20 अप्रैल 2011

जमीन की चक्कलस

ऐ खुदा तुने मुझे कब्र से कम दी है जमीं
पाँव फैलाऊँ तो दीवार से सर लगता है | ( बशीर बद्र )


जमीन न हुई चक्कलस हो गयी | जिसे देखिये इसे लेकर रो रहा है | 'आदर्श' की जमीन सेना में उथल पुथल मचा रही है | 'नंदीग्राम ' और 'सिंगुर ' की जमीन ३५ सालों से काबीज कम्युनिस्टों के पैरों तले से खिसक रही है | खबर है की 'माया ' की जमीन 'भूषण ' के गले की हड्डी बन रही है | कर्नाटक के येदिउरप्पा हों या राजस्थान के गहलोत | शिवराज की 'कुशाभाऊ ठाकरे न्यास ' को प्रदत मेहरबानी हो या 'सरकारी बाबुओं ' के निवासों के लिए चली उदार कलम की निशानी | दिल्ली के सैनिक फार्म की कहानी या अमिताभ की किसानी | हर किस्सा जमीन पर आकर ख़त्म होता है |

लुटयन की दिल्ली तो पहले से स्मृतिवनों , घाटों , स्मारकों , प्रतिष्ठानों में लुट चुकी है | 'सार्वजनिक - निजी भागीदारी " की कहानी जमीन के जमींदोज होने की कहानी ज्यादा है | सस्ती जमीन की बानगी - बनने वाले अस्पतालों में गरीबों के लिए मुफ्त बिस्तर , बनने वाले स्कूलों में गरीब बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा, बनने वाले कारखानों में विस्थापितों के लिए रोजगार - बनाकर परोसी रसोई में है | इस वायदा कारोबार ने गरीबों का कितना किया फायदा ? यह शोध का विषय है | भूमि के पुनःवितरण की कहानी नहीं है बहुत पुरानी | 'सिंगुर ' की जमीन की खरीदारी सर्वहारा सरकार ने 'इच्छुक' मालिक लोगों से खरीद ली जो 'रिकार्ड ' में अब भी मालिक थे | जोतने और बोने वाले खेतिहर लोग सीख रहे थे उनके स्वप्न 'कागजी ' भी नहीं थे |
बदनसीब जफर को तो 'दो गज जमीन भी न मिली कू ए यार में ' | बहादुर शाह जफ़र का दर्द अब 'टाटा ' , 'वेदांत ' , और अम्बानी का भी है | विकास के लिए वर्षो से जंगलों में रह रहे आदिवासी की जमीन चाहने वाले गलत क्या करते हैं ? वही जंगल का कानून | ठीक वैसे ही जैसे शेरो और बाघों के लिए जंगल छोटे पड़ते हैं तो वो मानव बस्तियों की ओर रुख कर लेते हैं | पर वो अपने बंद कारखानों की जमीन पर या तो 'मॉल' बना रहे हैं या ' अट्टालिकाएं ' | इन कारखानों के लिए भी जमीन का अधिग्रहण किसी 'सरकार ' ने किया होगा , शायद | हमारे यहाँ वैसे भी परम्पराएँ बखूबी निभायी जाती हैं |
अधिग्रहित जमीन पर गोल्फ कोर्स भी बदस्तूर बनेगें | आखिर ' जन संबंधी ' प्रयोजनों में यह भी शामिल है ही | वह दिन कब आएगा जब विकास के लिए 'मरीनड्राईव ' वाले अपनी जमीन खुशी ख़ुशी दे देंगे |

जब पृथ्वी पर मानव का आविर्भाव हुआ , तब जो जहाँ जन्मा वहां काबिज हो गया | कबीले गाँव फिर शहर , राज्य और देश बनते चले गये | कब्ज़ा - जिसकी लाठी उसकी भैंस की तर्ज पर चलता है | और प्रजातंत्र में यह लाठी प्रजा ने सरकार को सौंप दी | सब भूमि गोपाल की तर्ज पर | मनुष्य लाख चाँद और मंगल ग्रहों पर जमीन के टुकड़े ख़रीदे / बेचे | पर सुना है विश्वव्यापी तापक्रम वृद्धि से पिघलते ध्रुवी प्रदेशों की जमी बर्फ से बढे समुन्दर के जलस्तर बहुत से टापुओं , समुन्दर किनारे बसे शहरों , या देशों के बड़े अंशों को डूबा देगा | तभी तो कहा - 'मरीनड्राईव ' वाले अपनी जमीन खुशी ख़ुशी दे दें | जो कल जाना है उसका आज मोह क्यों ? ज़र , ज़ोरु , ज़मीन के झगड़े सारे | मुहावरा काफी पढ़ा और गुना | पर लगता है मुहावरा कुछ गलत बन पड़ा है |

अब बचने के लिए - या तो ' एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है जिसमें तहखानो से तहखाने लगे हैं ' ले लें | या किसी सरकारी ज़मीन पर काबिज हो लें | आगे पीछे 'पट्टा' मिल ही जायेगा | वैसे भी ज़मीन खरीदते तो बेवकूफ ही हैं |

4 टिप्‍पणियां:

आपके समय के लिए धन्यवाद !!

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