22 दिसंबर 2010

जीवन को देखना इतने समीप से

स्वर्णिम व्योम को प्रातः निहारना ,
उड़ते पंछियों का कलरव पुकारना;
उष्ण सलील का  देह पुचकारना ,
मंद समीर की चुटीली प्रताड़ना ;
  जीवन को देखना इतने समीप से ,
  पुलकित-दृश्य नयन-प्रदीप से |
डकैत सा मुंह ढांपे झुलसाती दोपहरी ,
शहर की बाला नापे घर-द्वार-देहरी;
सर पै  डोले तपती  उलटी तश्तरी ,
लू  की धौंकनी झेले कमसिन प्रहरी;
  मौसम का मिज़ाज मापे तरकीब से ,   
  जीवन को देखना इतने करीब से |
टिमटिमाते दीपों से थाल सजाये ,
कई कई समवेत स्वर आरती गाएँ ;
बाजे मृदंग,झांझ ,स्तोत्र गुनगुनाएं,
हाथों को उलट पलट घंटा बजाएं ;
  तन्मय हो बावरी अविरल-संगीत से ,
  जीवन हो अनुभूत एकाकार मीत से |
कालरात्रि महाकाल शरणागत त्रिपुरारी, 
रात्रि  में भस्मीभूत मणिकर्णिका चिंगारी ;
धू-धू जले सब विकृति,विकार,अभिचारी,
श्मशान वैराग्य अनुभूति करता है संसारी ;
  दिवस के सोपान सारे अपने अतीत से ,
  जीवन पथिक आक्लांत व्यतीत से |

4 टिप्‍पणियां:

आपके समय के लिए धन्यवाद !!

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