30 अप्रैल 2010

और हम इंतज़ार करते हैं

हर सुबह की शाम होती है ,
और हम इंतज़ार करते हैं .
बदलते हैं रुख मौसमों के ,
और हम इंतज़ार करते हैं .
मौत का एक दिन मुकम्मल है ,
और हम इंतज़ार करते हैं .
गया वक़्त लौट कर नहीं आता ,
और हम इंतज़ार करते हैं .
हर चेहरा एक मुखौटा है ,
और हम इंतज़ार करते हैं .
दुनिया नहीं हमें बदलना होगा ,
और हम इंतज़ार करते हैं .
आएगा मसीहा एक दिन ,
और हम इंतज़ार करते हैं .

28 अप्रैल 2010

मित्र जयराज के जन्मदिन पर !

जीवन की आपाधापी में .
कुछ बीत गया , कुछ छूट गया ,
जो बाक़ी है वह अपना है ,
जो छूट गया वह सपना है .
कुछ माँगा है , कुछ मिलता है ,
कुछ तीखा है , कुछ मखना है .
प्रारब्ध हो ! या प्राप्य हो !
सुर में अटका या टूट गया .
जीवन की आपाधापी में ,
जो बाँटा -वह अपना था
वह रचना थी ! यह रचना है !

23 अप्रैल 2010

खंजर ना दीजिये

इस अजनबी शहर में घर ना दीजिये ,
शीशों के बीच हूँ पत्थर ना दीजिये .
लेना है इम्तहां तो हैं रास्ते और भी ,
हादिसों का मौसम है खंजर ना दीजिये .
कब मेरी नीयत  पलट जाये क्या पता ,
जिन्हें शौके - गुनाह है अवसर ना दीजिये .
जो झूठ ही दोहराए मुंसिफ भी यहाँ तो ,
मेरे किसी सवाल का उत्तर ना दीजिये .

16 अप्रैल 2010

यत्र-तत्र-सर्वत्र

कलयुग - मालूम नहीं युगों के नामकरण के पीछे क्या रहा था . पर कल - यानि एक पर्याय यन्त्र . यानि औजार . बहुत आगे जाएँ तो मशीन . आजकल गैजेट शब्द का इस्तेमाल हो रहा है . क्या कहें इसे हम हिंदी में ? कुछ लोग तो अब गैजेट्स को व्यक्तिगत सजावट की सामग्री के तौर पर भी  रखने लगे हैं . बहुत फायदा है इनका . हाथ पैर कम चलाने पड़ते हैं. बेतार के यन्त्र के लिए अब न पंक्ति में लगना पड़ता है . न रात की दरों का इन्तेजार. डाक टिकट तो अब शायद उपयोग की कम संग्रह और विमोचन की वस्तु हो गएँ है. बहुत दिनों से लोगों को थूक लगाने की गन्दी आदत से भी छुटकारा मिल गया है . हाथ  पहले लिखने के लिए थे . अब टाइपिंग में प्रयोग आतें हैं . हालांकि बहुत से अफसर अपनी ईमेल भी अपने स्टेनो से ही अब भी टाइप करवा रहे हैं . अंगूठे और ऊँगली तो जैसे मोबाइल से चिपके रहते हैं . वैसे प्रायवेसी भी खत्म हो गयी है . अब आप बाज़ार में , सफ़र करते हुए पति - पत्नी , माँ और बेटियों , प्रेमी और प्रेमिका के संवाद सुन सकते हैं . और डोन, नेता , अभिनेता , पत्रकार , अफसर के संवाद भी कभी कभी टी वी वाले सुना देते हैं . और ट्विट्टर की चहचहाहट में तो आप बहुत कुछ सुन रहें होंगे इन दिनों .
कलयुग में यंत्रों ने हम सब पर कब्ज़ा कर लिया है . अब लोग टहलना , दौड़ना , कूदना , नौकायन सब यंत्रों पर ही कर लेते हैं . इसी लिए अब कविता से यंत्रों का शोर ज्यादा , कोयल , गुल , तितलियाँ , ख़ुश्बू कम नज़र आतीं हैं .
कभी कभी पढ़ने में आता है . शरीर के अंगो  को भी बदल दिया जा सकेगा . दिल के बदले शायद दिल देना संभव हो . पर कुछ लोगों को तो काम के बदले अनाज ही मिलेगा . कलयुग में मनुष्य एक यन्त्र हो जा रहा है . यत्र-तत्र-सर्वत्र .  

