मैं क्यों लिखता हूँ ? लिखना मेरा पेशा नहीं है . फिर भी लिखना ? पत्र, टिपण्णी , या परीक्षा में प्रश्न का उत्तर नहीं . किसी प्रेमिका को पत्र या किसी की शादी या जन्मदिन के कार्ड का मजमून भी नहीं . अपने बच्चों को नसीहत देते हुए लिखा जाने वाला पत्र भी नहीं . ऐसा नहीं की ऐसा सब नहीं लिखा . ब्लॉग आमंत्रण वालों को लगता होगा की ये अपने ब्लॉग पर टिप्पणी तो चाहता है पर दूसरों पर देने में कृपण है . पर जो दिन भर सिर्फ टिपण्णी ही लिखता हो वह क्या करे ?
मैं तुम्हे टिपण्णी दूँ तुम मुझे - ऐसा सौदा मुझसे नहीं होगा .
मैंने सबसे पहले कब लिखा ? स्कूल में - पंद्रह अगस्त के कार्य क्रम में कुछ बोलने के लिए दोस्तों ने नाम दे दिया . तब लिखा - आप यूँ ही दिवाली मनाते रहिये , रोशनी हो न हो दिए जलाते रहिये . और इसी तरह या तुक की बहुत सी पंक्तियाँ .
कुछ लोगों के अन्दर जब कुछ कुलबुलाता है तो वह दौड़ने लगते हैं , कुछ मिट्टी से खेलते खेलते मूर्ति बना डालते हैं , कुछ गाने लगते हैं , कुछ चिल्लाने लगते हैं . कुछ चुप हो ध्यान लगाते हैं . कुछ भजन गाते हैं . मैं पहले अपने आप से बतियाता था . सड़क पर चलते चलते , घर में बैठे बैठे . दोस्तों के साथ रहते , दोस्तों से बात करते करते . मेरे साथ मेरा संवाद जारी रहता था . फिर कभी कभी लिखा .
आगे ही लिखा की पेशेवर लेखक नहीं हूँ . पूरे जीवन में शायद इतना लिखा है जितना लोग एक महीने में लिख देते हैं . पर बहुत कुछ है जो नहीं लिखा . न कहा . धूमिल ने कहा था - एक समझदार चुप ... सब अपनी अपनी जगह .
पर टिपण्णी करे या न करें . दोस्तों मैं अपने लिए लिखता हूँ . जो मैं करता रहूँगा .
जब पेशेवर हो जाऊँगा तब मिलना . तब होंगी सौदे की बातें . अपने शौक में मुझे दखल पसंद नहीं . किसी कविता में लिखा था - मैं बांटकर पीता जरुर हूँ , पर खून नहीं . और यह तब का है जब मैं आदमी था .
अभिव्यक्ति ,हमारी अपनी निजता है ,बुद्ध पुरुष दो ही मार्ग अपना सकते हैं ,अभिव्यक्ति या मौन ,मौन के पहली शर्त है ,मुखर होना ,मौन की साधना है अभिवक्ति -पहली सीढ़ी,आप मुखर होते हैं ,क्योंकि आप अपनी उर्जा को शून्य की परिधि में लाना चाहते हैं ,परम शून्य का मार्ग मुखरता हो सकती है ,अंत में तुलसी को उद्धृत करूँ की लेखनी स्वयं अपने मन के लिए है -"मत्वा तद्रघुनाथमनिरतं स्वान्तस्तमःशान्तये
जवाब देंहटाएंभाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम्।।"