14 नवंबर 2010

सामने

खंजर धरा है जैसे कोई नज़र के सामने 
मेरा मकां है कातिल के घर के सामने |
गिर के उठेंगी कब तक सागर से पूछिए ,
ग़र साहिल नहीं हो कोई लहर के सामने |
मसीहा नहीं , देवता है अब पता चला ,
फिर ठीक झुका शीश पत्थर के सामने |
मुझको गिला नहीं उसका जमीर है ,
वादा था उसका वैसे शहर के सामने |
आईने को चेहरे की पहचान नहीं थी वर्ना ,
यूँ ही नहीं चला आता पत्थर के सामने |
जाँ भी नहीं जाती किसका जहर लूँ मैं 
बेअसर हैं सब उसके असर के सामने |
वो तुझसे नहीं मिला वर्ना नहीं कहता 
शाम नहीं देखी कभी दोपहर के सामने |

1 टिप्पणी:

आपके समय के लिए धन्यवाद !!

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