15 अप्रैल 2010

अपने दोस्त अनुपम गुप्ता को समर्पित

नाराज है तो लड़ ले , गाली दे , आँखे तरेर ,
खामोश ना रह , मुंह ना फेर !
हममे अदावत कई जन्मों से सही ,
अब अल्लाह रहम ! खुदा खैर !
तेरी गाली मुआफ, मेरी खता मंजूर ,
दोनों उसके सामने होंगे, देर सबेर !
तेरे दोस्तों में मेरा शुमार न सही ,
ज़िन्दगी गुजरी नहीं तेरे बगैर .
बचपन छूटा, बचपना रह गया ,
यह कैसा तमाशा , कैसा अंधेर !

13 अप्रैल 2010

ब्लॉग की दुनिया

मैं ब्लॉग पर किस लिए ? इस प्रश्न का कोई सीधा उत्तर शायद नहीं है . पहले हिंदी पढ़ने की इच्छा होती थी तो बहुत सी पत्रिकाएं मिल जाती थीं . सारिका . धर्मयुग . फिर युग बदल गया . तद्भव , हंस , संवेद, कभी कभी मिलती थीं जब इलाहाबाद या दिल्ली जाना होता था . अब वहां भी यदा कदा ही दिखती हैं . हिंदी पत्रिका के नाम पर हिंदी अनुवाद की पत्रिकाएं ही ज्यादातर या अख़बार में भी अनुवाद ही ज्यादा . हिंदी ब्लॉग में भी लेखक वर्ग तो है पर पाठक भी लेखक ही हैं . मैं लेखक हूँ या पाठक ? ईमानदारी से बोलूँ तो पाठक . पढना चाहता हूँ  चिंतन , दृष्टि , संवाद . पर ज्यादातर मिलता क्या है ? अनुवाद, प्रतिक्रिया , या लम्बे लम्बे लेख . पर अनुसन्धान या नयी दृष्टि कम . जीवन से जुड़ाव भी कम . कुछ लोग अच्छा भी लिखते हैं . उन्हें पढना अच्छा लगता है . पर अगर टिपण्णी नहीं भी की तो अच्छा नहीं लगा  ऐसा भी नहीं. पर हजारों ब्लॉग में सब पढने के लिए समय भी नहीं मिल पायेगा . न सब लेखों पर टिपण्णी ही संभव होगी . यह एक अंकुरण लगता है . पर लगता है एक ब्लॉग बिना लाग लपेट के अच्छे लेखों को संकलित करे या फिर अछे ब्लोगर्स  को  . तो शायद एक अच्छी पत्रिका  की कमी कुछ हद तक पूरी हो . रविश जी प्रयास करें ऐसा कुछ करने का . पर एक अनुरोध  है उसे साम्यवाद , दक्षिण पंथी खेमो में न बांटे . हिंदी के लिए हो वह . देश के लिए हो वह . हमारे आपके लिए हो . हमारे जीवन के लिए हो .

12 अप्रैल 2010

वो घाव हरा था

कभी तिरे हाथ की लकीरों से गुजरा था ,
आईने को भी यकीं नहीं मेरा चेहरा था .
अब शब की सयाही मेरा हमसफ़र सही ,
कभी  मेरा सूरज उठा  था सुनहरा था .
अखबार हाथ में प्याली सा कांपे है ,
हादिसा बड़ा न हो पर डरा - डरा था .
सुनहरी शाम ने खिंची एक परछाई ,
वो दो बदन थे या इकहरा था . 
नाग खजाने के आस पास दिखे ,
तितलियों पर वैसा पहरा था .
तेरे मलहम की दुकान बड़ी है मगर ,
वो चोट पुरानी थी , वो घाव हरा था .
 

