भी है ,
        आदम भी है , शैतान भी है  ,
लेता है सबके बयां किस्सागो !
        अफसाने में , अफसाना भी है ,
        मस्जिद भी , मयखाना भी है ,
        महफ़िल भी , तन्हाई भी ,
        शैदाई भी , रुसवाई भी ,
लेता है सबको आजमां किस्सागो !       
         वो शब्दों का सौदागर है ,
         वो जाल बुनेगा अफसाने से ,
         ना कहने वाली बातें भी ,
         वो कह देगा ज़माने से ,
क्यों रक्खे फतवों का गुमां किस्सागो !
        देखा भी , और देखा भी नहीं ,
        वो लाख निगाहें रखता है ,
        तुम दो होठों  से कहते हो ,
        वो सौ कानों से सुनता है ,
देखता है हर उठता धुआं किस्सागो !
      तुम सौ पर्दों में रखते थे जिसे ,
      वो पर्दा आज जला डाला ,
      माज़ी  तेरा , यादें तेरी ,
      सोच के कैसे खुला ताला ?
रखता नहीं कुछ  दरमियाँ किस्सागो !
      हर मुमकिन आँखों से उसने
      एक- एक चेहरा देख लिया ,
      उसने हर मंजर देख लिया ,
      हर  शख्श को गहरा देख लिया,
ले लेता है हर इम्तहां किस्सागो !
      तुम शीशे में उतरे जैसे ,
      वो वैसा ही अक्श बनाता है ,
      हाथ उसी का जलता है ,
      फिर भी वो आग लगाता है ,
जला लेता है अपना मकां किस्सागो !
     सैकड़ों  थी जुबां , बयां एक ,
     सैकड़ों थे नश्तर, चुभा  एक, 
     सैकड़ों  थे हाथ, उरयां एक ,
     अब सैकड़ों पत्थर , निशां एक ,
चलता है दोधारी कजां किस्सागो !
      अफसाना बस अफसाना है ,
      ये अक्श तुम्हारा ही है तो गलत ,
      ये उम्र तो बस फ़साना है ,
      ये वक्त तुम्हारा ही है तो गलत ,
ख्यालों को छेड़ गया बेइंतहा किस्सागो !

1 टिप्पणी:

आपके समय के लिए धन्यवाद !!

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