12 अप्रैल 2010

वो घाव हरा था

कभी तिरे हाथ की लकीरों से गुजरा था ,
आईने को भी यकीं नहीं मेरा चेहरा था .
अब शब की सयाही मेरा हमसफ़र सही ,
कभी  मेरा सूरज उठा  था सुनहरा था .
अखबार हाथ में प्याली सा कांपे है ,
हादिसा बड़ा न हो पर डरा - डरा था .
सुनहरी शाम ने खिंची एक परछाई ,
वो दो बदन थे या इकहरा था . 
नाग खजाने के आस पास दिखे ,
तितलियों पर वैसा पहरा था .
तेरे मलहम की दुकान बड़ी है मगर ,
वो चोट पुरानी थी , वो घाव हरा था .
 

1 टिप्पणी:

आपके समय के लिए धन्यवाद !!

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