फेहरिश्त

राजा के हाथों में है -
एक फेहरिश्त .
फेहरिश्त में हैं नाम -
कुछ बड़े , कुछ छोटे ,
कुछ लम्बे , कुछ नाटे,
कुछ असली , कुछ खोटे,
कुछ ऊपर , कुछ नीचे ,
कुछ ढीले , कुछ खींचे ,
कुछ खुले  , कुछ मींचे .
कुछ पहचाने - कुछ अनजाने .
कुछ जागे, कुछ अनमने .
फेहरिस्त में नाम -
घटते हैं , बढ़ते हैं .
कटते हैं , जुड़ते हैं .
फेहरिस्त  में शामिल नाम
चाहते हैं -
दौड़ना - चाबुक लिए किले की प्राचीर पर .
बैठना - दरबार में .
पहुंचना- ख्वाबगाह में .
झुकना - कोर्निश में .
दबाना - अर्जी .
कानाफूसी - फर्जी .
पुतना - रंगमहल में , वार्निश में .
जुड़ना - लगान वसूली से. जोर से - जबरदस्ती से .
           कारिंदे से , महाजन से .
           महँगी से , सस्ती से .
           घर से , बाज़ार से .
रुक्का लिए , खजाने की ताकीद पर .
फेहरिस्त में शामिल नाम ,
बनना चाहते हैं - ' राजाज्ञा " .
डराना - ' प्रजा ".
फेहरिस्त के नाम चाहते हैं
मिटाना - दूसरे सब नाम , काँट- छाँट.
देना - राजा की डांट.
धकेलना - बाकि सब नाम ,
फेहरिस्त के बाहर. हाशिये पर .
राजा की फेहरिस्त -
लम्बी हो ,
छोटी हो ,
असल हो ,
खोटी हो .
वास्तव में एक शतरंज है .
तुम एक नाम हो , गोटी हो .
खेल - जहाँ - प्यादे से पिट जाये वजीर ,
लुटेरे का नाम निकले फकीर .
जहाँ हर चाल सियासत हो ,
जहाँ बेगम की बादशाहत हो .
जहाँ हाथी हो ,
ऊंट हो ,
घोड़े हों .
कुछ जियादा हों , थोडें हों .
सबकी एक चाल हो ,
सब मालामाल हों .
कुछ बंद कमरों में हो ,
कुछ सरे आम हो .
और खुद चाहता हो बादशाह
की
इतिहास की फेहरिस्त में - उसका नाम
सबसे ऊपर
सुनहरे हर्फों में हो .
ताकि सनद रहे .
पर ,
इतिहास  राजा नहीं लिखता ,
वक्त लिखता है .
उस पर किसका चलता है ?
- गुवाहाटी १८ अक्तूबर , २०००

11 अप्रैल 2010

कुछ कदम

कुछ कदम हम आपके साथ चले ,
और कुछ दिन ये मुलाकात चले .
आज शाम से मौसम उदास है ,
चलो कहीं बैठें कुछ बात चले .
उन्ही खतों को बार-बार पढना,
पुरानी शराब थी कई जाम चले .
ये शहर नया , ये लोग नए ,
नया तखल्लुस हो , नया नाम चले .
मुहब्बत में एक दिन ऐसा हो ,
वो बन संवर के मेरे साथ चले .
बेटियां जिंदगी का सरमाया हैं ,
कोई सबब है की कायनात चले .
बहुत दिनों से जुनूं   काबिज है ,
दौरे दीवानगी गजले   ख्याल चले .

मैं तुम्हे मार ही डालूँगा

तुम आये हो मेरे पास ,
बदहवास ,
तुम्हारे हाथों में हैं ,
चमकता ,
लपलपाता ,
एक लम्बा छूरा.
तुम आये हो मुझे मारने,
तुम मुझे मार ही डालोगे .
तुम्हारा है लंबा कद ,
बड़ा डील-डौल ,
भारी काठी ,
कद्दावर शरीर.
तुम्हारी लाल आँखों से ,
सच पूछो ,
तो मैं बहुत डर गया हूँ .
मैंने क्यों खोला दरवाजा ?
मैं क्यों नहीं मचाता शोर ?
तुम क्यों देख रहे हो इस तरह ,
                 मेरी ओर ?
क्यों मेरी हथेली है -
पसीने से पसीजी ?
और गला शुष्क ?
ये मुझे क्या हो गया है ?
अटक गए हैं शब्द गले में .
पेट से कान तक फ़ैल गयी मतली .
मैं जो देता था बड़ी बड़ी तकरीरें .
मुझे यकीं था किसी भी विषय पर 
मैं लिख लूँगा तकदीरें ,
समझा लूँगा .
मैं अफसानागो हूँ 
बचा लूँगा किरदार .
भले ही कहानी कुछ उखड़ी है , हड़बड़ है.
भाषा विन्यास पर ,मेरी बड़ी पकड़  है .
पर तुम्हारे हाथ में छूरा  है 
और फिसलते जा रहे हैं 
अन्दर मेरी जुबां से शब्द .
मौत का सन्नाटा मेरे ऊपर नाच रहा है ,
नब्ज बैठ रही है ,
और छा रहा है आँखों के आगे अँधेरा .
तुम आये हो मुझे मारने,
तुम मुझे मार ही डालोगे .
मैं कोस रहा हूँ उस घड़ी को 
जिसमे तुमसे हुआ था परिचय 
या फिर भय ?
याददाश्त ! मेरी याददाश्त को ये क्या हुआ ?
ये मुझे क्या हो रहा है ?
मैंने लपक कर उठा लिया छूरा.
तुम्हारे हाथ से फिसला छूरा .
तुम आये हो मुझे मारने 
मैं मार डालूँगा 
मैं तुम्हे  मार ही डालूँगा 
इससे पहले की तुम मुझे मार डालो .
कहीं तुम स्वयं से भयभीत नहीं थे ?
हाँ अब याद आया 
तुम आये थे दबे पाँव 
चुपचाप .
और नहीं बजायी बेल .
सिर्फ की दरवाजे पर हलकी सी खटखट .
या वह मेरे कान में थी ?
क्या तुम भाग रहे थे ?
और आये थे मेरे पास बचने ?
यह मैंने क्या किया ?
मैंने तुम्हे  मार डाला .
नहीं. 
तुम आये थे मुझे मारने
मैंने  तुम्हे मार डाला 
इससे पहले की तुम मुझे मार देते 

8 अप्रैल 2010

मैं क्यों लिखता हूँ

मैं क्यों लिखता हूँ ? लिखना मेरा पेशा नहीं है . फिर भी लिखना ? पत्र, टिपण्णी  , या परीक्षा में प्रश्न का उत्तर नहीं . किसी प्रेमिका को पत्र या किसी की शादी या जन्मदिन के कार्ड का मजमून भी नहीं . अपने बच्चों को नसीहत देते हुए लिखा जाने वाला पत्र भी नहीं . ऐसा नहीं की  ऐसा सब नहीं लिखा . ब्लॉग आमंत्रण वालों को लगता होगा की ये अपने ब्लॉग पर टिप्पणी  तो चाहता   है पर दूसरों पर देने  में कृपण है . पर जो दिन भर सिर्फ टिपण्णी ही लिखता हो वह क्या करे ?
मैं तुम्हे टिपण्णी दूँ तुम मुझे - ऐसा सौदा मुझसे नहीं होगा .
मैंने सबसे पहले कब लिखा ? स्कूल में - पंद्रह अगस्त के कार्य क्रम में कुछ बोलने के लिए दोस्तों ने नाम दे दिया . तब लिखा - आप यूँ ही दिवाली मनाते    रहिये , रोशनी हो न हो दिए जलाते  रहिये . और इसी तरह या तुक की बहुत सी पंक्तियाँ .
कुछ लोगों के अन्दर जब कुछ कुलबुलाता है तो वह दौड़ने लगते हैं , कुछ मिट्टी से खेलते खेलते मूर्ति बना डालते हैं , कुछ गाने लगते हैं , कुछ चिल्लाने लगते हैं . कुछ चुप हो ध्यान लगाते हैं . कुछ भजन गाते हैं . मैं पहले अपने आप से बतियाता था . सड़क पर चलते चलते , घर में बैठे बैठे . दोस्तों के साथ रहते , दोस्तों से बात करते करते . मेरे साथ मेरा संवाद जारी रहता था . फिर कभी कभी लिखा .
आगे ही लिखा की पेशेवर लेखक नहीं हूँ . पूरे जीवन में शायद इतना लिखा है जितना लोग एक महीने में लिख देते हैं . पर बहुत कुछ है जो नहीं लिखा . न कहा . धूमिल ने कहा था - एक समझदार चुप ... सब अपनी अपनी जगह .
पर टिपण्णी करे या न करें . दोस्तों मैं  अपने लिए लिखता हूँ . जो मैं करता रहूँगा .
जब पेशेवर हो जाऊँगा तब मिलना . तब होंगी सौदे की बातें . अपने शौक में मुझे दखल पसंद नहीं . किसी कविता में लिखा था - मैं बांटकर पीता जरुर   हूँ , पर खून  नहीं . और यह तब का है जब मैं आदमी था .

दोस्त ना दुश्मन बनें

दोस्त ना दुश्मन बनें , ऐसे गुजारा कीजिये ,
दोस्तों में हैं जो जरुरी फासले निभाया कीजिये |
सौदा नहीं था की रखा है याराने में सब हिसाब ,
न जख्म मेरे नापिए ना आसूं गिनाया कीजिये |
लगता है आपके इन तेवरों से डर कभी - कभी ,
उस गज़ल को आप यूँ ना गुनगुनाया कीजिये |
कच्ची बहुत हैं मेरे घर की दीवारें ऐ 'अतुल' ,
मेरी  गली से आप न कदम तेज जाया कीजिये|
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